आत्मा यदि मात्र बुद्धि की उपज है तो फिर उस ब्यक्ति की बुद्धि कैसी रही होगी जिसनें आत्मा के सम्बन्ध में सोचा होगा?
गीता में श्री कृष्ण कहते हैं,आत्मा के रूप में मैं सबके दृदय में रहता हूँ और इसके माध्यम से सब का आदि मध्य एवं अंत मैं ही हूँ
गीता में प्रभु यह भी कहते हैं,आत्मा मेरा ही अंश है
अगर आत्मा शब्द का जन्म न हुआ होता तो परमात्मा शब्द भी न होता
प्रभू का एक जीव-माध्यम सर्वत्र फैला हुआ है,सम्पूर्ण ब्रहांड में जो प्राण ऊर्जा का माध्यम है
प्रभु का यह माध्यम तीन गुणों के माध्यम माया के साथ है
माया से माया में दो प्रकृतिया हैं;अपरा एवं परा
अपरा साकार प्रकृति है जिसमें पञ्च महाभूत,मन,बुद्धि एवं अहँकार होते हैं
परा प्रकृति आत्मा माध्यम का बाहरी झिल्ली होती है जिसको चेतना कहते हैं और जिसके माध्यम से जीव एवं प्रकृति का मिलन होता है और यह मिलन ही नये जीव को संसार में ले आता है
यदि प्रकाश का अति शूक्ष्म कण फोटान हो सकता है तो फिर परमात्मा का अति शूक्ष्म कण आत्मा क्यों नहीं हो सकता?
विज्ञान के पास आज तक कोई कैसा ऊर्जा का श्रोत नहीं उपलब्ध जो अनादि हो और आत्मा जीव के देह में ऊर्जा का एक ऐसा श्रोत है जो अनादि है और जो देह समाप्ति पर मन एवं इंद्रियों को ले कर अन्य नया देह की तलाश भी करता है
देह में स्थित यह आत्मा का एक सीमित रूप जीवात्मा कहलाता है
आत्मा निर्गुणी है और जीवात्मा को निर्गुणी नहीं कह सकते क्योंकि यह मन एवं इंद्रियों के माध्यम से बिषयों सम्बंधित रहता है
जिसकी जीवात्मा इतनी निर्विकार हो गयी होती है जिसको जीवात्मा न कह कर आत्मा कहना असंगत न होगा,वह परा भक्त परम-गति प्राप्त करता है और वह देह में निर्गुण परम तुल्य होता है
भोगी जो भी करता है उसका हर कृत्य उसकी जीवात्मा को और विकारों से भरता रहता है और योगी के सभीं कृत्य उसकी जीवात्मा को और निर्मल करते रहते हैं
योग – साधना का अर्थ है जीवात्मा को निर्मल करना और निर्मल स्थिति में जीवात्मा वह दर्पण होता है जिसपर प्रभु दिखते हैं लेकिन देखनें वाला भोगी नहीं योगी ही होता है
=====ओम्======
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