Monday, May 15, 2023

गीता तत्त्वम्



गीता तत्त्वम् 【 भाग : 01 】

गीता शब्द के साथ श्रीमद्भगवद्गीता और अष्टावक्र गीता का नाम जुड़ा हुआ है । ये दोनों गीता अव्यक्त आत्मा - ब्रह्म को शब्दों के माध्यम से व्यक्त करना चाहते हैं ।

 महाभारत - अरण्य पर्व का उपपर्व तीर्थयात्रा है । इस उप पर्व के अंतर्गत अध्याय : 134 में अष्टावक्र गीता वर्णित है । गीता  महाभारतके भीष्म पर्व 6.25 - 6.42 में दिया गया है । 

अष्टावक्र गीता में कुल 298 श्लोक और श्रीमद्भगवद्गीता में 700 श्लोक हैं । 

अब श्रीमद्भगवद्गीता के पहले श्लोक को पीते हैं जो गीता में सम्राट धृतराष्ट्र का  एक मात्र श्लोक है और गीता इस श्लोक से प्रारम्भ भी होता है ।

गीता श्लोक : 1.1

धर्म - क्षेत्र  कुरु - क्षेत्रे  समवेता :    युयुत्सव :   /

  मामका : पांडवा : च एव किम्  अकुर्वत  संजय //  

 

हस्तिनापुर सम्राट धृतराष्ट्र जी जो जन्म से अंधे हैं हस्तिनापुर महल में अपनें सारथी संजय से पूछ रहे हैं - – - 

धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्र में एकत्रित युद्ध की कामना वाले मेरे और पाण्डु के पुत्र क्या कर रहे हैं ? 

यहाँ ध्यान रहे कि संजय को वेदव्यास जी द्वारा वह सिद्धि मिली हुई है जिससे वे सुदूर हो रही घटनाओं को देख और सुन सकते हैं । 

पतंजलि योगसूत्र विभूति पाद सूत्र : 48 में बताया गया है कि इंद्रियों पर पूर्ण नियंत्रण होने पर ……

1 - मनकी गति से शरीर को चलाने की सिद्धि मिलती है 

2 - विकरण भाव : इंद्रियोंको दूर देश तक भेजा जा सकता है ।

3 - प्रधान जय : प्रकृति पर पूर्ण नियंत्रण करने की शक्ति मिलती है।

( ऊपर पतंजलि के सूत्र में क्रम संख्या : 2 को देखें )

 सम्राट धृतराष्ट्र का गीता में यही एक मात्र श्लोक है । 

न यह प्रश्न होता  न गीता का जन्म होता  !

गीता के प्रारंभिक श्लोक के भावार्थ को ठीक - ठीक समझने के लिए सम्राट कुरु और कुरुक्षेत्र को समझना चाहिए जिनको आगे स्पष्ट किया गया है 🔽

सम्राट कुरु और कुरुक्षेत्र को समझें

श्रीमद्भागवत पुराण में 02 सम्राट कुरु की चर्चा की गई जो निम्न प्रकार है⬇️

पहले सम्राट कुरु पहले मनु ( स्वायंभुव मनु )  के प्रपौत्र थे जैसा नीचे स्लाइड में दिखाया गया है ।

 भागवत स्कंध - 5 में जम्बू द्वीप का भूगोल दिया गया है ( देखें नीचे स्लॉइड ) , जिसमें जम्बू द्वीप के 09 वर्षों को दिखाया गया है । जम्बू द्वीप का केंद्र हिमालय जे उत्तर में शिव क्षेत्र इलावृत्त वर्ष एवं मेरु पर्वत है । इलावृत्त के पूर्व एवं पश्चिम में एक - एक वर्ष हैं और उत्तर - दक्षिण में तीन - तीन वर्ष हैं । इलावृत्त के सबसे उत्तर में आखिरी वर्ष कुरु है जो उत्तरीय सागर का तटीय क्षेत्र है तथा जिसे आधुनिक काल में साइवेरिया का क्षेत्र समझा जा सकता है । यह कुरु क्षेत्र पहले मनु के प्रपौत्र का क्षेत्र रहा होगा । अब आगे दूसरे सम्राट कुरु के संबंध में देखते हैं 🔽

दूसरे सम्राट  कुरु

ऊपर स्लॉइड में दूसरे सम्राट कुरु की बंशावली दी गयी है जो निम्न प्रकार है 🔽

दुष्यंत पुत्र भरत के बंश में भरत के बाद चौथे राजा हुए हस्ती जिनके नाम पर हस्तिनापुर बसा । हस्ती के बाद चौथे राजा हुए कुरु । कुरु से आगे 12 वें बंशज हुए शंतनु ।  शंतनु के समय में हस्तिनापुर का सम्राट कर्म आधारित न हो कर जन्म आधारित हुआ और यहीं महाभारत युद्ध का बीज अंकुरित होने लगा ।

दूसरे सम्राट कुरु के कुरुक्षेत्र की भौगोलिक स्थित के संबंध में आगे नीचे स्लॉइड में दिखाया गया है ।

यहां इस कुरुक्षेत्र की भौगोलिक स्थित के संबंध में निम्न 03 स्थितियां नज़र आती है ।

पहला कुरुक्षेत्र : दिल्ली - अम्बाला राष्ट्रीय राज्य मार्ग - 1 पर स्थित पिपली के पास और करनाल - अम्बाला के मध्य स्थित वर्तमान का कुरुक्षेत्र ।

दूसरा कुरुक्षेत्र : प्रभु श्री कृष्ण द्वारका के इन्द्रप्रस्थ , जिस मार्ग से राजसूय यज्ञ में भाग लेने आये हैं , उस मार्ग पर इन्द्रप्रस्थ और जयपुर के मध्य कुरुक्षेत्र को दिखाया गया है ।

तीसरा कुरुक्षेत्र : महाभारत युद्ध के बाद हस्तिनापुर से द्वारका प्रभु श्री कृष्ण जिस मार्ग से जाते हैं उस मार्ग पर ब्रह्मावर्त और मत्स्य में मध्य कुरुक्षेत्र को दिखाया गया है । ब्रह्मावर्त आज का आगरा क्षेत्र है और मत्स्य अलवर - भरतपुर का क्षेत्र है अर्थात आगरा और अलवर के मध्य कहीं कुरुक्षेत्र की स्थित बनती है ।

अब ऊपर व्यक्त कुरुक्षेत्र के भौगोलिक 04 स्थितियों को समझ कर आप स्वयं निर्णय ले सकते हैं कि महाभारत से संबंधित कुरुक्षेत्र की भौगोलिक स्थिति कौन सी हो सकती है ।

   गीता तत्त्वम्  के अंतर्गत पहले श्रीमद्भगवद्गीता के 02 ध्यानोपयोगी श्लोकों पर मनन करते हैं ।

  गीता के दो ज्ञान - श्लोक                                  

श्लोक : 1️⃣  

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्र मिह विद्यते  तत्स्वयं योगसंधिद्ध : कालेन आत्मनि विन्दति  //  गीता : 4.38 //

 

योग सिद्धि पर ज्ञान प्राप्त होता है - गीता : 4.38

इस श्लोक के संबंध में आगे देखें ⤵️

  योग की सिद्धि सत्त्विक श्रद्धा पर आधारित है  


श्लोक : 2️⃣

क्षेत्र  क्षेत्र – ज्ञयो : ज्ञानम् यत् तत् ज्ञानम् मतम् मम  //   

  गीता - 13.3

" क्षेत्र  -  क्षेत्रज्ञ का बोध ही ज्ञान है "

स्थूल शरीर ( देह ) को क्षेत्र और देह के केंद्र हृदय नें स्थित प्रभु श्री कृष्ण जे अंश जीवात्मा को क्षेत्रज्ञ कहते 

हैं । सांख्य दर्शन में क्षेत्र को प्रकॄति और क्षेत्रज्ञ को पुरुष कहा गया है । प्रकृति जड़ है और पुरुष शुद्ध चेतन । संख्या दर्शन द्वैत्यबादी दर्शन है । भूतिन की रचना प्रकृति - पुरुष संयोग से है । दोनों तत्त्व स्वतंत्र एवं सनातन हैं । वेदांत में ब्रह्म के फैलाव से त्रिगुणी माया ( प्रकृति ) है और काल के प्रभाव के कारण भूतों की रचना माया से है । काल को ईश्वर माना गया है ।

प्रभु श्री कृष्ण की ज्ञान की परिभाषा में क्या कोई संदेह की गुंजाइश  है ! 

गीता तत्त्वं के अंतर्गत गीता के श्लोकों को  कर्म बंधनों के तत्त्वों के आधार पर एकत्रित किया गया है जिससे सकाम कर्म निष्काम जर्म में रूपांतरित हो सके जो कैवल्य का द्वार खोलता है । अगले अंक में कुछ और देखा जा सकेगा।

~~ ॐ ~~

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