Thursday, June 15, 2023

गीता तत्त्वम् भाग - 15 भक्ति




जब भी भक्ति शब्द सुनाई पड़ता है , राधा , मीरा , परमहंस रामकृष्ण , चैतन्य प्रभु और नानक जी आदि की फोटोज एक के बाद एक आंखों में उतरने लगती हैं । भक्ति का कोई शास्त्र नहीं और हो भी नहीं सकता । नारद जी भक्ति शास्त्र की असफल कोशिश की थी। भक्ति की यात्रा , अनंत की यात्रा है। भक्ति एक सात्त्विक नशा है जो चढ़ता - उतरता रहता है । जब यह नशा चढ़ता है तब भक्त समाधि माध्यम से अनंत में तैर रहा होता है । जब यह नशा उतरता है तब भक्त की हालत कस्तूरी मृग जैसी हो जाती है ; भागता फिरता है , कभी नाचता रहता है तो कभी रोता रहता है , देखने वाले इसे पागल कहते हैं लेकिन वह तो स्वयं प्रभु की गोदी में होता है ।

# " Bhakti is endless and pathless journey "

# " भक्त माया का दृष्टा होता है "

 ~~ भागवत पुराण : 11.3 ~~

अब देखे ,  माया क्या है !

# माया माध्यम से आत्मा दृश्य पदार्थों से जुड़ा हुआ है 

# माया सम्मोहन में मनुष्य अपने मूल स्वभाव को भूल जाता है और आसुरी प्रकृति वाला होता है 

# दृश्य - दृष्टा का अनुसंधान करता , माया है

# जन्म , जीवन और मृत्यु माया का विलास है 

# तीन गुणों का अति सूक्ष्म माध्यम माया है ।

(ऊपर दी गई बातें भागवत आधारित हैं )

वेद के तीन काण्ड हैं - कर्म ,उपासना और ज्ञान।

जब कर्म के होने के हेतु कर्म बंधन नहीं रह जाते , तब वह कर्म प्रवृति परक न रह कर निवृत्ति परक हो जाता है । निष्काम कर्म द्वारा प्रभु से जुड़ना उपासना है जो स्वयं भक्ति है । जब परोक्ष ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान में रूपांतरित हो जाता है तब प्रभु के मायारहस्य का बोध हो जाता है और यही बोध जब बसेरा बन जाता है तब अहंकार -संकल्प मुक्त साधक भक्ति में होता है ।

माया का दृष्टा प्रभु का अनन्य भक्त होता है , 


अब आगे ⤵️


साकार (अपरा ) भक्ति और निराकार ( परा ) भक्ति , भक्ति के दो प्रकार तो नहीं दो चरण हैं । जब अपनें साध्य पर पूर्ण श्रद्धा और समर्पण का भाव हृदय में भर जाता है तब उस साध्य की भक्ति का भाव अंतःकरण में भरने लगता है । जबतक भक्त आलंबन के मध्यम से अपनें को प्रभु से जोड़े रहता है तबतक वह अपरा भक्ति में रहता है जैसे परमहंस रामकृष्ण जी काली की मूर्ति से जुड़े रहते थे । साकार भक्ति में साध्य और साधक आमने - सामने रहते हैं । चेतन और जड़ अर्थात भक्त और मूर्ति में वार्तालाप होता रहता है । जैसे - जैसे अपरा भक्ति सघन होती जाती है , वैसे - वैसे साध्य में साधक विलीन होता चला जाता है जैसे नमक का एक पुतला पानी में डालने पर धीरे - धीरे घुलता चला जाता है और अंततः वह अपना अस्तित्व खो देता है । ठीक इसी तरह साधक अपने साध्य में घुलता चला जाता है और नमक के पुतले की भांति एक ऐसी अवस्था में पहुंच जाता हैं जहां वह नहीं होता केवल उसका साध्य रहता है । इस अवस्था को पतंजलि योग सूत्र में चित्त की शुन्यावस्था कहते हैं जहां साध्य निमित्त मात्र रह जाता है और उसी पर चित शून्य हो जाता है। चित्त का आलंबन पर शून्य हो जाना संप्रज्ञात समाधि है ।

पतंजलि 04 प्रकार की संप्रज्ञात समाधि बताते हैं , देखे निम्न स्लाइड को⬇️  

जिस सात्त्विक आलंबन ( साध्य ) पर ध्यान हो रहा हो उस आलंबन का ध्यान में अर्थमात्र रह जाना और उस अर्थमात्र पर चित्त का शून्य हो जाना , संप्रज्ञात समाधि है । इस अवस्था को पतंजलि 04 प्रकार की बता रहे 

हैं । पहली अवस्था वितर्क की होती है । यहां आलंबन के स्थूल रूप पर चिंतन करते - करते चित्त का शून्यवस्था में आ जाना होता है । दूसरी अवस्था विचार की होती है जिसमें आलंबन के सूक्ष्म रूप पर चिंतन करते - करते चित्त शून्य हो जाता है । तीसरी अवस्था में मन , बुद्धि , इंद्रिय और अहंकार में सात्त्विक ऊर्जा बह रही होती है और अति इंद्रिय आनंद की अनुभूति भावातीत अवस्था में हो रही होती है । चौथी अवस्था में साधक यह समझ बैठता है कि वह प्रकृति के 23 तत्त्व नहीं अपितु वह शुद्ध चैतन्य है , इस अवस्था को अस्मिता संप्रज्ञात समाधि कहते हैं। अस्मिता की सिद्धि में साधक को बिहेहा और महा बिदेहा की अनुभूति होने लगती है । साधक स्वयं को अपनें स्थूल शरीर से बाहर देखने लगता है जिसे out of body experiecing कहते हैं। वितर्क , विचार और आनंद संप्रज्ञात समाधियों की सिद्धि वाला योगी प्रकृति लय योगी कहलाता है और अस्मिता संप्रज्ञात समाधि सिद्धि वाला योगी विदेह लौट योगी होता है ।

साधना का चाहे कोई भी मार्ग क्यों न हो जैसे भक्ति और योग आदि , सब में ऊपर व्यक्त चार अवस्थाए एक के बाद एक घटित होती रहती हैं । संप्रज्ञात या साकार समाधि के बाद असंप्रज्ञात समाधि या निराकार समाधि की सिद्धि मिलती है जिसमें आलंबन का अभाव रहता है । देखे पतंजलि को यहां ⤵️

समाधि पाद सूत्र : 51 

तस्य , अपि , निरोधे , सर्व , निरोध , अन्य , निर्वीजः 

अर्थात संप्रज्ञात समाधि तक राजस तामस गुणों की वृत्तियोंबका तो निरोध हो जाता है लेकिन सात्त्विक गुण की वृत्तियां शेष रह जाती हैं । असंप्रज्ञत समाधि सिद्धि से सात्त्विक गुण की भी वृत्तियां भी निर्मूल हो जाती हैं । असंप्रज्ञात या निराकार समाधि के बाद धर्ममेघ समाधि मिलती है जिसमें साधक के संस्कारों के बीज भी प्रतिप्रसव अवस्था में आ जाते हैं और वह योगी इस अवस्था में आने के बाद ज्यादा दिनों तक शरीर में नहीं रह पाता , शरीर का स्वत त्याग हो जाता है और वह आवागमन से मुक्त हो जाता है जिसे कैवल्य कहते हैं ।

पतंजलि अष्टांगयोग साधना में अंतिम तीन अंग धारणा , ध्यान और समाधि के हैं । जब धारणा , ध्यान और समाधि एक साथ एक आसान में बैठे रहने पर स्वत : घटित  होने लगते हैं तब उसे संयम सिद्धि कहते हैं । संयम सिद्धि से सिद्धियां मिलती है । सिद्धियों के बाद कैवल्य मुखी योगी अव्यक्तातीत अवस्था में रहने लगता है । 

आलंबन युक्त भक्ति अपरा भक्ति होती है और अपरा भक्ति में जन आलंबन निमित्त मात्र रह जाता है और उसी निमित्त मात्र आलबन पर चित्त शून्य हो जाता है तब वह साधक परा भक्ति में होता है ।

 कान्हा उद्धव को  मथुरा से ब्रज गोपियों को तत्त्व ज्ञान की शिक्षा देने के लिए भेजे थे । उद्धव कई माह ब्रज में रहने के बाद जब मथुरा लौटे तब वे एक तत्त्व ज्ञानी नहीं , एक प्रेमा भक्ति में डूबी गोपिका बन चुके थे ।  उद्धव गए तो थे गोपियों को प्रेमा भक्ति से हटा कर तत्त्व ज्ञानी बनाने लेकिन ऐसा हो न सका । अनपढ़ बनबासिनी गोपियां तत्त्व ज्ञानी उद्धव के तत्त्व ज्ञान को उनके अंतःकरण से निकाल कर उसमें शुद्ध कान्हा प्रेमा भक्ति भर 

दिया । भक्ति हृदय केंद्रीय होती है और तत्त्व ज्ञान का केंद्र बुद्धि होती है । भक्ति की कोई गणित नहीं , तत्त्व ज्ञान स्वत:  एक गणित है । 

कान्हा प्रेम - भक्ति में सब प्रेमिका हैं , प्रेमी तो एक ही है , कान्हा । राधा उद्धव को कहती हैं , हम सभीं गोपियाँ और कुछ नहीं चाहती , केवल कान्हा के दर्शन चाहती हैं जो राधा को कान्हा और कान्हा को राधा बनाता है । 

एक भक्त के दिल की धड़कनें कहती हैं ⏬


# एक परा भक्त के कुछ मूल मंत्रों को ऊपर दिया गया है , आप इन 05 मंत्रों पर गंभीरता से मनन करें #

प्रभु से एकत्व स्थापित करने के कुछ सूत्र यहां दिए जा रहे हैं , आप इनमें से किसी एक को पकड़ कर वैराग्य में छलांग लगा सकते हैं । वैराग्य ही भक्ति का फल है।

# जैसे नदी में थोड़ी खुदाई से शीघ्र जल मिल जाता है वैसे तीर्थ में थोड़े प्रयत्न से प्रभु की खुशबू मिलने लगती है ।

# देवदर्शन , तीर्थ भ्रमण , सत्संग आदि से उठ रहे सत भावों में से किसी एक के साथ चित्त को बाध देना , धारणा है । धारणा की सिद्धि पर ध्यान में प्रवेश मिलता है । ध्यान की सिद्धि से संप्रज्ञात समाधि मिलती है और इसके बाद क्रमशः असंप्रज्ञात समाधि , धर्ममेध समाधि और कैवल्य मिलते हैं ।

# जबतक ईश्वर भाव जागृत नहीं होता , तीर्थ यात्रा मात्र मनोरंजन होता है । जब तीर्थ बुलाते हैं तब वह तीर्थ यात्री वहां से लौटता नहीं ।

# मन की शुद्धता ध्यान है 

# गुणों से सम्मोहित चित्त की दौड़ गुदा , लिंग और नाभि के मध्य सीमित रहती है और निर्गुण चित्त प्रभु का आइना बन जाता है ।

# प्रभु केंद्रित साधक के लिए कोई अनित्य नहीं , सब नित्य हैं । ईश्वरानुभूति ही विवेक है । असत् में बसे हुए को सत् का बोध होना विवेक है ।

#जैसे धूप से तालाब सुख जाते हैं वैसे ईश्वर समर्पित सात्त्विक श्रद्धावान के विषय - आसक्ति सुख जाती है ।

# जब संध्या का लय गायत्री में , गायत्री का लय एक ओंकार में होने लगे तब समझना चाहिए प्रभु दूर नहीं ।

# बिना भोग बंधन मुक्त हुए प्रभु की व्याकुलता नहीं उठती और बिना व्याकुलता प्रभु से एकत्व नहीं स्थापित होता ।

# भक्ति स्त्री है जो अंतःपुर तक पहुंचती है और ज्ञान पुरुष है जो बाहर - बाहर फैलता रहता है ।

# जैसे पशु घूम - घूम कर चारा खाता है और बाद में एक जगह बैठ कर उसे प्यार से चबाता रहता है वैसे तीर्थ यात्रा , देवदर्शन आदि भ्रमण के बाद एक स्थान पर शांत हो कर वहां से मिली सत्  अनुभूति का मनन करते रहना चाहिए । 

# तीर्थ यात्राके बाद विषय -वासना युक्त पुरुष की संगति नहीं करती चाहिए ।

<> सरल हुए बिना सरल को समझना संभव नहीं और प्रभु तो अति सरल हैं ।


  मनुष्य जीवन क्यों मिला हुआ है , क्या  ⤵️

1 - कुछ पाने के  लिए   ⤵️

2 - कुछ जानने के लिए  ⤵️ 

3 - और कुछ करने के लिए  , जी हां 

अर्थात

 कृतार्थ होने के लिए मिला हुआ है 

 जिस मनुष्यने मृत्यु में उतरने से पहले ऊपर व्यक्त तीन तत्त्वों  को पूरा कर लिया होता है उसे मुक्त पुरुष या कृतार्थ कहते हैं ।

अब  ऊपर दिए गए तीन उद्देश्यों को समझते हैं ⤵️

✡️ क्या पाना है ?

 अपने मूल स्वभाव को पाना है 

⚛️क्या जानना है ?

  प्रकृति - पुरुष अलग - अलग हैं , यह जानना है

☸️ क्या करना है ? 

कैवल्य तक की  यात्रा करनी है

अब कुछ और ⤵️

👌 सतगुरुको पूजना आसान पर उनके पैर से पैर मिला कर चलना अति कठिन 

👌सतगुरुको खोजना आसान पर उनको पाना अति कठिन 

👌सतगुरु नाव होता है जो इस पार ( भोग संसार से ) उस पार ( ध्यान संसार ) में पहुँचा कर परम में उड़ान भरने की ऊर्जा देता है ।

👌सतगुरु का ऊर्जा क्षेत्र  सत्य - खोजियोंको आकर्षित करता है ।

👌सतगुरु की भाषा निःशब्द की भाषा होती है जिसकी ऊर्जा उनके ऊर्जा क्षेत्र  के अंदर बैठे हुए के अंदर संदेह नहीं अंकुरित होनें देती ।

👌सतगुरु पारस होता है जो लोहे जैसे को सोना बनाता है पर गोबर जैसे को नहीं ।

👌सतगुरु पंथ - निर्माण नहीं करता , परम सत्य - मार्ग पर चलाता है ।

👌सतगुरु निर्विचार होता है ।

👌सतगुरु एक ऐसे शिष्य की तलाश में रहता है जिसे वह अपने ज्ञान - दीपको दे कर चोला त्याग सके ।

👌 सतगुरु की प्राप्ति कई जन्मोंकी खोजका फल होता है ।

# प्यारकी कोई गणित नहीं , प्यारमें कोई तर्क नहीं  और भक्ति प्यार एक दूसरे संबोधन हैं 

# प्यारकी जगह , हृदय है ,परामात्मा भी हृदय में बसते हैं 

# हृदय में उठ रही प्यार की धड़कनें , जब इंद्रियोंको छूती हैं तब तन बेचैन हो उठता है और ये धड़कनें वासनाओ में बदल जाती हैं और साधक जा रुख पीछे की ओर हो जाता है 

 श्रोतापन क्या है ? 

स्थिर मन , संदेह , भ्रम , मोह , कामना रहित बुद्धि , श्रद्धा से परिपूर्ण हृदय ,पूर्ण समर्पण 

और अहंकार मुक्त अंतःकरण  श्रोता बनाता है ।

श्रोताके मन दर्पण पर प्रभु प्रतिबिंबित होते हैं ।

 # सब कुछ याद रखने से सब कुछ भूल जाने तक की यात्रा का ही नाम तो मनुष्य जीवन का लक्ष्य है और इसी का दूसरा नाम भोग से वैराग्य तक की यात्रा है । जब यह यात्रा फलित होने लगती है तब अव्यक्त व्यक्त की भांति दिखने लगता है ।

# हाँथ को बार - बार धो कर किस्मत की लकीरों को नहीं बदला जा सकता ।

#  अंग प्रत्यार्पण ( organ transplantation ) से यदि हाँथ बदल दिया जाय फिर भी किस्मत की लकीरें नहीं बदलती । 

😢 दर्द में डूबा मन , दर्द व्यक्त नहीं करना चाहता और कर भी नहीं सकता क्योंकि उसके पास शब्द नहीं होते , दर्द शब्दों से नहीं आंसू से व्यक्त होते हैं । भक्त के आंसू प्यार के आंसू होते हैं जो गर्म नहीं ठंढे होते हैं 

# जब मनुष्य दूसरों की गलतियों के बजाय अपनी की गयी गलतियों पर सोचने लगता है तब उससे परमात्मा दूर नहीं होते ।

# मनुष्य  अकेले रह नहीं पाता और परिवार में उसे चैन नहीं मिलता फिर वह  कहाँ रहे ! 

♥️ भरा हुआ दिल खाली होना चाहता है

खाली दिल भरना चाहता है दिल की यही चाह , दिल की धड़कन है / दिल की ये दोनों अवस्थाएँ शून्यावस्था की हल्की झलक दिखाती हैं , और इस शुन्यवस्था की झलक यदि देर तक मिलती रहे तो  परम की झलक मिलने लगती है ।


अब गीता के कुछ श्लोकों को देखते हैं 


यहां देखें गीता के निम्न श्लोकों 

  5.24 , 6.27 , 6.29 , 6.30 , 7.17


गीता सूत्र – 5.24

अंतर्मुखी निर्वाण प्राप्त कर सकता है 

गीता सूत्र – 6.27

राजस गुण प्रभु से दूर रखता है 

गीता सूत्र – 6.29

राजस एवं तामस गुणों से अप्रभावित के लिए प्रभु निराकार नहीं रहता 

गीता सूत्र – 6.30

सब में कृष्ण को  देखने वाले और सब को कृष्ण में देखनेवाले के लिए कृष्ण अदृश्य नहीं रह पाते 

गीता सूत्र – 7.17

परा भक्त के हृदय में प्रभु की आवाज गूजती है 

[ कहते हैं स्वामी रामतीर्थ के तन से राम धुन निकलती रहती थी और मीरा को सर्वत्र कृष्ण के बासुरी की धुन सुनाई पड़ती थी ]


~~~ ॐ ~~~ 

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