Tuesday, October 31, 2023

सांख्य दर्शन में महत् या बुद्धि तत्त्व की निष्पत्ति भाग - 01


सांख्य दर्शन में ….

महत् ( बुद्धि ) तत्त्व की निष्पत्ति किससे और कैसे हुई ? भाग - 01

सम्बन्धित सांख्य कारिकाएं ⤵️

20

55

59

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61

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67

68

62

योग > 09

" महत् ( बुद्धि ) तत्त्व की निष्पति पुरुष - प्रकृति संयोग से हुई है । बुद्धि ,  जड़ एवं अचेतन विकृत हुई मूल प्रकृति का कार्य है । पुरुष किसी तत्त्व का न तो कारण है और न ही कार्य " 

महत् तत्त्व को बुद्धि तत्त्व और प्रत्यय तत्त्व भी कहते हैं । प्रत्यय शब्द का अर्थ है - श्रद्धायुक्त दृढ़ धारणा और प्रमाण । सांख्य कारिका - 04 में प्रत्यक्ष , अनुमान और आप्त वचन - तीन प्रमाण बताए गए हैं जिनसे सारे प्रमेय सिद्ध होते हैं और इस  तर्क आधारित तथ्य का केंद्र बुद्धि ही होती है ।

सांख्य दर्शन में निष्क्रिय , जड़, त्रिगुणी , प्रसवधर्म और सनातन ( नित्य ) प्रकृति तत्त्व और निष्क्रिय , निर्गुणी , शुद्ध चेतन और सनातन ( नित्य ) तत्त्व के संयोग से महत् या बुद्धि या प्रत्यय की निष्पत्ति हुई है । प्रकृति बुद्धि का कारण है लेकिन पुरुष न तो किसी तत्त्व का कारण है और न हो कार्य है । 

चेतन पुरुष को अचेतन जड़ प्रकृति का ज्ञान तो होता है लेकिन इस ज्ञान में अनुभव की अनुपस्थिति होती है अतः पुरुष प्रकृति को पूरी तरह देखना और समझना चाहता है । जब पुरुष की चेतन ऊर्जा जड़ प्रकृति को स्पर्श करती है तब निष्क्रिय, जड़ और अचेतन प्रकृति विकृत हो उठती है और चेतन ऊर्जा के प्रभाव में स्वयं को समझने जी उसे जिज्ञासा होने लगती है । विकृत होने से पहले मूल प्रकृति तीन गुणों की साम्यावस्था होती है लेकिन विकृत होने पर इसके तीनों गुण सक्रिय हो उठते है जिसके फलस्वरूप पहला तत्त्व बुद्धि की निष्पत्ति है । 

त्रिगुणी प्रकृति बुद्धि का कारण है और बुद्धि उसका कार्य है अतः कार्य - कारण सिद्धान्त के अनुसार बुद्धि भी त्रिगुणी होती है । बुद्धिसे अहँकार , अहँकार से 11 इंद्रियों और 05 तन्मात्रों की निष्पत्ति है और तन्मात्रों से 05 महाभूतों की उत्पत्ति है । इस प्रकार विकृत प्रकृति से 07 कार्य - कारण

 (बुद्धि , अहँकार , 05 तन्मात्र ) और 16 कार्यों (11 इन्द्रियाँ और 05 महाभूत ) की उत्पात्ति हुई है। ये सारे 23 तत्त्व त्रिगुणी हैं। विकृत प्रकृति के 23 तत्त्वों में 

बुद्धि , अहँकार और मन के समूह को सांख्य में चित्त कहा गया है।

प्रकृति - पुरुष संयोग के साथ शुद्ध चेतन पुरुष चित्ताकार हो जाता है अर्थात निर्गुण पुरुष सगुण जैसा स्वयं को समझने लगता है लेकिन स्मृति की गहराई में उसे अपने मूल स्वरूप का भी बोध रहता है ।

प्रकृति - पुरुष संयोग होने ही जड़ प्रकृति में अपनें अंदर उपस्थित चेतन ऊर्जा के कारण सोचने की शक्ति आ जाती है और वह निर्गुण पुरुष को जानने की जिज्ञासा करती है ।  निर्गुण पुरुष प्रकृति से जुड़ने के बाद स्वयं को चित्त समझ बैठता है और चित्त माध्यम से संसार की सूचनाओं को समझता और देखता है । 

यहां प्रकृति - पुरुष संयोग के विज्ञान को देख रहे 

हैं ! अचेतन प्रकृति चेतन पुरुष से जुड़ते ही चेतन शक्ति धारण कर लेती है और चेतन पुरुष प्रकृति से जुड़ते ही चित्ताकार बन जाता है जबकि चित्त अचेतन और जड़ है । 

चित्ताकार पुरुष भोक्ता एवं करता रूप में सगुणी प्रकृति को भोगता है , भोग से उत्पन्न सुख - दुःख का भोक्ता होता है और 13 करणों ( 11 इंडियन और बुद्धि , अहंकार और मन अर्थात चित्त ) के रूप में स्वयं को करता समझने लगता है ।  प्रकृति भोग नेयोग्य है और चित्त केंद्रित पुरुष उसका भोक्ता है । प्रकृति चेतन ऊर्जा के प्रभाव में चाहती है कि पुरुष मेरे माध्यम से अनुभव प्राप्ति के बाद कैवल्य प्राप्त कर ले और जब प्रकृति को ऐसा दिखने लगता है कि पुरुष उसे देख लिया है और उसे पूरा अनुभव हो चुका है तब वह अपने मूल स्वरूप अर्थात तीन गुणों की साम्यावस्था में लौट जाती है ।

 पुरुष अनुभव सिद्धि के बाद जब समझने लगता है कि वह चित्त नहीं , वह अहँकार नही , वह इन्द्रियाँ नहीं , वह तन्मात्र एवं महाभूत नहीं तब वह कैवल्य प्राप्त करता है । इस प्रकार प्रकृति उपकारिणी है और अपनें 23 तत्त्वों से पुरुष को कैवल्य प्राप्ति में मदद करती है। अब इस संबंध में प्रारंभ में दी गई 09 कारिकाओं को समझते हैं ⬇️ 

कारिका - 20 > पुरुष के चेतन ऊर्जा के कारण अचेतन प्रकृति और उसके से उत्पन्न 23 तत्त्व चेतनवत दिखने लगते हैं । प्रकृति त्रिगुणी है अतः उसके 23 तत्त्व भी त्रिगुणी ही होंगे । चूंकि पुरुष - प्रकृति संयोग के फलस्वरूप पुरुष  चित्त स्वरूपाकार हो जाता है अतः यह तीन गुणों के प्रभाव में रहने लगता है । पुरुष जो भी अनुभव करता है , वह चित्त आधारित होता है।

कारिका - 55 > बुढापा - मृत्यु आदि से उत्पन्न दुःखों का भोक्ता पुरुष है ।  जबतक पुरुष स्व एवं प्रकृति सहित उसके 23 तत्त्वों के बोध से लिङ्ग शरीर (23 तत्त्वों में 05 महाभूतों को छोड़ शेष 18 तत्त्वों के समूह को सांख्य लिंग शरीर या सूक्ष्म शरीर कहता है ) से निवृत्त नहीं हो जाता तब तक वह दुःखों को भोगता रहता है । 

कारिका : 59 - 60 > जैसे एक नर्तिकी नाना प्रकार के भावों - रसों से युक्त नृत्यको प्रस्तुत करके निवृत्त हो जाती है वैसे ही प्रकृति भी अपने को  पुरुषको दिखा कर निवृत्त हो जाती है । जैसे उपकारी व्यक्ति दूसरों पर उपकार करते हैं तथा अपने प्रत्युपकार की आशा नहीं रखते उसी तरह गुणवती प्रकृति भी अगुणी पुरुषके लिए उपकारिणी है और प्रत्युपकार की आशा नहीं रखती ।

कारिका - 61 > प्रकृति को जब यह बोध हो जाता है कि पुरुष उसे देख लिया है तब उसका पुरुष के प्रति आकर्षण समाप्त हो जाता है ।

कारिका : 66 > मैं प्रकृतिको देख लिया है - ऐसा सोच कर पुरुष प्रकृति की उपेक्षा करता है । मुझे पुरुष देख लिया है - इस सोच के कारण प्रकृति पुरुष से निवृत्त हो जाती है । ऐसी स्थिति में प्रकृति - पुरुष संयोग होने पर भी पुनः सृष्टि का  कोई प्रयोजन ही नहीं रह जाता।

कारिका : 67 - 68 > धर्म , अधर्म , अज्ञान , वैराग्य , 5 अवैराग्य , ऐश्वर्य और अनैश्वर - ये सात भाव मोक्ष के हेतु नहीं हैं  - ऐसा ज्ञान प्राप्ति के बाद भी ,पुरुष मुक्त नहीं होता , ऐसा क्यों है ? इसे समझें ⬇️

पुरुष कुम्हार की चाक की भांति है जो घड़ा तैयार हो जाने के बाद भी चलती रहती है क्योंकि वह आगे चलते रहने की ऊर्जा से युक्त होती है । आईएसआई तरह संस्कारों के कारण पुरुष मुक्त नहीं हो पाता । जब संस्कार भी क्षीण हो जाते हैं तब पुरुष प्रकृति निर्मित देह के बंधन से मुक्त हो कर कैवल्य प्राप्त कर लेता है ।  संस्कार से मुक्त होने के संबंध में पतंजलि योग सूत्र में संप्रज्ञात , असंप्रज्ञात और धर्ममेघ समाधियों को समझना होगा ।

कारिका : 62 > पुरुष न बद्ध है और न ही मुक्त है तथा न ही बहुत से आश्रयों से संसरण (एक जन्म से दूसरे जन्म में जाना )  करता है । प्रकृति अपनें 23 तत्त्वों से बद्ध होती है , मुक्त होती है और संसरण करती है ।

【यहां इतना ही , अगले अंक में प्रकृति -पुरुष संयोग से उत्पन्न बुद्धि तत्त्वको समझा जाएगा 】

~● ॐ ●~

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