Friday, May 26, 2023

गीता तत्त्वम् भाग - 6


गीता तत्त्वम्

भाग - 06 

इस अंक में क्षेत्र , क्षेत्रज्ञ , ब्रह्म , स्थिर प्रज्ञा और गीता संदेश के माध्यम से कुछ हृदय स्पर्शी बातों को यहां गीता के आधार पर 72 श्लोकों के माध्यम से स्पष्ट किया जा रहा है ।

गीता ऐसे तत्त्वों के प्रति होश उठाता हैं जिनका आकर्षण मनुष्य को स्वयं से दूर रख रखा है । गीता जीवन के आदि , मध्य और अंत की वह सच्चाई दिखाता है जिसे त्रिगुणी माया ढक कर रखती है । भागवत पुराण में परीक्षित से 16 वर्षीय सिद्ध योगी शुकदेव जी कहते हैं , परीक्षित ! मनुष्य का दिन धन इकट्ठा करने की सोच में और रात्रि स्त्री प्रसंग की सोच में गुजरती है । हम सबको  भी शुकदेव जी के इस सूत्र के एआइने में स्वयं को देखना चाहिए ।

 गीता मनुष्य के अंतःकरण को रिक्त करता है और उसे एक निर्मल आइना जैसा बना कर उस पर प्रतिविंबित प्रभु को दिखाता है । आइए ! हम और आप गीता तत्त्वम् के इस परम यात्रा में आगे  दिए गए गीता के श्लोकों के सार को पकड़े हुए कुछ और कदम आगे चलते हैं ।

क्षेत्र - रचना    

क्षेत्र स्थूल देह को कहते हैं और क्षेत्रज्ञ देही को कहते हैं जो श्री कृष्ण का संबोधन है ।

 देखिये गीता के निम्न श्लोकों को

7.4 - 7.6 , 13.5 -13.6 ,14.3 -14.4  

ऊपर के 07 श्लोकोक का सार ⬇️

 अपरा प्रकृति ,  परा प्रकृति , जीवात्मा , ब्रह्म एवं परमात्मा के संयोग से जीव की उत्पत्ति है । अब श्लोकों को भी देखें ⤵️

गीता : 7.4 - 7.6

पांच महाभूत , मन , बुद्धि और अहंकार इस प्रकार 08 प्रकार की अपरा प्रकृति है । परा प्रकृति जगत धारण करती है 

गीता : 13.5 - 13.6

05 महाभूत , मन , बुद्धि , अहंकार , 10 इंद्रियां , पञ्च तन्मात्र , अव्यक्त ,  इच्छा , द्वेष , सुख - दुःख , स्थूल  देह , चेतना , धृति एवं विकार आदि क्षेत्र रचना के तत्त्व हैं 

गीता : 14.3 - 14.4

महत् ब्रह्म भूतों की योनि है अर्थात गर्भ धारण करने का श्रोत है जिसमें भूतों के उत्पत्ति हेतु उनका बीज मैं ( श्री कृष्ण ) स्थापित करता हूं ।

नाना प्रकार के जीवोंको उत्पन्न करने हेतु गर्भ धारण करने वाली माता प्रकृति है और बीज स्थापित करता पिता मैं ( श्री कृष्ण ) हूं ।

ब्रह्म क्या है ? 

गीता  – 13.13

ब्रह्म सत् - असत् से परे है 

गीता  – 13.15

इन्द्रियों का श्रोत पर स्वयं इन्द्रिय रहित परम भोक्ता  ब्रह्म है 

गीता – 13.16

सब में और सब के अंदर -  बाहर सर्वत्र ब्रह्म है 

गीता – 13.17

ब्रह्म एक है पर जीवों में अलग – अलग दिखता है 

गीता – 13.18

ब्रह्म , ज्ञान – ज्ञेय है ,  सभीं प्रकाशों का श्रोत है  एवं सब के हृदय में है 

यहाँ देखें गीता के निम्न श्लोकों को भी 7.8,7.9,9.16,10.19,10.23,15.15,18.61 जो  कह रहे हैं ⤵️

जल में रस , चंद्रमा और सूर्य का प्रकाश , प्रणव , पृथ्वी की पवित्र गंध , अग्नि का तेज ,भूतों का जीवन , तपस्वियों में तप मैं ( श्री कृष्ण ) हूं ।

सूर्य की गर्मी। वर्षा का आकर्षण , अमृत और मृत्यु एवं सत - असत मैं हूं । शंकर , कुबेर , अग्नि तथा सुमेरू पर्वत मैं हूं । में सबके हृदय में रहता हूं , मुझसे ही स्मृति , ज्ञान आदि हैं तथा वेदों से जानने योग्य मैं ही हूं । सबके हृदय में स्थित सबको यंत्रवत मैं ही चला रहा हूं ।


गीता – 13.25

ध्यान एवं सांख्य – योग से ब्रह्म की अनुभूति संभव है 

गीता : 13.26 - 27

संपूर्ण सृष्टि क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ के संयोग से हैं ।

विनाशशील भूतों में अविनाशी परमात्मा को देखने वाला यथार्थ देखता है ।

गीता  – 13.31

ब्रह्म योगी सब में समभाव से एक अव्यय को देखता है 

गीता  – 13.35

क्षेत्र – क्षेत्रज्ञ का बोध ही मुक्ति है 

गीता – 4.19

कर्म बंधन मुक्त संकल्प रहित ज्ञानी होता है 

 गीता : 2.55 , 2.70

कामना रहित एवं कामनाओं का द्रष्टा स्थिर प्रज्ञ होता है 

गीता  – 6.8

ज्ञान , विज्ञान से परिपूर्ण ज्ञानी होता है 

गीता  – 14.26

गुणातीत ब्रह्म के समान  होता है 

गीता  – 2.69

या निशा सर्व भूतानां तस्यां जागर्ति संयमी /

यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने : //

जो सभीं भूतों के लिए रात्रि जैसा है , संयमी उसमें जागता रहता है अर्थात उसके लिए वह दिन जैसा होता है । जिसमें सभी भूत जागते रहते हैं , उसे मुनि लोग रात्रि समझते हैं अर्थात भूत जिसे दिन समझते हैं , मुनि के लिए वह रात्रि समान होता है।


गीता  – 2.71

स्पृहा , कामना , ममता , अहंकार रहित ज्ञानी होता है 

गीता – 4.22

समत्व योगी कर्मों का गुलाम नहीं होता 

गीता – 4.23

समत्व – योगी गुणातीत होता है 

गीता : 2.41 – 2.44 तक

भोग – भगवान एक साथ एक बुद्धि में नहीं बसते 

गीता – 12.3 , 12.4

मन – बुद्धि से परे ब्रह्म की अनुभूति है 

गीता  – 5.6,5.7

बिना योग में उतरे संन्यासी बनना कठिन है 

गीता – 5.8,5.9

तत्त्व-वित्तु समभाव स्थिर प्रज्ञ होता है 

अब आगे 

देखें गीता के निम्न श्लोकों को 2.48,4.10,5.11,6.1,6.2,6.4,6.10,16.21,18.2 

गीता  – 2.48

आसक्ति रहित कर्म समत्व – योग है 

गीता  – 4.10

राग भय क्रोध रहित ज्ञानी होता है 

गीता – 5.11

आसक्ति रहित कर्म से अंतःकरण निर्मल रहता है 

गीता : 6.1 - 6.2

सन्यासी  कर्म फल की सोच एवं संकल्प रहित होता है 

गीता  – 6.4

आसक्ति - संकल्प रहित योगारूढ़ होता है 

गीता  – 6.10

योगी कामना मुक्त होता है 

गीता – 16.21

काम , क्रोध , लोभ नर्क के द्वार हैं 

गीता: 18.2

कर्म होने में कामना का न होना ही कर्म फल का त्याग है ।

अब आगे 

 देखें गीता श्लोक  : 2.14,5.22,18.38 को एक साथ     

गीता  – 2.14

इन्द्रिय सुख – दुःख क्षणिक होते हैं इनसे भ्रमित न हों 

गीता  – 5.22

इन्द्रिय सुख – दुःख से ज्ञानी प्रभावित नहीं होते 

गीता  – 18.38

इन्द्रिय सुख भोग के समय अमृत सा लगता है लेकिन उस भोग का परिणाम बिष समान होता है 

देखें गीता श्लोक 5.24 , 6.15 , 7.3 को एक साथ 

गीता  – 5.24 

 अंतर्मुखी निर्वाण प्राप्त करता है 

गीता सूत्र – 6.15  

ध्यान मन मार्ग से निर्वाण में पहुंचाता है 

गीता सूत्र – 7.3 

 सिद्धि प्राप्त योगी दुर्लभ हैं 

    

गीता संदेश ⤵️


प्रकृति - पुरुष संयोग से सर्गों की उत्पति होती है ।  प्रकृति को वेदांत में त्रिगुणी माया कहते हैं ।   माया पुरुष से है पर पुरुष माया के अधीन नहीं , यह बात वेदांत आधारित है । 

सांख्य और पतंजलि दर्शनों में माया शब्द नहीं , प्रकृति - पुरुष सनातन एवं स्वतंत्र दो तत्त्व हैं । प्रकृति जड़ है और पुरुष शुद्ध चेतन ।

गुणातीत पुरुष गुणों के अधीन नहीं , मायापति माया के अधीन नहीं लेकिन गुण गुणातीत से हैं 

एवं माया मायापति से है / 

गीता गुण साधना का एक ऐसा मार्ग दिखाता है जो गुणातीत से मिलाता भर नहीं गुणातीत बनाता भी 

है / गीता भक्ति कराता नहीं पराभक्त बनाता है जिसकी हर श्वास में प्रभु बसता है / गीता रूपांतरण करनें का एक सहज मार्ग है जिस पर चलनें वाला स्वयं से मिल जाता है और मिल कर धन्य हो उठता है / गीता उन बंधनों के प्रति होश उठाता है जो मनुष्य को भोग से बाध कर रखते हैं /

मनुष्य गुणों की तीन रस्सियों से इस जगत से एवं स्वयं से बधा हुआ है और यह बंधन मनुष्य के रुख को प्रभु के विपरीत दिशा में रखते हैं / मायामुक्त ब्यक्ति प्रभु को खोजता नहीं , प्रभु में बसता है / खोज में संदेह की ऊर्जा हो सकती है लेकिन प्रभु श्रद्धा में निवास करते हैं ।

~~ ॐ ~~ 

No comments: