Tuesday, May 23, 2023

गीता तत्त्वम् भाग - 4


गीता तत्त्वम् 

भाग - 04


  1. प्रकृति - पुरुष , ब्रह्म - माया , आत्मा एवं परमात्मा 

गीता , वेदांत अद्वैत्य दर्शन केंद्रित महाभारत का एक अंश है । बेडांटेल ब्रह्म ऊर्जा के फैलाव स्वरूप संसार को देखता है ।  सांख्य दर्शन द्वैत्य बादी दर्शन है जिसमें प्रकृति - पुरुष दो सनातन स्वतंत्र ऊर्जाओं से जगत की रचना को मानता है । प्रकृति जड़ ऊर्जा है और पुरुष शुद्ध चेतन ऊर्जा । प्रकृति - पुरुष संयोग से सृष्टि है ।

सांख्य दर्शन एवं पतंजलि योग दर्शन के कुछ प्रकृति -पुरुष संबंधित सूत्र गीता में भी देखे जा सकते हैं जिनमें से 42 को यहां दिया जा रहा है । ये सूत्र मूलतः हैं तो सांख्य दर्शन के लेकिन इन्हें वेदांत दर्शन का रंगे दिया गया है ।

अब गीता के लगभग 42श्लोकों के सार के साथ एक श्रीमद्भागवत पुराण के सूत्र के आधार पर ब्रह्म - माया , प्रकृति - पुरुष तथा आत्मा आदि के रहस्यों को समझते हैं ⬇️

गीता  -13.20             

 प्रकृति पुरुष अनादि हैं ; यहां प्रकृति को माया और पुरुष को ब्रह्म , परमात्मा एवं आत्मा आदि नाम देखने को मिलते हैं । सांख्य में प्रकृति त्रिगुणी है और वेदांत की माया भी त्रिगुणी है। 

गीत  – 15.16             

 क्षर – अक्षर दो पुरुष हैं ; देह को क्षर और जीवात्मा को अक्षर कहा गया है ।

गीता  – 7.4 – 7.6  

 अपरा प्रकृति एवं परा प्रकृति से सभीं भूत हैं ; पांच महाभुत , मन , बुद्धि एवं अहंकार अपरा के 08 भेद हैं जबकि परा शुद्ध चेतन को कहते हैं ।

गीता – 13.6 – 13.7  

   अपरा - परा प्रकृतियों के संयोग से सभी भूतों की उत्पत्ति होती है जबकि सांख्य में प्रकृति - पुरुष संयोग से भूतोंकी उत्पत्ति बताई गई है ।

गीता – 14.3 – 14.4  

  ब्रह्म जीव धारण करता है और  गीता सूत्र – 7. 5 में प्रभु कहते हैं , परा प्रकृति जीव धारण करती है 

गीता  – 14.27 :में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं - ब्रह्म का आश्रय मैं हूँ 

गीता  – 13.12

  ब्रह्म न सत् है और न असत्  है 

गीता  – 15.18   

श्री कृष्ण कहते हैं , क्षर – अक्षर से परे मैं हूँ 

गीता – 13.21 , 13.22 

  प्रकृति में स्थित पुरुष प्रकृति निर्मित त्रिगुणात्मक पदार्थों का भोक्ता है । गुणों का संग जीवात्मा के अच्छी - बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है । भागवत : 11.18 में कहा गया है , देह में देही को छोड़ शेष सब माया है । सांख्य योग में बताया गया है , त्रिगुणी प्रकृति और निर्गुणी पुरुष के संयोग से पूरे ब्रह्मांड की सूचनाएं हैं । कार्य - कारण सिद्धांत के अनुसार प्रकृति से उत्पन्न 23 तत्त्व ( बुद्धि , अहंकार , 11 इंद्रियां , पांच तन्मात्र और पञ्च महाभूत ) त्रिगुणी हैं और इनसे निर्मित सृष्टि भी त्रिगुणी है । 

सामान्य स्थिति में जीवात्मा को गुणों के बंधन से मुक्त होने में 10 लाख वर्ष लगते हैं और तबतक जीवात्मा को अनेक योनियों से गुजरना पड़ता है । 

सांख्य दर्शन के विचार इस संबंध निम्न बात करता है ⤵️

पुरुष एक नहीं अनेक हैं ; जितनी सृष्टि की सूचनाएं हैं , उनके अपने - अपने पुरुष हैं । प्रकृति पुरुष को कैवल्य दिला कर स्वयं को जानकर अपनें मूल अवस्था में लौट आती है जो तीन गुणों की साम्यावस्था होती है । जबतक पुरुष स्वबोध से अपने मूल स्वरूप में स्थिर नहीं हो जाता , प्रकृति बार - बार आवागमन चक्र में आती रहती है । 

प्रकृति पुरुष को मुक्त कराने हेतु विकृत हो कर उसे 23 tools ( बुद्धि , अहंकार , 11 इंद्रियां , 05 तन्मात्र और 05 महाभूत ) देती है जिनके सहयोग से वा प्रकृति को समझ सके । पुरुष का प्रकृति को समझना उसे अपने मूल स्वरूप में पहुंचा देता है जिसे कैवल्य कहते हैं ।

परमहंस रामकृष्ण जी कहते हैं , गुणातीय योगी 21 दिनों से अधिक समय तक देह में नहीं रह सकता , उसकी आत्मा देह को त्याग कर कैवल्य प्राप्त कर लेती है ।

गीता – 13.23           

   प्रकृति - पुरुष से परे एक और है जिसको ईश्वर कहते हैं जबकि सांख्य में ईश्वर या परमात्मा कोई शब्द नहीं लेकिन पतंजलि योग दर्शन को मूलतः सांख्य केंद्रित है , चित्त शांत रखने के 09 उपायों में ईश्वर प्राणिधानि भी एक उपाय बताया गया है । पतंजलि ॐ ( प्रणव ) को ईश्वर कहते हैं ।

गीता – 14.5 

 देह में आत्मा को तीन गुण रोक कर रखते हैं । आत्मा जब देह में आता है तब तीन गुण उसके बंधन बन जाते हैं और तब उसे जीवात्मा कहा जाता है ।

गीता – 7.12    

  तीन गुणों के भाव श्री कृष्ण से हैं लेकिन ये भाव श्री कृष्ण में नहीं 

गीता  – 7.13  

   गुणाधीन गुणातीत को नहीं समझता

गीता – 7.14 

 माया त्रिगुणी है और सांख्य में प्रकृति त्रिगुणी है ।

गीता  – 7.15    

माया का गुलाम आसुरी प्रकृति का होता है और मायामुक्त होना ही कैवल्य है ।

गीता  – 15.7    

  प्रभु कहते हैं , सभी जीव मेरे अंश हैं 

गीता सूत्र – 10.20  

 सब के हृदय में आत्मा नाम से मैं हूँ 

गीता – 18.61 

ईश्वर सब के हृदय में स्थित है 

गीता – 15.15 

  मैं सब के हृदय में स्थित हूँ , मुझ से सभीं भाव उठते हैं 

गीता -   9.4  

 सभीं जीव मुझ अब्यक्त से हैं और मुझमें हैं 

गीता  -  9.5 

 मैं संसार का अंश नहीं और मुझमें कोई नहीं है 

गीता – 9.6 

 सब मुझ में ठीक वैसे हैं जैसे वायु आकाश में है 

गीत  – 7.7 

 जैसे एक माला का सूत्र मणियों का सहारा होता है वैसे मैं संसार का सूत्र हूँ 

गीता – 9.19

अमृत , मृत्यु , सत् , असत् सब मुझ से है 

गीता  – 13.24

प्रकृति - पुरुष का बोधी मुक्ति पाता है 

गीता  -   13.30

प्रकृति को कर्ता स्वयं को अकर्ता देखनें वाला यथार्थ देखत है

 गीता  – 3.5

गुण कर्म कर्ता हैं अतः कोई पल भर के लिये भी कर्म रहित हो नहीं सकता 

गीता  – 3.27

कर्म कर्ता तीन गुण हैं कर्ता भाव अहंकार की छाया है गीता  – 3.33

गुणों से स्वभाव बनाता है , स्वभाव से कर्म होता है 

गीता  – 18.59

प्रभु अर्जुन से कह रहे हैं , तुमको स्वभावतः युद्ध करना ही पडेगा 

गीता  – 18.60

है कुंतीपुत्र ! मोह के कारण जिस कर्म को तुम नहीं करना चाह रहा , उस कर्म को करने के लिए तुम्हारा स्वभाव बाध्य कर देगा । 

गीता – 5.13

देह में नौ द्वार हैं 

गीता  – 14.11

सात्त्विक गुण से सभीं द्वार प्रकाशित होते हैं 

गीता  – 2.15

समभाव मुक्ति पाता है 

गीता – 5.18

समभाव ज्ञानी होता है 

गीता  – 4.19

कामना - संकल्प रहित ज्ञानी होता है 

गीता  – 5.16

ज्ञान , बोध की ऊर्जा रखता है 

गीता – 4.38

योग का फल ज्ञान है 

गीता – 13.3

क्षेत्र – क्षेत्रज्ञ का बोध ज्ञान है 

गीता  – 5.19

समभाव ब्रह्म का दर्पण है 

~~ ॐ ~~ 


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