# कभीं - कभीं ऐसा लगनें लगता है कि अब हम जिन्दा क्यों हैं ? और जो अभीं - अभीं इस संसार से जा रहे होते हैं , उनके न होनें पर दुख भी हो रहा होता है , आखिर ऐसा क्यों ? यह इसलिए हो रहा होता है कि हम जहाँ हैं इसके विपरीत हमारी दृष्टि जम जाती है , इस उम्मीदसे कि हो न हो वह ठीक हो । द्वैत्यकी उर्जा में लिपटा यह मनुष्य अपनें को एक पेंडुलम जैसा बना रखा है पर पेंडुलम से कुछ सीखता नहीं क्योंकि पेंडुलमके गतिका प्रारंभ और अंत जहाँ है वहाँ जो है वह समभाव है और समभाव में स्थित ब्यक्ति स्थिर प्रज्ञ होता है जिसकी आँखें प्रभुके प्यार से भरी होती
हैं ।
# जवानी में कदम रखते ही एक उबाल उठनें लगता है , कोई ऐसा ब्यक्ति जो अभीं - अभीं जवानी में कदम रखा हो और वह अपनें को दुनिया का सम्राट न समझता हो , ऐसा संभव नहीं लेकिन जवानी में देखे गए सारे सपनें एक - एक करके टूटते जाते हैं और वह ब्यक्ति जो आज लगभग 60 साल का हो चूका होता है , अपनें इस जीवनका एक अज्ञान द्रष्टा बना रह जाता है ।
# जो मिला है एक दिन उसे खोना होगा और मनुष्य पाना तो सारा संसार चाहता है पर खोना एक कौड़ी भी नहीं चाहता जो सम्भव नहीं । # एक बह रही दरिया में उसकी धारा के विपरीत जो बहना चाहेगा उसे दर्द तो होगा ही । हम प्रकृतिके विपरीत चलना चाहते हैं और यह हमारी चाह हमसे सुख छीन लेती है और हम कहीं एक कोने में बैठ कर किस्मत का इन्तजार कर रहे होते हैं ।क्या होगा इस रोने - धोने से ?
-- दुनिया का मेला --
Monday, June 30, 2014
कैसा रहा यह सफ़र
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