न हम किसी को हसते देख सकते हैं और न रोते
आखिर हम किसी को कैसा देखना चाहते हैं ?
हसने और रोने के मध्य की स्थिति को क्य समभाव नहीं कह सकते?
क्या गीता का मूल आधार समभाव नहीं?
जब हम किसी को हसते देखते हैं तब तुरंत पूछते हैं , “ भाई क्या बात है बहुत हस रहे हो ? “
जब हम किसी को रोते देखते हैं तब भी कारण जानना चाहते हैं , क्यों ?
कारण जाननें से हमें क्या मिलता है?
जो हसता है उसके पीछे कोई कारण होता है
जो रोता है उसके पीछे भी कोई कारण होता है
जो उसके हसने - रोने के करण को जानना चाहता है उसके जानने के पीछे भी कोई कारण होता है
क्या कारण रहित रोना नहीं हो सकता?
क्या कारण रहित हसना नहीं हो सकता?
जिस हसी के पीछे कोई गहरा कारण होता है वहाँ अहँकार भी होता है
जिस रोने के पीछे जितना गहरा कारण होगा वहाँ उतना गहरा मोह हो सकता है
मोह में नकारात्मक अहँकार होता है
वह हसी जिसमें अहँकार न हो और भोग तत्त्वों की छाया न हो,परम से जोड़ती है
कारण रहित रोना सत् से जोड़ता है
हमें लोगों की इतनी गहरी चिंता क्यों रहती है?
हम कब और कैसे स्व पर केंद्रित हो सकेंगे?
ध्यान एक मार्ग है जहाँ न हसी है , न रुदन और उससे जो निकलता है वह सब का आदि है
सकारण ध्यान ध्यान नहीं,दिखावा होता है
ध्यान से मनुष्य स्वयं को पहचाननें लगता है
स्व की पहचान में परमेश्वर बसता है
==== ओम्=======
No comments:
Post a Comment