बुद्ध संन्यास देनें से पहले कहा करते थे ------
जाओ समसान पर छः महीनें रहो और तब आना .........
उन दिनों लोग ईमानदार हुआ करते थे , क्योंकि ------
संन्यास कोई ब्यापार न था , लोग सत को समझनें के लिए संन्यासी जीवन गुजारना चाहते थे ।
उन दिनों भोग के लिए था भी क्या ? साधारण भोजन और साधारण भेष - भूसा और स्त्री एवं बच्चों का संग ॥
उन दिनों सीमित भोग - साधन थे लेकीन फिर भी लोग गुफाओं में रह कर ध्यान किया करते थे और जब
उनको सत का पता लगता था तो चल पड़ते थे बस्तियों की ओर , लोगों को अपना अनुभव बाटनें
के लिए ॥
इधर मैं कुछ महीनों से सुबह और साम एक बहुत बड़े हस्पताल में जाता हूँ और देखता हूँ ,
संसार की गति को ॥
कहीं कोई आ रहा है ......
कहीं कोई जा रहा है .....
कहीं संगीत चल रहा है .....
कहीं आंसू टपक रहें हैं ......
लेकीन दोनों परिस्थितियों में एक बात सामान्य है .......
आनें वाला आना नहीं चाहता ----
जानें वाला जाना नहीं चाहता ,
और ......
आनेंवाला जब आता है , तब वह बेहोशी में होता है , आँखें बंद होती हैं ,
और .....
जो जा रहा है , वह भी बेहोशी में है , और ज्यादातर लोगों की आँखें भी बंद होती हैं या .....
लोग बंद कर देते हैं ॥
यह है प्रभु रचित संसार .....
जहां आना और जाना लगा हुआ है लेकीन कोई न आना चाहता है .....
और न कोई जाना चाहता है ॥
जिस दिन यह पता लग गया की न चाहते हुए भी ......
आना - जाना क्या है , समझो .....
सब मिल गया ॥
===== देखना तो पड़ेगा ही ====
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