Friday, April 13, 2012

जीवन दर्शन - 41

योगी,ज्ञानी,संन्यासी,वैरागी,कर्म – योगी,सांख्य – योगी,भक्त ये सब एक के संबोधन हैं

वह योगी है जिसका बसेरा भोग संसार में नहीं प्रभु में होता है

योगी भोग का द्रष्टा होता है

योग का मार्ग भोग से गुजरता है

भोग में उठा होश ही योग है

योगी बुद्धि स्तर पर बनना अति आसान पर ह्रदय से योगी होना प्रभु का प्रसाद है

योग का अर्थ है ब्यक्ति विशेष की चेतना का परम चेतना से जुडना

तन स्तर पर जो योग होते हैं वे तन साधना के उपाय भर हैं

तन साधना से मन साधना संभव है लेकिन तन साधना में अहँकार भी साथ साथ सघन होता रहता है

तन साधना स्थिर-प्रज्ञ बना सकती है अगर कहीं किसी स्तर पर साधना में अहंकार का प्रवेश

न हो तब

साधना से ह्रदय का कपाट खुलता है और बुद्धि परम सत्य का द्रष्टा बनी रहती है

ह्रदय के कपाट के खुलनें से संसार का रहस्य दिखता है

ह्रदय साधना का नाभिकेंद्र है ; जहाँ प्रभु - आत्मा का निवास होता है

ह्रदय चक्र जब खुलता है तब स्व का बोध होता है,स्व का बोध तत्त्व – वित् बनाता है

तत्त्व वित् आत्मा से आत्मा में समभाव में जहाँ होता है वहीं परमात्मा होता है

तत्त्व – वित् हजारों साल बाद कभीं कभीं बुद्ध – महाबीर जैसे अवतरित होते हैं

तत्त्व – वित् पंथ का निर्माण नहीं करते , देह स्तर पर उनके जानें के बाद बुद्धि जीवी मार्ग का निर्माण करते हैं और उस मार्ग का ब्यापार चलाते रहते हैं /


====ओम्=======


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