Friday, June 2, 2023

गीता तत्त्वम् भाग -10 कर्म , सर्ग और विसर्ग


गीता तत्त्वम् - 10

    कर्म ,  सर्ग और विसर्ग                                    कुरुक्षेत्र – युद्ध 

प्रभु श्री कृष्ण गीता अध्याय : 2 में  ज्ञान योग के केंद्र आत्मा को स्पष्ट करते हैं और गुणातीत की पहचान भी बताते हैं । अध्याय : 3 के प्रारंभ में अर्जुन पूछते भी हैं की यदि कर्म की अपेक्षा ज्ञान आपको श्रेष्ठ लगता है तो फिर आप मुझे कर्म करने के लिए क्यों प्रेरित कर रहे हैं ? इसी प्रकार गीता अध्याय : 5 के प्रारंभ में अर्जुन पूछ रहे हैं , हे कृष्ण ! आप कर्म संन्यास की बात करते हैं और फिर कर्मयोग की प्रशंसा भी करते हैं , आप कृपया मुझे इन दोनों में जो श्रेष्ठ हो उसे बताएं ।

अभी तक बिना कर्म की परिभाषा समझे अर्जुन कर्म से सम्बन्धित प्रमुख बातों को व्यक्त कर चुके हैं एवं प्रभु श्री कृष्ण बिना कर्म की परिभाषा बताए अर्जुन की कर्म संबंधित जिज्ञासाओं के संबंध में काफी कुछ कह भी चुके हैं तथा कर्म की परिभाषा गीता अध्याय : 8 में निम्न श्लोक के मध्यम से दे रहे हैं जबकि कर्मकी परिभाषा पहले जाना आवश्यक था । इस विषय पर आप स्वयं सोच सकये हैं , अभी कर्मकी परिभाषा को देखते हैं जो निम्न प्रकार है   ⤵️

भूत भाव उद्भव करः विसर्गः कर्म :  

~~  गीता - 8.3 ~~

Dr. S.Radhakrishanan गीता के इस श्लोक का भाषांतर कुछ निम्न प्रकार से करते हैं ⬇️

Karma is the creative impulse out of which life,s forms issue . The whole cosmic evolution is called Karma . 

गूगल आधारित हिंदी भाषान्तर 

कर्म वह रचनात्मक प्रेणना है जिससे जीवों के रूपों का निर्गमन होता है । संपूर्ण ब्रह्मांडीय विकास को कर्म कहा जाता है ।

कुछ अन्य लोग इस गीता श्लोक : 8.3 का अर्थ कुछ इस प्रकार करता है -------

The primal resolve of God [visarga] ,which brings forth the existence of beings is called Karma .

गूगल आधारित हिंदी भाषान्तर

ईश्वर का मूल संकल्प ( विसर्ग ) जो प्राणियों के अस्तित्व को प्रकट करता है , कर्म कहलाता है।

( सर्ग - विसर्ग को आगे देखा जा सकता है )

स्वामी प्रभुपाद  श्लोक : 8 .3 का अर्थ कुछ इस प्रकार से करते हैं ------

जीवों के भौतिक शरीर से सम्बंधित गतिविधियां , कर्म या सकाम कर्म कहलाती हैं  /

अब गीता में उतरने से पूर्व सर्ग - विसर्ग को भी श्रीमद्भागवत पुराण के आधार पर समझते हैं ⤵️


भागवत पुराण : 11.19 और 11.22 में बताया गया है कि विभिन्न तत्त्व ज्ञानी तत्त्वों की संख्या  4 , 6 , 7 , 9, 11 , 13 , 16 , 17 , 25 , 26 , और 28 बताते हैं जैसा नीचे स्लाइड में भी दिखाया गया है । नीचे स्लाइड में संबंधित तत्त्वों को भी देखा जा सकता है ।

श्रीमद्भागवत पुराण वेदांत दर्शन संबंधित पुराण है जिसमें तत्त्वों की संख्या के संबंध में प्रभु श्री कृष्ण उद्धव को 11 श्रेणियों में तत्त्वों की संख्या 4 , 6 , 7 , 9 , 11 , 13 , 16 , 17 , 25 , 26 और 28 बता रहे हैं । अब आप सोचिए क्या ये संख्याएं उद्धव की बुद्धि को भ्रमित नहीं करेंगी ? 

सांख्य दर्शन में महत्तत्त्व , अहंकार , 11 इंद्रियां , 5 तन्मात्र और 5 महाभूत - 23 तत्त्व बताए गए हैं जिन्हें पतंजलि योग दर्शन भी मानता है ।

जब आप नीचे तालिका में दिए गए कर्म संबंधित गीता के 33 श्लोकों को देख लेंगे तब आप गीता के सूत्र 8.3 में दिए गए कर्म की परिभाषा कुछ इस प्रकार से करेगें⤵️

"शरीर , इंद्रिय , मन , बुद्धि एवं अहंकार के सहयोग से  जो भी होता है , वह कर्म है / कोई भी बिना कर्म किए क्षण भर नहीं रह सकता । तीन गुणों से मनुष्य का स्वभाव बनता है , स्वभाव के कर्म होता है ।

वस्तुतः कर्म करता तीन गुण हैं लेकिन हम अहंकार के प्रभाव में स्वयं को करता समझ बैठते हैं "

गीता में कर्म संबंधित कुछ मूल श्लोक ⤵️


18.23

18.24

18.25

3.5

18.11

3.8

18.59

18.6

3.27

3.33

3.28

18.48

18.49

18.5

18.2

3.19

320

5.10

2.47

2.48 

2.49

250

2.51

8.3

4.21

4.22

4.23

5.11

2.14

18.38

5.22

5.8

18.4

-

-






गीता  – 18.23

भावातीत की स्थिति में जो कर्म होता है , वह सात्त्विक कर्म होता है 

गीता  -  18.24

राजस गुण के प्रभाव में हुआ कर्म राजस कर्म होता है 

गीता -  18.25

तामस गुण में जो हो वह तामस कर्म होता है 

गीता  – 2.45

श्री कृष्ण कहते हैं , अर्जुन वेद तीन गुणों के कर्म फलों की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार के उपाय बताते हैं , वेद त्रिगुणी विषयों की प्रसंशा करते हैं लेकिन तुमको प्रभु केंद्रित समभाव गुणातीत बनना चाहिए। 

गीता  – 3.5

कर्म कर्ता तीन गुण हैं अतः कर्म रहित होना संभव नहीं 

गीता – 3.27

कर्म कर्ता तीन गुण  हैं कर्ता भाव अहंकार की छाया है 

गीता  – 3.33

गुण समीकरण स्वभाव का निर्माण करता है और स्वभाव से कर्म होता है 

गीता  : 18.59 – 18.60

अभी तुम अहँकार के प्रभाव में युद्ध नहीं करना चाह रहा है लेकिन तेरा स्वभाव तुझे युद्ध करने को विवश कर देगा। अभी मोहवश तुम युद्ध नहीं करना चाह रहा लेकिन अपनें स्वभाविक कर्म से बधा हुआ परवश हो कर युद्ध करेगा ।

गीता  – 3.8

कर्म में कर्म बंधनों को समझना चाहिए 

गीता – 18.11

न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्य शेषत :     /

यस्तु कर्मफल त्यागी सः त्यागी इह अभिधीयते //

देह धारी कभीं भी कर्म रहित नहीं हो सकता 

गीता  – 3.38

गीता यहाँ गुण विभाग – कर्म विभाग की बात बता रहा है / गुणों में चल रहे परिवर्तन का परिणाम कर्म कर्म है । 

गुण आधारित कर्म तीन प्रकार के हैं

 (गीता : 18.23 - 18.25 ) ।

गीता  – 18.48

सभीं कर्म दोष युक्त होते हैं /

गीता  – 18.49

कर्म से नैष्कर्म – सिद्धि मिलती है /

गीता – 18.50

नैष्कर्म सिद्धि ज्ञान योग की परानिष्ठा है /

गीता  – 18.2

कामना रहित कर्म संन्यासी बनाता है 

गीता – 3.19

आसक्ति रहित कर्म प्रभु से जोड़ता है 

गीता  – 3.20

आसक्ति रहित कर्म प्रभु का द्वार है 

गीता  – 5.10

आसक्ति की ऊर्जा में हुआ कर्म पाप की ओर ले जाता है 

गीता सूत्र – 2.47 से 2.51 तक

आसक्ति रहित कर्म समत्व – योग है 

गीता  – 8.3

( कर्म की परिभाषा ऊपर दी जा चुकी है )

गीता  – 4.21

कर्म में फल की चाह न हो तो वह कर्म बंधन मुक्त होता है 

गीता  – 4.22

समत्व योगी कर्म बंधन से मुक्त होता है 

गीता – 4.23

समत्व – योगी गुणातीत होता है 

गीता – 5.11

आसक्ति रहित कर्म निर्विकार बनाता है 

गीता  – 2.14

इन्द्रिय सुख क्षणिक होता है 

गीता  – 18.38

इन्द्रिय सुख में दुःख छिपा होता है 

गीता :  5.22 और गीता : 2.14 

इंद्रिय - बिषय संयोग की निष्पत्ति भोग है जो भोगी के लिए भोग समय में सुख देता है लेकिन इस सुख का फल दुःख होता है । इन्द्रिय - बिषय संयोग की निष्पत्ति अनित्य है जो सुख - दुःख को देनेवाली है ।

गीता  – 5.8

कर्म का द्रष्टा तत्त्व वित् होता है 

गीता – 3.8

कर्म एक माध्यम है कर्म तत्त्वों को समझनें का 

गीता – 18.40

गुणों के सम्मोहन से अप्रभावित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कोई सूचना नहीं 


अब गीता श्लोक : 4.19 , 4.20 , 4.21 , 4.22 , 6.2 ,18.2 को एक साथ देखते हैं 

गीता  – 4.19

संकल्प रहित कर्म ज्ञान का द्वार है 

गीता  : 4.20 - 4 .21

कर्म फल की चाह रहित एवं आसक्ति रहित कर्म योग मार्ग के बंधन नहीं और भोग भाव रहित कर्म करने वाला पापमुक्त होता है 

गीता  – 6.2

संकल्प रहित कर्म योग – संन्यास है 

गीता  – 18.2

कामना रहित कर्म कर्म संन्यास है 

 गीता के कुछ कर्मयोग साधना के श्लोक

गीता - 3.19

तस्मात् असक्त : सततं कार्यम् कर्म समाचार 

असक्त : हि आचरन् कर्म परम आप्नोति पुरुषः //  आसक्ति रहित कर्म प्रभु का द्वार है 

गीता - 18.49

असक्त : बुद्धि : सर्वत्र जित – आत्मा विगत – स्पृहा :

नैष्कर्म्य – सिद्धिं परमां संन्यासेन् अधिगच्छति आसक्ति रहित कर्म से नैष्कर्म्य की सिद्धि संभव है 

गीता - 18.50

सिद्धिं प्राप्त : यथा ब्रह्म तथा आप्नोति निबोध मे

समासेन एव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा //

नैष्कर्म्य – सिद्धि ज्ञान – योग की परानिष्ठा है 

गीता - 5.11

कायेन मनसा बुद्ध्या केवालै : इन्द्रियै : अपि 

योगिनः कर्म कुर्वन्ति संगम त्यक्त्वा आत्म शुद्धये //

योगी के आसक्ति रहित कर्म से उनका तन , मन एवं बुद्धि निर्विकार होती रहती है 

गीता - 18.2

काम्यानां कर्मणाम् न्यासम् संन्यासं कवयो : विदु 

सर्वकर्मफल त्यागं प्राहु : त्यागं विचाक्षणा  //

~~ ॐ ~~


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