* मनुष्यके माथेसे पसीना टपकने लगता है और धीरे - धीरे भोगकी सोचकी सघनता गहरानें लगती है ।
* मनुष्यके अपनें भोग - सुखमें परम सुखको पकड़ने की प्यास हर भोग - क्षणके साथ और तिब्र हो जाती है । * अपनें और परायेके बीचकी दूरी बढ़नें लगती है ।
* अहंकार कामना पूर्तिके लिए कहाँ - कहाँ चक्कर नहीं लगवाता ।
* जैसे दुःख निवारण हेतु जल्दी - जल्दी दवा और हकीम बदले जाते हैं वैसे कामना पूर्ति हेतु देवताओं एवं गुरुओंको हम बदलनें लगते हैं ।
<> और यह भ्रमित भोग - सुख में परम सुख की तलाश हमें कहाँ - कहाँ नहीं भगाती ? जितना हम भागते हैं - परम सुख मुझसे उतना और दूर होता दिखनें लगता है ।
* हम आँखें बंद करने अपनीं हर कामयाबी पर स्वयं अपनीं पीठ ठोकने में कभीं नहीं चूकते ।
* हम यह समझनें में कभीं नहीं चूकते कि हमारी कामयाबी हमारे अथक श्रमका फल है और नाकामयाबीका कारण मैं नहीं वह है ।
* संसारकी हवाके प्रभावमें हम इतनीं बेहोशीमें आ जाते हैं कि लोगोंको धोखा देते - देते इतने आदी हो जाते हैं कि फिर अपनेंको भी धोखा देनें लगते हैं ।
* हम जब स्वयंको धोखा देनें में पक जाते हैं तब परमात्माको भी धोखा देनें लगते हैं ।
* संसारकी हवा हमारे होशके ऊपर बेहोशीकी चादर धीरे - धीरे ऐसे चढ़ाती चली जाती है कि आगे चल कर यही चादर कफ़न बन जाती है और हम होश खोजते - खोजते बेहोशी में दम तोड़ देते हैं ।
* भोगके क्षणिक सुखमें परम सुखकी तलाश की यात्रा भोगके सम्मोहन के कारण अधूरी ही रह जाती है और पुनः जन्म से यह यात्रा फिर शुरू हो जाती है ।
~~~ॐ ~~~
Saturday, May 23, 2015
कतरन - 14 ( संसारकी हवा हमें कहाँ से कहाँ ले जाती है )
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