Tuesday, November 29, 2022

उद्धव की ब्रज यात्रा , गोपियों से वार्ता और भ्रमर गीत भागवत आधारित

उद्धवजी कौन हैं ? 👍ब्रह्मा पुत्र ऋषि अंगिरा के पुत्र एवं देवताओं के पुरोहित बृहस्पति जी के शिष्य हैं , उद्धव जी। बृहस्पतिजीकी पत्नी तारा और ब्रह्मा पुत्र ऋषि अत्रि के पुत्र चन्द्रमा से बुध का जन्म होता है । बुध से त्रेतायुग के प्रारम्भ में पुरुरवा का जन्म होता है । पुरुरवा से चंद्र बंश प्रारम्भ होता है । इस कुल में 28 वे द्वापर के अंत में प्रभु श्री कृष्ण और बलराम जी का जन्म होता है । 👍उद्धव जी वृष्णि बंशी हैं और कृष्ण से उम्रमें बड़े हैं । कृष्ण अवतार पूर्व उद्धवजी जब 05 वर्ष के थे , कृष्ण की मिट्टी की मूर्तियाँ बनाया करते थे । √ 👍उद्धवजी जब बृहस्पति जी से शिक्षा ग्रहण कर रहे थे तब बृहस्पति बता दिए थे कि निकट भविष्यमें तुम्हाते ही कुल में कृष्ण अवतार होने वाला है । तुम शौभाग्यशाली हो कि तुमको उनके संग रहने का सुअवसर मिलेगा ।√ 👌 उद्धव जी जो निर्गुण , निराकार उपासक हैं , कृष्ण के मथुरा के साथी और परम मित्र एवं सलाहकार हैं । देखने में उद्धब कृष्ण जैसे ही दिखते भी हैं । उद्धव जी की स्मृति में गुरु बृहस्पति जी की यह बात कि कृष्ण जो तुम्हारे कुल में अवतरित होनेवाले हैं वे परम् ब्रह्म हैं , हर पल बनी रहती है अतः अपने मित्र एवं सखा , साकार - सगुण कृष्ण में निराकार - निर्गुण परब्रह्म दिखते रहते हैं । उद्धवकी ब्रज यात्रा कान्हा जी उद्धव को संबोधित करते हुए कहते हैं , उद्धव भैया ! आप ब्रज जाओ , वहाँ मेरे पिता - माता ; नंदबाबा और यशोदा मैया हैं । इस समय मेरी अनुपस्थिति के कारण वे दुःखी हैं । आप अपनें ब्रह्म - ज्ञान से उन्हें मोह बंधन स्व मुक्त करा सकते हैं । दूसरी तरफ ब्रज की गोपियाँ मेरे विरह –पीड़ा में डूबी हुई हैं । तुम उन्हें भी अपनें ब्रह्म - ज्ञान एवं मेरा सन्देश सुनाकर वेदनामुक्त कर सकते हैं । गोपियाँ मुझे अपनी आत्मा समझती हैं । मैं अक्रूरजी के संग मथुरा आते समय उन सबको कहा था कि मैं अपना कार्य पूरा करके लौट आऊंगा लेकिन यह अभीं संभव नहीं दिख रहा । इस समय उन्हें मेरा यह दिया गया बचन ही उनके जीने का आधार बना हुआ है । वे केवल इस लिए जी रही हैं कि एक दिन मैं उनसे मिलने ब्रज अवश्य आऊँगा । प्रातः काल में उद्धव जी कान्हा का सन्देश ले कर अपनें स्वर्ण रथ से गोकुल से ब्रज की यात्रा करते हैं और सायंकाल गोधूलि के समय नन्द बाबा के घर पहुंचते हैं । यहाँ आप समझ सकते हैं कि मथुरा से गोकुल की दूरी क्या रही होगी जबकि वर्तमान में यह दूरी लगभग 10 किलो मीटर है । उद्धव जी की नन्द बाबा - माँ यशोदा के संग ब्रज की पहली रात.. नन्द बाबा वार्ता प्रारम्भ करते हुए कहते हैं , कृष्ण कभी हम सबको स्मरण करते हैं ? यशोदा जी की ओर इशारा करते हुए कहते हैं - यह , उनकी माँ हैं जो हर पल अपने कान्हा की स्मृति में डूबी रहती हैं । कान्हा के स्वजन संबंधी , सखा और अन्य ब्रज बासी उनको अपना स्वामी और सर्वस्व मानते हैं और उनकी स्मृति से बहार निकलना नहीं चाहते । क्या कान्हा वहाँ मथुरा में ब्रज की गौओं को , वृन्दाबन और गिरिराज को कभीं स्मरण करते हैं ? आप यह तो बताइए कि क्या हमारे गोविंद अपने सुहृद - बांधवों को देखने के लिए एक बार भी यहाँ आएंगे ? यदि वे यहाँ आ जाते तो हम सब उनकी सुघड़ नासिका , मधुर हास्य , और मनोहर चितवन से युक्त मुख - कमल देख तो लेते ! कान्हा एक बार नहीं अनेक बार हम सबकी रक्षा की है । उद्धवजी ! उनका हृदय उदार और शक्ति अनंत है । इस प्रकार नन्द बाबा सारी रात कृष्णकी सारी लीलाओं को सुनाते रहे । उद्धवजी ! अब हम सब उनकी स्मृतियों में इतने तन्मय रहते हैं कि हम सबसे कोई काम - काज होता ही नहीं । जब हम देखते हैं कि यह वही नदी है जिसमें कृष्ण जल - क्रीड़ा करते थे , यह वही गिरिराज है जिसे कृष्ण 7 वर्ष की उम्र में इंद्र कोप के कारण अति बृष्टि से हम सब ब्रज बासियों की रक्षा करने हेतु अपनी एक उंगली पर 07 दिन उठाये रखे थे , यह वही वन प्रदेश हैं जहाँ कृष्ण गौएँ चराते हुए बासुरी बजाया करते थे , और ये वे ही स्थान हैं , जहाँ वे अपने मित्रों के साथ अनेकों प्रकारके खेल खेला करते थे , तब उनकी स्मृतियों में हम ब्रज बासी खो जाया करते हैं । उद्धव जी ! आपको आश्चय होगा यह देख कर कि कान्हा के पैरों के निशान आज भी ब्रज की धरती पर वैसे ही पड़े हैं जैसे मानों कान्हा आज ही यहाँ चले हों और इन चिन्हों को देखने से हम सब का मन कृष्णमय बना रहता है । निःसंदेह हम बलराम - कृष्णको देवशिरोमणि मानते हैं और यह भी मानते हैं कि यहाँ देवताओं के बहुत बड़े प्रयोजन को सिद्ध करने हेतु अवतरित हुए हैं , स्वयं गर्गाचार्य जी मुझे यह बात बताई थी । रात भर नंदबाबा उद्धव जी को कान्हा की बाल लीलाओं को सुनाते रहे और वहाँ माँ यशोदा जी पूर्ण शांत भाव में बातें सुनती रही । बाल लीलाओं को सुनते हुए माँ के आंसू टपक रहे थे । माँ यशोदा और नंदबाबा के कृष्ण अनुराग को देखते हुए उद्धव जी कहते हैं , इसमें कोई संदेह नहीं कि आप दोनों जीवधारियों में परम् भाग्यवान हैं । कृष्ण तो परम् ब्रह्म परमात्मा है , सबका आदि , मध्य और अंत हैं और समस्त ब्रह्माण्ड को धारण किये हुए है । उसके प्रति आप दोनों का वात्सल्य भाव - पुत्र भाव का होना , आप दोनों को भाग्यवान बनाता है । जो जीव अपने अंत समय में शुद्ध मन से कृष्ण पर केंद्रित हो जाता है , वह परमगति को प्राप्त करता है । √ कान्हा भगवान् हैं ; जो भक्तों की अभिलाषा पूर्ण करते हैं , जो सबकी आत्मा हैं और जो इस समय मनुष्य देह धारण करके पृथ्वी का भार उतारने हेतु हम सबके मध्य लीलाएँ कर रहे हैं । उद्धवजी आगे कहते हैं , कंस बध के ठीक बाद , वे आप दोनों एवं अन्य ग्वालों को मथुरा से ब्रज लौटने को कहे थे और यह भी कहे थे की मैं यहाँ मथुरा में अपना कार्य पूरा करके शीघ्र ही आप सब से मिलने ब्रज आऊँगा अतः वे निकट भविष्य में आप सबसे मिलने के लिए यहाँ आनेवाले हैं । अब कुछ ही दिनों की ही तो बात है , जब कान्हा आप सबके मध्य होंगे और आप सब को आनंदित करेंगे । उनका कोई प्रिय - अप्रिय नहीं । वे सबमें और सबके प्रति समान हैं । उनकी दृष्टि में कोई न तो उत्तम है और न कोई अधम । उनकी कोई माता नहीं , पिता नहीं , पत्नी नहीं और कोई पुत्र नहीं । न कोई अपना है न पराया है । वे देह रहित , जन्म - मृत्यु से परे हैं । प्रभु तो अजन्मा हैं , निर्गुण हैं , गुणातीत होते हुए भी लीला के लिए खेल - खेल में गुणों को स्वीकारते हैं । कर्म करता तो गुण हैं पर अहँकार के प्रभाव में मनुष्य स्वयं को करता समझता रहता है । संपूर्ण ब्रह्मांड की सूचनाएं उन्ही से तो हैं ! बातों - बातों में रात सरक गयी और सूर्योदय होने को है । कुछ गोपियों को नंद बाबा के द्वार पर एक स्वर्ण रथ दिखाई देता है । वे आपस में उस रथ के संबंध में एक दूसरे से पूछती हैं । एक कहती है , हो न हो वह अक्रूर ही क्यों न हो ! वे आपस में इस प्रकार बातें कर ही रही थी कि उद्धव जी नंद द्वार पर खड़े उन्हें दिख गए । उद्धव - गोपियों की बातचीत और भ्रमर गीत गोपियाँ यह देख कर विस्मृत हो गयी कि इस व्यक्ति की आकृति - भेषभूसा कान्हा से मिलती - जुलती है ; घुटनो तक लंबी भुजाएँ , नूतन कमलदल के समान कोमल नेत्र शरीर पर पीताम्बर गले में कमल पुष्प माला धारण किये हुए , कानों में मणि जटित कुंडल झलक रहे हैं । गोपियाँ कहती है , यह पुरुष तो कान्हा जैसा ही दिखता है , आखिर है , कौन ? कहाँ से आया होगा ! इस उत्सुकता में गोपियाँ उन्हें घेर लेती हैं । जब गोपियों को पता चला कि ये कान्हा के दूत हैं और कान्हा के सन्देश को लाये हैं तब सभी गोपियाँ विनम्र भाव में उनका सत्कार करती हैं , एकांत में उद्धव को बैठा कर उनसे बाते करती हैं । उद्धवजी ! ऐसा पता चला है कि आप कान्हा के पार्षद हैं और उनका कोई संदेश ले कर आप यहां पधारे हैं । गोपियाँ उद्धव से बात करते - करते कान्हा की स्मृति में सुध -बुध खो बैठती हैं । भ्रमर का आगमन >कान्हा के बचपन की लीलाओंका गुणगान करती - करती गोपियाँ कृष्ण प्रेम में डूब जाती हैं। एक गोपिका के पैरों के चारों तरफ एक भौरा गुनगुनाते हुए चक्कर लगाते हुए दिख पड़ता है । वह गोपिका सोचती है , हो सकता है कान्हा मुझे रूठी हुई समझकर मुझे मनाने हेतु भौरे के रूप में कोई दूत भेजा हो ! वह गोपी भौरे से कहती है - रे मधुप ! तूँ कपटी का सखा है , तूँ हमारे पैरों को न छू । तुम्हारा और कान्हा का रंग एक सा है । जैसे तूँ पुष्प - रस ले कर उड़ जाया करता है , पुष्पों से प्यार नहीं करता वैसे ही तेरा मित्र भी है । अरे भ्रमर ! हम तो ठहरी वनवासिनी , हमारे पास तो घर - द्वार भी नहीं है । तूँ हम सबके सामने यदुबंश शिरोमणि श्रीकृष्ण का बहुत - सा गुणगान क्यों कर रहा है ? यह सब हम सबको मनानेके लिए ही तो है ? परंतु नहीं - नहीं , वे हमारे लिए कोई नए नहीं हैं , हमारे लिए तो जाने पहचाने पुराने हैं । तेरी चापलूसी हम सबके सामने नहीं चलेगी , तूँ यहाँ से चला जा । तूँ कान्हा की मथुरा की सहेलियों के सामने जा कर उनका गुणगान कर , वे नयी हैं , कान्हा की लीलाओं के परिचित कम हैं और इस समय वे कृष्ण की प्यारी भी हैं । कान्हा उनके हृदय की पीड़ा को मिटा चुके हैं अब वे तेरी प्रार्थना स्वीकार करेंगी । तुम्हारी चापलूसी से प्रसन्न हो कर तुम्हें मुहमागा पुरस्कार भी देंगी । भौरे! तूँ ऐसा क्यों कह रहा है कि कान्हा हमारे लिए छटपटा रहे हैं ? त्रिलोक में ऐसी कौन सी स्त्री है जो उन्हें नहीं चाहती होगी ? स्वयं लक्ष्मी जी भी उनकी चरणरज की सेवा करती है फिर कान्हा के सामने हम वनवासिनियाँ किस गिनती में आती हैं । तूँ उनके पास जा कर कहना कि तुम्हारा नाम उत्तमश्लोक है । अच्छे - अच्छे लोग तुम्हारी कीर्ति का गुणगान करते हैं , परंतु इसकी सार्थकता तो इसी में है कि तुम हम दीनों पर दया करो , यदि तुम ऐसा नहीं करते तो तुम्हारा उत्तमश्लोक नाम झूठा पड़ जायेगा । अरे मधुप ! तुम मेरे पैरों पर अपना सिर मत टेक । में जानती हूँ कि तुम अनुनय - विनय करने में क्षमा - याचना करने में बड़ा निपुण है । मालूम होता है , तुम कान्हा से ही यह सब सीखा है कि रूठे को कैसे मनाया जाता है ? पूरा प्रशिक्षण दे कर श्री कृष्ण तुमको यहाँ भेजा है । तुम इतना समझ ले कि यहाँ तेरी दाल नहीं गलनेवाली । तूँ हमें देख , हमने कान्हा के लिए ही अपनें पति , पुत्र - पुत्रियाँ एवं परिवार का त्याग कर रखा है ! लेकिन वह कान्हा निर्मोही हमें त्याग कर मथुरा चला गया । रे मधुप ! जब वे राम बने थे , तब कपिराज बालि को छिप कर बड़ी निर्दयता से मारा था । बेचारी शूर्पणखा कामबश उनके पास आई थी और वे अपनी स्त्री के बश में हो कर उसके नाक - कान काट दिए थे । हमें कान्हा क्या किसी भी कालू वस्तु से कोई प्रयोजन नहीं । अब तुम कहोगे की फिर तुमलोक उसे क्यों चाहती हो , क्यों नहीं छोड़ देती ? तो सुन ! एक बार जो उसका हो गया , वह उसे नहीं छोड़ सकता ।जैसे कृष्णसार मृग की पत्नी भोली - भाली हरिनियाँ व्याध के सुमधुर गान का विश्वास कर लेती हैं और उनके जाल में फँस कर मारी जाती हैं वैसे हम भोली - भाली गोपियाँ भी उस छलिये कृष्ण की कपतभरी मीठी - मीठी बातों में आकर उन्हें सत्य समान मान बैठीं और उससे बध गयी । रे भौरे ! अब तुम इस विषय पर आगे और कुछ न कह । उद्धव कहते हैं , अहो गोपियों ! तुम कृत्य - कृत्य हो । तुम्हारा जीवन सफल है । तुम पूजनीय हो । तुम सभीं प्रेमा भक्ति से वह सब पा लिया है जिसे बड़े - बड़े ऋषि - मुनि के लिए भी अत्यंत दुर्लभ है । कितने सौभाग्य की बात है कि तुमने अपने पुत्र , पति , देह , स्वजन और घरों को छोड़ कर पुरुषोत्तम कृष्ण को जो सबके परम् पति हैं , उन्हें अपने पति के रूप में वरण किया है । महाभाग्यवती गोपियों ! कृष्ण वियोग से , तुम इन्द्रियातीत परमात्मा के प्रति वह भाव प्राप्त कर लिया है जो सभीं बस्तुओं के रूप में उनका दर्शन करता है । उद्धव गोपियों को प्रभु का संदेश सुनाते हैं प्रभु श्री कृष्ण अपनें सन्देश में कह रहे हैं , " मैं सबका आत्मा हूँ और सबमें अनुगत हूँ , इसलिए मुझसे किसी का वियोग होना संभव नहीं । जैसे संसार की सभीं वस्तुओं में पांच भूतों की उपस्थिति है वैसे मैं मन , प्राण , पांच भूत , इन्द्रिय और बिषयों का आश्रय हूँ , वे मुझमें हैं और मैं उनमें हूँ । मैं अपनी माया द्वारा भूतों , बिषयों और इंद्रियों आदि का आश्रय और उनका निमित्त भी बन जाता हूँ । आत्मा , माया और माया के कार्य से पृथक है । कोई गुण आत्मा को स्पर्श नहीं कर सकता ( गीता 14.5 : तीन गुण आत्मा को देह में बाध कर रखते हैं )। मनुष्य को इन्द्रिय बिषयों से आसक्त नहीं होना चाहिए ,भक्ति , तप , योग और ज्ञान का लक्ष्य है मेरी प्राप्ति । मैं तुम सबसे दूर इसलिए हूँ जिससे तुम सबका मन वियोग माध्यम से मुझसे जुड़ा रहे । गोपियाँ उद्धव की कृष्ण संदेश को सुनते - सुनते सविकल्प समाधि में उतर जाती हैं " गोपियाँ उद्धव द्वारा प्रभु के संदेश को सुनाने के बार कह रही हैं , उद्धवजी ! एक बात आप हमें बतलाइए कि जिस प्रकार हम सब उनके प्यार में डूबी रहती हैं , क्या वे भी हमसे इतना ही प्यार करते हैं और क्या हम जैसा कृष्ण प्यार मथुरा की स्त्रियों में भी है ? √√√ उद्धवजी ! क्या कभी कृष्ण उस रात्रि का स्मरण भी करते हैं जब वे हम सबके साथ वृन्दाबन में रास - महारास की लीला खेल रहे थे ? √√ उद्धवजी ! हम सब तो उनकी ही विरह की अग्नि में जल रहे है । इंद्र जैसे बन को जल बरसा कर हरा भरा करते हैं वैसे क्या कृष्ण अपनें स्पर्श से हमें जीवन दान देंगे ? √√√ गोपियों में से एक गोपी कह रही है , अरी सखी ! अब तो वे दुश्मन को मार कर राज्य पा लिए हैं । सभीं उनके सुदृढ़ बने हुए हैं । अब वे बड़े - बड़े नरपतियों की कुमारियों से ब्याह करेंगे , अब हम गँवारिनो के पाद क्यों आएंगे ?√√√ एक अन्य गोपी कह रही है , नहीं सखी , महात्मा कृष्ण तो स्वयं लक्ष्मी पति हैं हैं ग्वालिनों एवं अन्य राजकुमारियों से उनका क्या प्रयोजन ,? वे तो कामना मुक्त महात्मा हैं । गोपियाँ कह वही हैं , वेश्या पिंगला कहती है , संसार में किसी से आशा न रखना ही सबसे बड़ा सुख है पर यह जानते हुए भी हम कृष्ण के लौटने की आशा को नहीं त्याग सकते ! हमारे प्यारे श्यामसुंदर हमसे एकांत में जो मीठी - मीठी प्रेम की बातें की हैं उन्हें छोड़ने का , भुलाने की बात हम सोच भी कैसे कर सकती हैं ! स्वयं। लक्ष्मी जी उनके अंग - अंग में लिपटी पड़ी हैं , उन्हें पल भर के लिये नहीं छोड़ती । √√√ गोपियाँ उद्धव को ब्रज दर्शन करा रही हैं और कह रही हैं , उद्धवजी ! यह वह नदी है जिसमे वे विहार करते थे । यह वह पर्वत है जिसके शिखर पर चढ़ कर वे बासुरी बजाते थे , वे ही ये बन हैं जिनमें रात्रि के समय रास लीला किये थे । ये वे गौएँ हैं जिनको चराने के लिए वे सुबह - शाम हम लोगों को देखते हुए जाते - आते थे । यहाँ के कण - कण पर उनके हस्ताक्षर हैं । उद्धव जी हम सबको क्या उन्हें भूलना संभव हो सकता है ? कान्हा की हँस जैसी चाल , उन्मुक्त हास्य , विलास पूर्ण चितवन , मधुमयी वाणी - आह ! उन सब ने हमारा चित चुरा लिया है । हमारे मन बश में नहीं फिर हम उन्हें कैसे भूलें ! उद्धव जी गोपियीं की विरह- व्यथा मिटाने हेतु वहाँ कई माह रहते हैं , और अकेले ब्रज भ्रमण करते हैं । प्रभु के परम् प्रिय उद्धव जी कभीं नदी तट पर जाते , कभीं बनो में विहरते और कभीं गिरिराज पर भ्रमण करते और कभीं फूलों से भरे वृक्षों में ही रम जाते । उद्धव गोपियों को ब्रह्म ज्ञान से प्रेमा भक्ति से मुक्त कराने मथुरा से ब्रज आये हुए हसीन लेकिन गोपियों की संगति से उनका ब्रह्म ज्ञान गोपियों के कृष्ण प्रेमाभक्ति में बदल जाता है ब्रज भूमि और कान्हा के पद चिह्नों को खोजते फिर रहे हैं । उद्धव कह रहे हैं , इस धरा पर केवल इन गोपियों के शरीर धारण करना ही सर्व श्रेष्ठ है क्योंकि ये सर्वात्मा प्रभु श्री कृष्ण के परम् प्रेममय दिव्य भाव में स्थित हैं । प्रेम की यह उच्चतम स्थिति सभी साधनाओं का परम् लक्ष्य है । कहाँ ये बनचरी आचार - ज्ञान और जाति से हीन गाँव की गँवार ग्वालिनें और कहाँ सच्चिदानंद भगवन् श्री कृष्ण में यह उनका अनन्य प्रेम ! बुद्धि से नहीं हृदय से कृष्ण के परम् विधुद्ध प्रेम - रस टपकता है। मेरे लिए तो सबसे उत्तम बात यही होगी कि मैं इस वृन्दाबन में कोई झाड़ी , कोई औषधि , कोई जड़ी - बूटी और कोई लता ही बन जाऊँ । अहा ! यदि ऐसा संभव हुआ तो मुझे इन व्रजांगनाओं की चरण धूलि निरंतर सेवन करने हेतु मिलती रहेगी । धन्य हैं , ये गोपियाँ । ज्ञानयोग साधना में जब बुद्धि हृदय में लीन हो जाती है तब गोपियों जैसी प्रेमा भक्ति हृदय में अंकुरित होती है । ज्ञान योग , कर्म योग अथवा साधना के अन्य श्रोतों का प्रारम्भ तो बुद्धि आधारित होता है जिसे अपरा साधना कहते हैं । जब अपरा साधना गहराती है तब बुद्धि हृदय में ऐसे अपनें को लीन कर लेती है जैसे सागर में गंगा स्वयं को लीन कर लेती हैं और यहाँ से परा साधना प्रारम्भ हो कर कैवल्य में पहुँचाती है । परा अर्थात जिसे मन सहित 11 इंद्रियों और बुद्धि - अहँकार के पकड़ना संभव न हो । कई माह ब्रजमें रह करअब उद्धव मथुरा लौट रहे हैं उद्धव जी गोपियों , ग्वालों , नंदबाब और माँ यशोदा को प्रणाम करके मथुरा लौटने की आज्ञा प्राप्त करते हैं । जब उद्धव आये थे तब ब्रह्म ज्ञानी थे और जब कई माह ब्रज में रहने के बाद लेत रहे हैं तब भक्त उद्धव बन कर लौट रहे हैं । माँ यशोदा तो चुप थी लेकिन अपनें आंसू को छिपा नहीं पा रही थी पर नन्द बाबा , कृष्ण के प्रेमी ग्वाले एवं गोपियाँ कहती हैं , उद्धवजी ! हमें मोक्ष की चाह नहीं , हम सदैव कृष्ण - भक्ति में डूबे रहना चाहते हैं । उद्धवजी मथुरा लौट आते हैं और प्रभु श्री को प्रणाम करके ब्रज निवासियों की कृष्ण - भक्ति को स्पष्ट करना चाहते हैं , पर कर नहीं पाते , उनका गला भर रहा होता है और अपनी आंसू से अपनें ब्रज अनुभव को व्यक्त करते हैं । ~~ ॐ इति ~~ ब्रह्मा पुत्र ऋषि अंगिरा के पुत्र एवं देवताओं के पुरोहित बृहस्पति जी के शिष्य हैं , उद्धव जी। बृहस्पतिजीकी पत्नी तारा और ब्रह्मा पुत्र ऋषि अत्रि के पुत्र चन्द्रमा से बुध का जन्म होता है । बुध से त्रेतायुग के प्रारम्भ में पुरुरवा का जन्म होता है । पुरुरवा से चंद्र बंश प्रारम्भ होता है । इस कुल में 28 वे द्वापर के अंत में प्रभु श्री कृष्ण और बलराम जी का जन्म होता है । 

👍उद्धव जी वृष्णि बंशी हैं और कृष्ण से उम्रमें बड़े हैं । कृष्ण अवतार पूर्व उद्धवजी जब 05 वर्ष  के थे , कृष्ण की मिट्टी की मूर्तियाँ बनाया करते थे । √

👍उद्धवजी जब बृहस्पति जी से शिक्षा ग्रहण कर रहे थे तब बृहस्पति बता दिए थे कि  निकट भविष्यमें तुम्हाते ही कुल में कृष्ण अवतार होने वाला है । तुम शौभाग्यशाली हो कि तुमको उनके संग रहने का सुअवसर मिलेगा  ।√

👌 उद्धव जी जो निर्गुण , निराकार उपासक हैं , कृष्ण के मथुरा के साथी और परम मित्र एवं सलाहकार हैं । देखने में उद्धब कृष्ण जैसे ही दिखते भी हैं । उद्धव जी की स्मृति में गुरु बृहस्पति जी की यह बात कि कृष्ण जो तुम्हारे कुल में अवतरित होनेवाले हैं वे परम् ब्रह्म हैं , हर पल बनी रहती है अतः अपने मित्र एवं सखा , साकार - सगुण कृष्ण में निराकार - निर्गुण परब्रह्म दिखते रहते हैं । 

उद्धवकी ब्रज यात्रा

कान्हा जी उद्धव को संबोधित करते हुए कहते हैं , उद्धव 

भैया ! आप ब्रज जाओ , वहाँ मेरे पिता - माता ; नंदबाबा और यशोदा मैया हैं । इस समय मेरी अनुपस्थिति के कारण वे दुःखी हैं । आप अपनें ब्रह्म - ज्ञान से उन्हें मोह बंधन स्व मुक्त करा सकते हैं । दूसरी तरफ ब्रज की गोपियाँ मेरे विरह –पीड़ा में डूबी हुई हैं । तुम उन्हें भी अपनें ब्रह्म - ज्ञान एवं मेरा सन्देश सुनाकर वेदनामुक्त कर सकते हैं । गोपियाँ मुझे  अपनी आत्मा समझती हैं । मैं अक्रूरजी के संग मथुरा आते समय उन सबको कहा था कि मैं अपना कार्य पूरा करके लौट आऊंगा लेकिन यह अभीं संभव नहीं दिख रहा । इस समय उन्हें मेरा यह दिया गया बचन ही उनके जीने का आधार बना हुआ है । वे केवल इस लिए जी रही हैं कि एक दिन मैं उनसे मिलने ब्रज अवश्य आऊँगा । 

प्रातः काल में उद्धव जी कान्हा का सन्देश ले कर अपनें स्वर्ण रथ से गोकुल से ब्रज की यात्रा करते हैं और सायंकाल गोधूलि के समय नन्द बाबा के घर पहुंचते हैं । यहाँ आप समझ सकते हैं कि मथुरा से गोकुल की दूरी क्या रही होगी जबकि वर्तमान में यह दूरी लगभग 10 किलो मीटर है ।

उद्धव जी की  नन्द बाबा - माँ यशोदा के संग ब्रज की पहली रात..

नन्द बाबा वार्ता प्रारम्भ करते हुए कहते हैं , कृष्ण कभी हम सबको स्मरण  करते हैं ? यशोदा जी की ओर इशारा करते हुए कहते हैं - यह , उनकी माँ हैं जो हर पल अपने कान्हा की स्मृति में डूबी रहती हैं । कान्हा के  स्वजन संबंधी , सखा और अन्य ब्रज बासी उनको अपना स्वामी और सर्वस्व मानते हैं और उनकी स्मृति से बहार निकलना नहीं चाहते । क्या कान्हा वहाँ मथुरा में ब्रज की गौओं को , वृन्दाबन और गिरिराज को कभीं स्मरण करते हैं ? 

आप यह तो बताइए कि क्या हमारे गोविंद अपने सुहृद - बांधवों को देखने के लिए एक बार भी यहाँ आएंगे ?

 यदि वे यहाँ आ जाते तो हम सब उनकी सुघड़ नासिका , मधुर हास्य , और मनोहर चितवन से युक्त मुख - कमल देख तो लेते ! कान्हा एक बार नहीं अनेक बार हम सबकी रक्षा की है । उद्धवजी ! उनका हृदय उदार और शक्ति अनंत है ।

इस प्रकार नन्द बाबा सारी रात कृष्णकी सारी लीलाओं को सुनाते रहे । 

उद्धवजी ! अब हम सब उनकी स्मृतियों में इतने तन्मय रहते हैं कि हम सबसे कोई काम - काज होता ही नहीं ।

जब हम देखते हैं कि यह वही नदी है जिसमें कृष्ण जल - क्रीड़ा करते थे , यह वही गिरिराज है जिसे कृष्ण 7 वर्ष की उम्र में इंद्र कोप के कारण अति बृष्टि से हम सब ब्रज बासियों की रक्षा करने हेतु अपनी एक उंगली पर  07 दिन उठाये रखे थे , यह वही वन प्रदेश हैं जहाँ कृष्ण गौएँ चराते हुए बासुरी बजाया करते थे , और ये वे ही स्थान हैं , जहाँ वे अपने मित्रों के साथ अनेकों प्रकारके खेल खेला करते थे , तब उनकी स्मृतियों में हम ब्रज बासी खो जाया करते हैं । उद्धव जी ! आपको आश्चय होगा यह देख कर कि कान्हा के पैरों के निशान आज भी ब्रज की धरती पर वैसे ही पड़े हैं जैसे मानों कान्हा आज ही यहाँ चले हों और इन चिन्हों को देखने से  हम सब का  मन कृष्णमय बना रहता है । 

निःसंदेह हम बलराम - कृष्णको देवशिरोमणि मानते हैं और यह भी मानते हैं कि यहाँ देवताओं के बहुत बड़े प्रयोजन को सिद्ध करने हेतु अवतरित हुए हैं , स्वयं गर्गाचार्य जी मुझे यह बात बताई थी । रात भर नंदबाबा उद्धव जी को कान्हा की बाल लीलाओं को सुनाते रहे और वहाँ माँ यशोदा जी पूर्ण शांत भाव में बातें सुनती रही । बाल लीलाओं को सुनते हुए माँ के आंसू टपक रहे थे ।

माँ यशोदा और नंदबाबा के कृष्ण अनुराग को देखते हुए उद्धव जी कहते हैं , इसमें कोई संदेह नहीं कि आप दोनों जीवधारियों में परम् भाग्यवान हैं । कृष्ण तो परम् ब्रह्म परमात्मा है , सबका आदि , मध्य और अंत हैं और समस्त ब्रह्माण्ड को धारण किये हुए है । उसके प्रति आप दोनों का वात्सल्य भाव - पुत्र भाव का होना , आप दोनों को भाग्यवान बनाता है । 

जो जीव अपने अंत समय में  शुद्ध मन से कृष्ण  पर केंद्रित हो जाता है , वह परमगति को प्राप्त करता है । √

 कान्हा भगवान् हैं ; जो भक्तों की अभिलाषा पूर्ण करते हैं , जो सबकी आत्मा हैं और जो इस समय मनुष्य देह धारण करके पृथ्वी का भार उतारने हेतु हम सबके मध्य लीलाएँ कर रहे हैं । उद्धवजी आगे कहते हैं , कंस बध के ठीक बाद , वे आप दोनों एवं अन्य ग्वालों को मथुरा से ब्रज लौटने को कहे थे और यह भी कहे थे की मैं यहाँ मथुरा में अपना कार्य पूरा करके  शीघ्र ही आप सब से मिलने ब्रज आऊँगा अतः वे 

निकट भविष्य में आप  सबसे मिलने के लिए यहाँ आनेवाले 

हैं । अब कुछ ही दिनों की ही तो बात है , जब कान्हा आप सबके मध्य होंगे और आप सब को आनंदित करेंगे ।

उनका कोई प्रिय - अप्रिय नहीं । वे सबमें और सबके प्रति समान हैं । उनकी दृष्टि में कोई न तो उत्तम है और न कोई अधम । उनकी कोई माता नहीं , पिता नहीं , पत्नी नहीं और कोई पुत्र नहीं । न कोई अपना है न पराया है । वे देह रहित , जन्म - मृत्यु से परे हैं ।  प्रभु तो अजन्मा हैं , निर्गुण हैं , गुणातीत होते हुए भी लीला के लिए खेल - खेल में गुणों को स्वीकारते हैं । कर्म करता तो गुण हैं पर अहँकार के प्रभाव में मनुष्य स्वयं को करता समझता रहता है । 

संपूर्ण ब्रह्मांड की सूचनाएं उन्ही से तो हैं ! बातों - बातों में रात सरक गयी और सूर्योदय होने को है । 

कुछ गोपियों को  नंद बाबा के द्वार पर एक स्वर्ण रथ दिखाई देता है । वे आपस में उस रथ के संबंध में एक दूसरे से पूछती हैं । एक कहती है , हो न हो वह अक्रूर ही क्यों न हो ! वे आपस में इस प्रकार बातें कर ही रही थी कि उद्धव जी नंद द्वार पर खड़े उन्हें दिख गए । 

उद्धव - गोपियों की बातचीत और भ्रमर गीत

गोपियाँ यह देख कर विस्मृत हो गयी कि इस व्यक्ति की आकृति - भेषभूसा कान्हा से मिलती - जुलती है ; घुटनो तक लंबी भुजाएँ , नूतन कमलदल के समान कोमल नेत्र शरीर पर पीताम्बर गले में कमल पुष्प माला धारण किये हुए , कानों में मणि जटित कुंडल झलक रहे हैं । 

गोपियाँ कहती है , यह पुरुष तो कान्हा जैसा ही दिखता है , आखिर है , कौन ? कहाँ से आया होगा ! इस उत्सुकता में गोपियाँ उन्हें घेर लेती  हैं । 

जब गोपियों को पता चला कि ये कान्हा के  दूत हैं और कान्हा के सन्देश को लाये हैं  तब सभी गोपियाँ विनम्र भाव में उनका सत्कार करती हैं , एकांत में उद्धव को बैठा कर उनसे बाते करती हैं ।

उद्धवजी ! ऐसा पता चला है कि आप कान्हा के पार्षद हैं और उनका कोई संदेश ले कर आप यहां पधारे हैं । गोपियाँ उद्धव से बात करते - करते कान्हा की स्मृति में सुध -बुध खो बैठती हैं । 

भ्रमर का आगमन >कान्हा के बचपन की लीलाओंका गुणगान करती - करती गोपियाँ कृष्ण प्रेम में डूब जाती हैं। एक गोपिका के पैरों के चारों तरफ एक भौरा गुनगुनाते हुए चक्कर लगाते हुए दिख पड़ता है । वह गोपिका सोचती है , हो सकता है कान्हा मुझे रूठी हुई समझकर मुझे मनाने हेतु भौरे के रूप में कोई दूत भेजा हो ! 

वह गोपी भौरे से कहती है - रे मधुप ! तूँ कपटी का सखा है , तूँ हमारे पैरों को न छू । तुम्हारा और कान्हा का रंग एक सा है । जैसे तूँ पुष्प - रस ले कर उड़ जाया करता है , पुष्पों से प्यार नहीं करता वैसे ही तेरा मित्र भी है । अरे भ्रमर ! हम तो ठहरी वनवासिनी , हमारे पास तो घर - द्वार भी नहीं है । तूँ हम सबके सामने यदुबंश शिरोमणि श्रीकृष्ण का बहुत - सा गुणगान क्यों कर रहा है ? यह सब हम सबको मनानेके लिए ही तो है ? परंतु नहीं - नहीं , वे हमारे लिए कोई नए नहीं हैं , हमारे लिए तो जाने पहचाने पुराने हैं । तेरी चापलूसी हम सबके सामने नहीं चलेगी , तूँ यहाँ से चला जा । तूँ कान्हा की मथुरा की  सहेलियों के सामने जा कर उनका गुणगान कर , वे नयी हैं , कान्हा की  लीलाओं के परिचित कम हैं और इस समय वे कृष्ण की प्यारी भी  हैं । कान्हा  उनके हृदय की पीड़ा को मिटा चुके हैं अब वे तेरी प्रार्थना स्वीकार करेंगी । तुम्हारी चापलूसी से प्रसन्न हो कर तुम्हें मुहमागा पुरस्कार भी देंगी ।

भौरे! तूँ ऐसा क्यों कह रहा है कि कान्हा  हमारे लिए छटपटा रहे हैं ? त्रिलोक में ऐसी कौन सी स्त्री है जो उन्हें नहीं चाहती होगी ? स्वयं लक्ष्मी जी भी उनकी चरणरज की सेवा करती है फिर कान्हा के सामने हम वनवासिनियाँ किस गिनती में आती हैं ।

तूँ  उनके पास जा कर कहना कि तुम्हारा नाम उत्तमश्लोक 

है । अच्छे - अच्छे लोग तुम्हारी कीर्ति का गुणगान करते हैं , परंतु इसकी सार्थकता तो इसी में है कि तुम हम दीनों पर दया करो , यदि तुम ऐसा नहीं करते तो तुम्हारा उत्तमश्लोक नाम झूठा पड़ जायेगा । 

अरे मधुप ! तुम मेरे पैरों पर अपना सिर मत टेक । में जानती हूँ कि तुम अनुनय - विनय करने में क्षमा - याचना करने में बड़ा निपुण है । मालूम होता है , तुम कान्हा से ही यह  सब सीखा है कि रूठे को कैसे मनाया जाता है ? पूरा प्रशिक्षण दे कर श्री कृष्ण तुमको यहाँ भेजा है । तुम इतना समझ ले कि यहाँ तेरी दाल नहीं गलनेवाली । 

तूँ हमें देख , हमने कान्हा के लिए ही अपनें पति , पुत्र - पुत्रियाँ एवं परिवार का त्याग कर रखा है ! लेकिन वह कान्हा निर्मोही हमें त्याग कर मथुरा चला गया । 

रे मधुप ! जब वे राम बने थे , तब कपिराज बालि को छिप कर बड़ी निर्दयता से मारा था । बेचारी शूर्पणखा कामबश उनके पास आई थी और वे अपनी स्त्री के बश में हो कर उसके नाक - कान काट दिए थे । हमें कान्हा क्या किसी भी कालू वस्तु से कोई प्रयोजन नहीं । अब तुम कहोगे की फिर तुमलोक उसे क्यों चाहती  हो , क्यों नहीं छोड़ देती ?

 तो सुन ! एक बार जो उसका हो गया , वह उसे नहीं छोड़ सकता ।जैसे कृष्णसार मृग की पत्नी भोली - भाली हरिनियाँ व्याध के सुमधुर गान का विश्वास कर लेती हैं और उनके जाल में फँस कर मारी जाती हैं वैसे हम भोली - भाली गोपियाँ भी उस छलिये कृष्ण की कपतभरी मीठी - मीठी बातों में आकर उन्हें सत्य समान मान बैठीं और उससे बध गयी ।

रे भौरे ! अब तुम इस विषय पर आगे और कुछ न कह । 

उद्धव कहते हैं , अहो गोपियों ! तुम कृत्य - कृत्य हो । तुम्हारा जीवन सफल है । तुम पूजनीय हो । तुम सभीं प्रेमा भक्ति से वह सब पा लिया है जिसे बड़े - बड़े ऋषि - मुनि के लिए भी अत्यंत दुर्लभ है । कितने सौभाग्य की बात है कि तुमने अपने पुत्र , पति , देह , स्वजन और घरों को छोड़ कर पुरुषोत्तम कृष्ण को जो सबके परम् पति हैं , उन्हें अपने पति के रूप में वरण किया है । महाभाग्यवती गोपियों ! कृष्ण वियोग से , तुम इन्द्रियातीत परमात्मा के प्रति वह भाव प्राप्त कर लिया है  जो सभीं बस्तुओं के रूप में उनका दर्शन करता है । 

उद्धव गोपियों को प्रभु का संदेश सुनाते हैं 

प्रभु श्री कृष्ण अपनें सन्देश में कह रहे  हैं , "  मैं  सबका आत्मा हूँ और सबमें अनुगत हूँ , इसलिए मुझसे किसी का वियोग होना संभव नहीं । जैसे संसार की सभीं वस्तुओं में पांच भूतों की उपस्थिति है वैसे मैं मन , प्राण , पांच भूत , इन्द्रिय और बिषयों का आश्रय हूँ , वे मुझमें हैं और मैं उनमें 

हूँ । मैं अपनी माया द्वारा भूतों  , बिषयों और इंद्रियों आदि का आश्रय और उनका निमित्त भी बन जाता हूँ । आत्मा , माया और माया के कार्य से पृथक है । कोई गुण आत्मा को स्पर्श नहीं कर सकता ( गीता 14.5 : तीन गुण आत्मा को देह में बाध कर रखते हैं )।  मनुष्य को इन्द्रिय बिषयों से आसक्त नहीं होना चाहिए ,भक्ति , तप , योग और ज्ञान का लक्ष्य है मेरी प्राप्ति । मैं तुम सबसे दूर  इसलिए हूँ जिससे तुम सबका मन वियोग माध्यम से मुझसे जुड़ा रहे । गोपियाँ उद्धव की कृष्ण संदेश को सुनते - सुनते सविकल्प समाधि में उतर जाती हैं " 

गोपियाँ उद्धव द्वारा प्रभु के संदेश को सुनाने के बार कह रही हैं , उद्धवजी ! एक बात आप हमें बतलाइए कि जिस प्रकार हम सब उनके प्यार में डूबी रहती हैं , क्या वे भी हमसे इतना ही प्यार करते हैं और क्या  हम जैसा कृष्ण प्यार मथुरा की स्त्रियों में भी है ? √√√

उद्धवजी ! क्या कभी कृष्ण उस रात्रि का स्मरण भी करते हैं जब वे हम सबके साथ वृन्दाबन में रास - महारास की लीला खेल रहे थे ? √√

उद्धवजी ! हम सब तो उनकी ही विरह की अग्नि में जल रहे है । इंद्र जैसे बन को जल बरसा कर हरा भरा करते हैं वैसे क्या कृष्ण अपनें स्पर्श से हमें जीवन दान देंगे ? √√√

गोपियों में से  एक गोपी कह रही है , अरी सखी ! अब तो वे दुश्मन को मार कर राज्य पा लिए हैं । सभीं उनके सुदृढ़ बने हुए हैं । अब वे बड़े - बड़े नरपतियों की कुमारियों से ब्याह करेंगे , अब हम गँवारिनो के पाद क्यों आएंगे ?√√√

एक अन्य  गोपी कह रही  है , नहीं सखी , महात्मा कृष्ण तो स्वयं लक्ष्मी पति हैं हैं ग्वालिनों एवं अन्य राजकुमारियों से उनका क्या प्रयोजन ,? वे तो कामना मुक्त महात्मा हैं । गोपियाँ कह वही हैं , वेश्या पिंगला कहती है , संसार में किसी से आशा न रखना ही सबसे बड़ा सुख है पर यह जानते हुए भी हम कृष्ण के लौटने की आशा को नहीं त्याग सकते !

हमारे प्यारे श्यामसुंदर हमसे एकांत में जो मीठी - मीठी प्रेम की बातें की हैं उन्हें छोड़ने का , भुलाने की बात हम सोच भी कैसे कर सकती हैं ! स्वयं। लक्ष्मी जी उनके अंग - अंग में लिपटी पड़ी हैं , उन्हें पल भर के लिये नहीं छोड़ती । √√√

गोपियाँ उद्धव को ब्रज  दर्शन करा रही हैं और कह रही 

हैं , उद्धवजी ! यह वह नदी है जिसमे वे विहार करते थे । यह वह पर्वत है जिसके शिखर पर चढ़ कर वे बासुरी बजाते थे , 

वे ही ये बन हैं जिनमें रात्रि के समय रास लीला किये थे । ये वे गौएँ हैं जिनको  चराने के लिए वे सुबह - शाम हम लोगों को देखते हुए जाते - आते थे । यहाँ के कण - कण पर उनके हस्ताक्षर हैं । उद्धव जी हम सबको क्या उन्हें भूलना संभव हो सकता है ?

कान्हा की हँस जैसी चाल , उन्मुक्त हास्य , विलास पूर्ण चितवन , मधुमयी वाणी - आह ! उन सब ने हमारा चित चुरा लिया है । हमारे मन बश में नहीं फिर हम उन्हें कैसे भूलें ! 

उद्धव जी गोपियीं की विरह- व्यथा मिटाने हेतु वहाँ कई  माह रहते हैं , और अकेले ब्रज भ्रमण करते हैं ।

प्रभु के परम् प्रिय उद्धव जी कभीं नदी तट पर जाते , कभीं बनो में विहरते और कभीं गिरिराज पर भ्रमण करते और  कभीं फूलों से भरे वृक्षों में ही रम जाते । 

उद्धव गोपियों को ब्रह्म ज्ञान से प्रेमा भक्ति से मुक्त कराने मथुरा से ब्रज आये हुए हसीन लेकिन गोपियों की संगति से उनका ब्रह्म ज्ञान गोपियों के कृष्ण प्रेमाभक्ति में बदल जाता है ब्रज भूमि और कान्हा के पद चिह्नों को खोजते फिर रहे हैं ।

उद्धव कह रहे हैं , इस धरा पर केवल इन गोपियों के शरीर धारण करना ही सर्व श्रेष्ठ है क्योंकि ये सर्वात्मा प्रभु श्री कृष्ण के परम् प्रेममय दिव्य भाव में स्थित हैं । प्रेम की यह उच्चतम स्थिति सभी साधनाओं का परम् लक्ष्य है । 

कहाँ ये बनचरी आचार -  ज्ञान और जाति से हीन गाँव की गँवार ग्वालिनें और कहाँ सच्चिदानंद भगवन् श्री कृष्ण में यह उनका अनन्य प्रेम ! बुद्धि से नहीं हृदय से कृष्ण के परम् विधुद्ध प्रेम - रस टपकता है। 

मेरे लिए तो सबसे उत्तम बात यही होगी कि मैं इस वृन्दाबन में कोई झाड़ी , कोई औषधि , कोई जड़ी - बूटी और कोई लता ही बन जाऊँ । अहा ! यदि ऐसा संभव  हुआ तो मुझे इन व्रजांगनाओं की चरण धूलि निरंतर सेवन करने हेतु मिलती रहेगी । धन्य हैं , ये गोपियाँ । 

ज्ञानयोग साधना में जब बुद्धि हृदय में लीन हो जाती है तब गोपियों जैसी प्रेमा भक्ति हृदय में अंकुरित होती है । ज्ञान योग  , कर्म योग अथवा साधना के अन्य श्रोतों का प्रारम्भ तो बुद्धि आधारित होता है जिसे अपरा साधना कहते हैं । जब अपरा साधना गहराती है तब बुद्धि हृदय में ऐसे अपनें को लीन कर लेती है जैसे सागर में गंगा स्वयं को लीन कर लेती हैं और यहाँ से परा साधना प्रारम्भ हो कर कैवल्य में पहुँचाती है । परा अर्थात जिसे मन सहित 11 इंद्रियों और बुद्धि - अहँकार के पकड़ना संभव न हो । 

कई माह ब्रजमें रह करअब उद्धव मथुरा लौट रहे हैं

उद्धव जी गोपियों , ग्वालों , नंदबाब और माँ यशोदा को प्रणाम करके मथुरा लौटने की आज्ञा प्राप्त करते हैं । जब उद्धव आये थे तब ब्रह्म ज्ञानी थे और जब कई माह ब्रज में रहने के बाद लेत रहे हैं तब भक्त उद्धव बन कर लौट रहे हैं ।

माँ यशोदा तो चुप थी लेकिन अपनें आंसू को छिपा नहीं पा रही थी पर नन्द बाबा , कृष्ण के प्रेमी ग्वाले एवं गोपियाँ कहती हैं , उद्धवजी ! हमें मोक्ष की चाह नहीं , हम सदैव कृष्ण - भक्ति में डूबे रहना चाहते हैं । उद्धवजी मथुरा लौट आते हैं और प्रभु श्री को प्रणाम करके ब्रज निवासियों की कृष्ण - भक्ति को स्पष्ट करना चाहते हैं , पर कर नहीं पाते , उनका गला भर रहा होता है और अपनी आंसू से अपनें ब्रज अनुभव को व्यक्त करते हैं । 

~~ ॐ इति ~~

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