क्या आप काशी तीर्थ - यात्रा पर जा रहे हैं ? यदि हां …
तो इस तीर्थ यात्रा को तीर्थ समागम में बदलने की जिज्ञासा गहरी होनी चाहिए। तीर्थ यात्रा पर निकलने से पहले तीर्थ यात्रा और तीर्थ समागम को समझ लें । तीर्थ शब्द संस्कृत धातु तॄ से बना है जिसका अर्थ होता है - तरना अर्थात संसार - सागर से पार ले जाना । इस प्रकार तीर्थ यात्रा का अर्थ हुआ मायामुक्त होने का मार्ग। अब तीर्थ समागम को समझ लेते हैं। तीर्थ यात्रा तीर्थ तक पहुंचा कर तीर्थ में लीन हो जाती है। तीर्थ में पहुंचने के साथ तीर्थ समागम प्रारंभ हो जाना चाहिए। समागम शब्द का अर्थ है मिलन, संयोग या जुड़ना। जैसे अंधेरे में पड़े वस्तु को देखने के लिए दीपक की रोशनी चाहिए वैसे त्रिगुणी माया के अंधेरे में स्थित निर्गुणी के दर्शन के लिए तीर्थ समागम से प्राप्त रोशनी की आवश्यकता पड़ती है।
तीर्थ समागम निम्न तीन स्तरों पर घटित होता है…
भौतिक स्तर पर तीर्थ स्थल में होने पर अपने सभी द्वारों को खोज देना चाहिए जिससे तीर्थ क्षेत्र की दिव्य ऊर्जा बाहर से अंदर भरने लगे , लेकिनयह कैसे संभव है ? इस प्रश्न के साथ दूसरा स्तर प्रारंभ होता है जिसे साधनात्मक स्तर कहते हैं । तीर्थ क्षेत्र में देव पूजन करना , संतो की संगति करना और शास्त्रों पर हो रही चर्चाओं में ऐसे डूब जाना जिससे आपका अतः कारण ( मन , बुद्धि और अहंकार ) पूर्ण रूप से शून्य होने लगे । जब ऐसा लक्षण दिखानेंलगे तब इस स्थिति के साथ तीसरा स्तर - आध्यात्मिक स्तर प्रारंभ होता है। भौतिक स्तर और साधनात्मक स्तर की सिद्धि प्राप्त हो जाने के बाद तीर्थ यात्री , यात्री नहीं रह जाता , वह तीर्थमुखी रहने लगता है और तीर्थ की दिव्य ऊर्जा में वैसे घुलने लगता है जैसे पानी में नमक का टुकड़ा घुलता है।
जब उसका तीर्थ - आगमन हुआ था , उस समय वह त्रिगुणी माया में डूबा हुआ एक यात्रा था लेकिन तीर्थ समागम से वह त्रिगुणी न रह कर केवल सत् गुणी रह जाता है । इस अवस्था में उनके चित्त में केवल और केवल सात्त्विक गुणों की वृत्तियों का आवागमन बना रहता है । धीरे - धीरे वह भी स्थिति आती है जब वह इस सात्त्विक गुण की वृत्तियों से भी मुक्त हों जाता है। फिर क्या होता है ? रह - रह कर वह समाधि में उतरने लगता है । जैसे - जैसे समाधि सघन होती जाती है तब उसे उस काशी में मूल काशी दिखने लगती है । निराकार , उसके लिए साकार दिखने लगता है और वहां की दिव्य ऊर्जा सिद्धों के रूप में उसे साधना की उच्च भूमियों में पहुंचनें में मदद करने लगती है और इस प्रकार वह स्वयं तीर्थ बन जाता है ।
ध्यान रखना किसी तीर्थ में दो प्रकार से जाना होता है ; एक वह जाना होता है जैसे हम - आप साल में कई बार आते - जाते रहते हैं अर्थात काशी गए , गंगा नहाए , पूजा अर्चना की और लौट आए अपनें परिवार में । यह हमारा तीर्थ पर जाना वैसे ही होता है जैसे अन्य गृहस्थी की क्रियाएं होती रहती है । हम बार - बार जाते - आते रहेंगे और यह क्रम जीवन भर चलता रहता है ।
दूसरा जाना तब होता है तब तीर्थ स्वयं बुलाता है । घर - गृहस्थी के गहरे अनुभव से वैराग्य भाव भरने लगता है । जब यह वैराग्य भाव सघन हो जाता है तब उस व्यक्ति को तीर्थ बुलाता है और वह व्यक्ति अपनी बस्ती में फिर नहीं लौटता।
ध्यान रखें ! तीर्थ यात्रा पर निकलना कोई मनोरंजन नहीं , यह कोई साधारण घटना भी नहीं , क्या पता आपको तीर्थ बुलाया हो !
~~ ॐ ~~