गीता तत्त्वम्
भाग - 05
श्रीमद्भगवद्गीता आधारित ज्ञान , ज्ञानी , आसक्ति और समभाव संबंधित 32 श्लोकों के सार को यहां कुछ इस ढंग से सजाया गया है जिससे पढ़ते समय कोई प्रश्न न उठ सके । प्रश्न उठता है , संदेह से , संदेहयुक्त बुद्धि के माध्यम से सत्य को पकड़ना असंभव होता है और हम गीता माध्यम से परम सत्य से एकत्व स्थापित करने की यात्रा पर हैं अतः ऐसी परम पवित्र गीता तीर्थ यात्रा में बुद्धि का स्थिर रहना एक मात्र लक्ष्य होना चाहिए। आइए ! अब प्रवेश करते हैं श्रीमद्भागवत गीता तीर्थ यात्रा के अगले चरण में ⤵️
गीता – 13.3
देह क्षेत्र है और प्रभु श्री कृष्ण क्षेत्रज्ञ हैं अर्थात क्षेत्र रथ है और क्षेत्रज्ञ ( प्रभु श्री कृष्ण ) इस रथ के रथी हैं ।
गीता – 5.16
ज्ञान से प्रज्ञा स्थित होती है
गीता – 18.49
आसक्ति रहित कर्म का होना कर्म सिद्धि है
गीता – 18.50
कर्म – सिद्धि से ज्ञान मिलता है
ज्ञानी के लक्षण
गीता – 5.17
तन , मन एवं बुद्धि का निर्विकार होना ज्ञानी की पहचान है
गीता : 18.51-18.55
अल्पहारी होना , तन मन एवं वाणी का नियंत्रित होना , ज्ञानी की पहचान है
गीता : 13.8 -13.12
सम भाव में रहना , ज्ञानी का लक्षण है
गीता :10.4 -10.5
गुणों से अछूता रहना एवं प्रभु में बसा होना , ज्ञानी की पहचान है
गीता – 4.37
ज्ञानी कर्म फल की सोच के बिना कर्म करता है ।
गीता – 4.19
ज्ञानी कामना - संकल्प रहित होता है
गीता – 18.72
ज्ञानी संदेह – मोह रहित रहता है
गीता – 6.8
ज्ञानी , ज्ञान – विज्ञान से परिपूर्ण , नियोजित इन्द्रियों वाला होता है ; प्रकृति - पुरुष का बोध होना , ज्ञान है और प्रकृति - पुरुष को ब्रह्म के फैलाव रूप में देखना , विज्ञान है ।
गीता – 2.57
ज्ञानी समभाव होता है अर्थात वह सुख - दुःख से प्रभावित नहीं होता ।
गीता – 2.48
आसक्ति रहित समत्व – योगी होता है
गीता – 18.20
समभाव में सब में अब्यय को देखनें वाला सात्त्विक गुण धारी होता है
गीता – 6.5
नियोजित मन वाला स्वयं का मित्र होता है
गीता – 12.18 +12.19
सम भाव व्यक्ति मुझे ( श्री कृष्ण को ) प्रिय हैं
( प्रभु अर्जुन से कह रहे हैं )
गीता – 2.15
समभाव की स्थिति , मुक्ति पथ है
गीता – 5.1+5.20
समभाव ब्रह्म योगी होता है
गीता - 2.56 + 4.10
समभाव योगी राग , भय , क्रोध रहित संसार में कमलवत रहता है
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