1- तुम हाँ - ना पर टिकते हो वह भी पल भर के लिए , फिर जब टिकने की आदत ही नहीं ,उस परम असीम पर कैसे टिकोगे ? वह तो हाँ और ना के मध्य है जिसे न हाँ कह सकते न ना और हाँ - ना को नकार भी नहीं सकते , काम है , कठिन , पर करना तो पड़ेगा ही , चाहे कितनें और जन्म लेनें पड़े ।
2- मनुष्य योनि में ऐसा कोई न होगा जिसे कभीं उसका सन्देश किसी न किसी रूप में न मिलता हो लेकिन मायासे सम्मोहित मनुष्य उस परम - सन्देश की अनदेखी करता रहता है ।
3- कल दादा जी गए , वह भी देखा , आज अम्मा जी गयी वह भी देख रहा हूँ और कल हमारी भी बारी है जिसे हम न देख पायेंगे , वे देखेंगे जिनको अगले समय में जाना है , यह आवागमनका चक्र ही तो माया का विलास है ।
4- बहुत से लोग आते हैं गीता सुननें पर उनका मकसद सुनना नहीं होता ,सुनाना होता है , समय गुजारना होता है । प्रवचन सुननें के बाद भीड़ जब जानें लगती है तब उन लोगों के पीछे लग कर उनकी बातों को सुनना ; कोई कहता है , संतजी बहुत बढियाँ बोलते हैं , कोई कहता है ,क्या ख़ाक बोलये हैं ,इससे अच्छा तो वे बोलते थे जो इनसे पहले आये थे ,वे तो मेरे घर भी गए थे ।हम स्वयं को जगत गुरु समझते हैं और शंकराचार्य जैसे संतों की लम्बाई ,चौड़ाई और गहराई मापते रहते हैं । अब जरा सोचना ,ऐसी जब हमारी मानसिकता है तब हम क्या ख़ाक बदलेंगे और बिना बदले कुछ होनें वाला नहीं चाहे जो कर लो । 5- परमात्मा है या नहीं हैं - यह भ्रम लोगों को न मनुष्य की तरह रख पा रहा न जानवर की तरह और मनुष्य सम्पूर्ण जीवों का सम्राट होते हुए भी एक लाचार सा जीवन गुजार रहा है । मनुष्य बिचारा ,न भोग में रुक पाता है न योग में ; जब भोगमें उतरता है तब उसे योग खीचता है और जब योग में उतरता है तब भोग उसे सम्मोहित करता है ,मनुष्य भोग - योग के मध्य पेंडुलम सा लटक रहा है ।
6- सृष्टि से पहले और प्रलयके बाद , Big bang से पहले और ,Big crunch के बाद इन दोनों का द्रष्टा रूप में कौन होता है ?
7- Lao Tzu और शांडिल्य कहते हैं , " ब्यक्त करनें पर सत्य असत्य बन जाता है " और जे कृष्ण मूर्ति कहते हैं ," Truth is pathless journey" और हम परमात्मा की लम्बाई , चौड़ाई और ऊँचाई मापना चाहते हैं और दो कौड़ी के चार सड़े बतासे को उन्हें दिखा कर प्रसन्न करना चाहते हैं जिससे हमें भोग के वे साधन उपलब्ध हो जाएँ जो हमारे पास अभीं तक नहीं हैं ।परमात्मा क्या हमारे अन्तः करण को नहीं देखता होगा ? मनुष्य औरों को धोखा देते -देते इतना मज जाता है की बाद में अपनें को भी धोखा फेने लगता है और जब अपनें को धोखा दे दे पर मार चुका होता है तब पहुँचता है मंदिर ,वहाँ परमात्मा को लालच दिखा दिखा कर धोखा देता रहता है और एक दिन ----
8- न इधर का हो पाता है न उधर का और मनुष्य योनि से पहुँच जाता है पशु योनि में ।
9- आये तो थे प्रभु में बसेरा बनानें पर संसार में ब्याप्त माया निर्मित भोग का ऐसा सम्मोहन छाया कि भूल गए अपनें मूलको और पहुँच गए कहाँ ?
10- मनुष्य मात्र एक जीव है जिसके अन्दर किसी न किसी रूप में परमात्मा की सोच का बीज होता है। बीसवीं शताब्दी के महान मनोवैज्ञानिक सी . जी . जुंग कहते हैं , 40 साल की उम्र के ऊपर वाले लोगों में ऐसे को खोजना कठिन काम है जिसके दिमाक में प्रभु की सोच किसी न किसी रूप में न हो ।
~~ ॐ ~~
Thursday, July 10, 2014
कहाँ से कहाँ तक
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