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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय : 6
# इस अध्यायमें अर्जुनका प्रश्न : 6 और प्रश्न 7 निम्न प्रकार से हैं …
प्रश्न : 6 :श्लोक : 33 - 34
हे मधुसूदन! जो यह योग आप समभाव से कहा , उसे मैं अपनें मन की चंचलता के कारण नहीं समझ पा रहा हूँ ।
मन को बश में करना , वायु को बश में करने जैसा है।
प्रश्न : 7:श्लोक : 37 - 39
हे कृष्ण ! असंयमी किन्तु श्रद्धावान एवं विचलित मन वाले योगी की गति कैसी होती है ?
अब आगे ⬇
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय : 6 सार
★ अध्याय : 6 का केंद्र मन है ★
# मन से मनुष्य भोग - योग , ब्रह्म - माया और प्रकृति - पुरुष के रहस्य को समझ कर मुक्त हो जाता है ।
⚛अब मन सम्बंधित श्रीमद्भगवत पुराण के कुछ सुत्रों पर ध्यान करते हैं ⤵️
भागवत : 5.6 : योगी मन पर भरोषा नहीं रखता ।
भागवत : 3.5 : मन से बंधन और मन से मोक्ष है।
भागवत : 10.1 : विचारों का पुंज , मन है ।
भागवत : 11.22 : कर्म संस्कारों का पुंज मन है ।
भागवत : 11.13 : जगत् मन का विलास है ।
भागवत : 11.22 : पूर्व अनुभवों पर मन भरे की भांति मंडराता रहता है ।
⚛ गीता में मन सम्बंधित श्लोक 👇
अब आगे अध्याय - 6 के 47 श्लोकों का हिंदी भाषान्तर ⬇️
श्लोक : 1 > योगी - सन्यास
अनाश्रितः कर्मफलम् कार्यम् कर्म करोति यः ।
सः सन्यासी च योगी च न निरग्नि : न च अक्रिय :।।
➡️ कर्म फल अनाश्रित कर्म करनेवाला सन्यासी एवं योगी होता है न कि अग्नि एवं कर्म त्यागी , योगी - सन्यासी होता है । यहाँ अग्नि का अर्थ है वैदिक यज्ञ ।
श्लोक : 2 > संन्यास - योग क्रमशः
● संन्यास और योग दोनों एक हैं /
● संकल्पों का त्यागी , योगी है ।
श्लोक : 3 > कर्म - कर्मयोग
आरुरुक्षो: मुने : योगं कार्यम् कारणं उच्यते ।
योगरूढ़स्य तस्य एव शमः कारणं उच्यते ।।
● योग आरूढ़ होने की चाह रखने वाले के लिए
कर्म और योगारूढ़के लिए शम माध्यम है ।
शम का अर्थ है अंतःकरण का शांत रहना ।
श्लोक : 4 > योगारूढ़
◆ जब भोग - कर्म में इंद्रियाँ अनासक्त रहती है तब
सर्व संकल्प सन्यासी , योगारूढ़ कहलाता है ।
श्लोक : 5 - 6 > स्वयंका मित्र कौन है
मनुष्य स्वयं का मित्र और शत्रु है । मनुष्य स्वयं अपना उद्धार करे , अधोगतिमें न डाले ।
◆ आत्म बोधी स्वयंका मित्र होता है , अन्यथा वह स्वयं का शत्रु है ।
यहाँ निम्न को देखिये ⬇️
★ बुद्ध कहते हैं :
अप दीपो भव ।
और प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं :
◆ मनुष्य स्वयं अपना उद्धार करे
श्लोक - 7 : प्रभुमय
समभाव , प्रशांत जितात्मान प्रभु में होता है ।
श्लोक - 8 : युक्त योगी
ज्ञान - विज्ञान से तृप्त , निर्विकार अंतःकरण वाला , इंद्रियों को नियंत्रण में रखने वाला , समदृष्टि वाला , युक्त योगी होता है ।
श्लोक : 9 : समभाव वाला
समभाव - समदृष्टि वाला श्रेष्ठ होता है ।
श्लोक : 10 : योगी
आशा रहित , यत चित्त ( मन , बुद्धि एयर अहँकार पर जिसका नियंत्रण हो ) , एकांकी , संग्रह न करने के भाव से भरा हुआ , अकेले रहने वाला आत्मा माध्यम से परमात्मा केंद्रित योगी होता है ।
श्लोक : 11- 20 : योग करने की विधि
1 - शुद्ध समतल भूमि पर कुश या मृगछाला बिछा कर किसी भी स्थिर सुख देनेवाले आसान में स्वयं को स्थिर करना चाहिए ।
2 - उस आसान पर बैठ कर चित्त एवं इन्द्रियों की क्रियाओं को बश में करके , एकाग्र मन से अंतःकरण विशुद्धि हेतु योग का अभ्यास करना चाहिए ।
3 - काया , सिर , गर्दन को तनाव रहित स्थिति में सीधा रखते हुए दृष्टि को नासिका के अग्र भाग पर केंद्रित रखने का अभ्यास करना चाहिए ।
4 - ब्रह्मचारी व्रत में स्थित भय रहित प्रशांत अंतःकरण के साथ प्रभु केंद्रित बने रहना चाहिए ।
5 - इस योगाभ्यास से योगी सदा मुझमें बसा हुआ , मेरे परम् निर्वाण शांति को प्राप्त करता है ।
6 - सामान्य आहार - विहार , निद्रा एवं कर्म करने वाले का ध्यान फलित होता है । उपवास , असामान्य जागरण , असामान्य निद्रा , असामान्य भोजन करने वाले का ध्यान फलित नहीं होता ।
7 - जिस समय चित्त प्रभु में स्थिर हो जाता है , उसी समय वह योगी सर्व भोगों से अनासक्त हुआ योगयुक्त हो जाता है ।
8 - जिस प्रकार वायु रहित स्थानमें रखे हुए दीपक की ज्योति अचलायमान होती है , वैसी ही स्थिति योगारूढ़ योगी के चित्त की होती है ।
9 - जिस घडी योगमें चित्त पूर्ण शांत हो जाता है , उस घड़ी वह योगी आत्मा से आत्मा में बसा हुआ पूर्ण संतुष्ट होता है ।
श्लोक : 21 + 22
सुखं आत्यन्तिकम् यत्
तत् बुद्धिग्राह्यम् अतीन्द्रियं ।
वेत्ति यत्र न च एव अयम्
स्थितः चलति तत्त्वं ।।
# इंद्रियातीत निर्मल बुद्धिसे परम् आनंदकी अनुभूति करनेवाला योगी प्रभु को तत्त्व से समझता है और बड़े से बड़े दुःख में भी प्रभु से कभीं विचलित नहीं होता।
श्लोक : 23
" दुःख संयोग वियोगः , योगः "
यह दुःख संयोग वियोग क्या है ?
' इन्द्रिय - बिषय संयोग दुःख का कारण है ' इस सूत्र को गीता : 5.22 , भागवत : 11.26 , पतंजलि योग सूत्र साधन पाद सूत्र : 15 + 17 + 24 +24 नें भी दिया गया है ।
इंद्रियों में बिषयों के प्रति वितृष्णा का भाव होना , वैराग्य है सुर वैराग्य ही दुःख मुक्ति का माध्यम है ।
श्लोक :24 - 32
संकल्प से उत्पन्न कामनाओं को त्याग कर ,मनसे इन्द्रिय नियोजन करनेका अभ्यास करता हुआ , बुद्धिसे मनको प्रभु पर केंद्रित करते हुए प्रभु चिंतनमें मनको बसाना चाहिए।
यह अस्थिर मन , चंचल मन , जहाँ - जहाँ विचरता हो , उसे वहाँ - वहाँ से बार - बार हटा कर प्रभु पर केंद्रित करते रहने का अभ्यास करना चाहिए ।
जिसका रजो गुण शांत है ,जिसका मन शांत है , उसका ब्रह्म से एकत्व स्थापित हो जाता है और वह इस प्रकार निरंतर अभ्यास से आत्मा केंद्रित योगी ब्रह्म संस्पर्श से अत्यंत सुख अनुभव करता है । ऐसा समदर्शी योगयुक्त योगी सभीं भूतों में स्थित आत्मा को और सभीं भूतों को आत्मा में देखता है ।
🕉️ यो माम् पश्यति सर्वत्र सर्वम् च मयि पश्यति।
तस्य अहम् न प्रणश्यामि सः च मे न प्रणश्यामि ।। ~~ गीता : 6.30 ~~
जो मुझे सर्वत्र देखता है , जो सब में मुझे देखता है ,
उसके लिए मैं अदृश्य नहीं और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं।
⚛ जो सुख - दुःख में समभाव है , जो सभीं भूतों को बराबर समझता है , वह योगी परम् तुल्य होता है ।
श्लोक :33 - 35 >अर्जुन का 06 वाँ प्रश्न
हे मधुसूदन ! जो योग आप मुझे बताए हैं , उसकी स्थिर स्थिति को मैं अपनें मनकी चंचलता के कारण नहीं समझ पा रहा हूँ।
प्रभु कहते है ⬇️
निःसंदेह यह मन चंचल है बश में करना कठिन भी है पर इसे अभ्यास और वैराग्य से बश में किया जा सकता है ।
अभ्यास - वैराग्य क्या है ?
इस संबंध में देखिये पतंजलि समाधि पाद सूत्र : 12 - 16
ऊपर के सूत्रों में महर्षि कह रहे हैं ⬇
★ महर्षि पतंजलि समाधि पाद में चित्त वृत्ति निरोध की 08 विधियाँ बताते हसीन जिनमें से एक प्रमुख और सभीं विधियों की भूमि है - अभ्यास - वैराग्य ।
☸ अभ्यास - वैराग्य की परिभाषा भी देते हुए महर्षि पतंजलि कहते हैं ⤵️
➡चित्त - वृत्तियों को शांत रखने के लिए किये जा रहे यत्न को अभ्यास कहते हैं ।
➡️ पूर्ण श्रद्धा - समर्पण भाव में नियमित लंबे समय तक अभ्यास करते रहने से दृढ भूमि मिलती है । दृढ भूमि अपर वैराग्य में पहुँचाती है । अपर वैराग्य , पर वैराग्य में ले जाता है जो समाधि का द्वार है ।
➡ इन्द्रिय - बिषय संयोग , भोग है और इस भोग के प्रति वितृष्णा का उपजना , अपर वैराग्य है । अपर वैराग्य का दृढ होना पर वैराग्य है ।
➡️ पर वैराग्य में पुरुष को स्व - बोध हो जाता है और वह गुणातीत की स्थिति में आ जाता है जो योग यात्रा की उच्च स्थिति है।
श्लोक :36
असंयम मन वाले का योग सिद्ध नहीं होता और नियोजित मन करने का अभ्यास करनें वाले का योग वैराग्य में पहुंचने पर सिद्ध हो जाता है ।
श्लोक :37- 39 > अर्जुन का प्रश्न > 07
जब असंयमी एवं श्रद्धावान योगी अपनें आखिरी समय आने पर योग बिचलित हो जाता है तब वह किस गति को प्राप्त होता है ?
⚛️ इस प्रश्न के उत्तर के लिए अगके श्लोक : 40 - 47 तक को समझें ⤵️
श्लोक :40 - 44
1- ऐसे योगी का इस लोक एवं परलोक में बिनाश नहीं होता । वह दुर्गतिको नहीं प्राप्त होता ।
2 - ऐसा योगी पुण्यवानों के लोक को प्राप्त होता है और वहाँ बहुत समय तक रह कर शुद्ध आचरण श्रीमानों के कुल में जन्म लेता है ।
3 - अथवा पुण्यवान लोकों में न जा कर सीधे श्रीमानों के घर में जन्म लेता है । लेकिन ऐसा जन्म दुर्लभ होता है ।
4 - इस प्रकार पिछले जन्म की अपने अधूरी साधना को आगे बढ़ाता है ।
श्लोक :45
प्रयत्नशील योगी अभ्यास माध्यम से अपनें पिछले जन्मों के संस्कारों की ऊर्जा से वर्तमान जन्म में ही परमगति प्राप्त कर जाता है , कैसे ? देखिये आगे ?
🕉️ ऐसे योगी का पिछले जन्म में सम्प्रज्ञात समाधि की सिद्धि प्राप्त करने के बाद जब शरीर छूट जाता है तब वे वर्तमान का जीवन असम्प्रज्ञात समाधि सिद्धि के लिए जीते हैं और इस प्रकार असम्प्रज्ञात समाधि सिद्धि प्राप्त करते हैं तथा आगे धर्ममेघ समाधि सिद्धि के लिए ध्यान , धारणा , समाधि एवं संयम सिद्धि से कैवल्य - मोक्ष की प्राप्ति करते हैं
(यहाँ देखिये पतंजलि विभूति पाद सूत्र : 2 - 6 ) ।
श्लोक :46 - 47
1- योगी , तपस्वी से , ज्ञानियों से और सकाम कर्म करनेवालों से भी श्रेष्ठ है अतः हे अर्जुन ! तुम योगी बनो।
2 - योगियों में पूर्ण श्रद्धा से जो योगी मुझे भजता है , वह मुझे प्रिय है ।
// अध्याय : 06 समाप्त //
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