Monday, January 27, 2025

पतंजलि योग सूत्र दर्शन में अष्टांगयोग का चौथा अंग प्राणायाम भाग - 1


पतंजलि  योगदर्शन में अष्टांगयोग 

भाग - 04 .1 > अष्टांगयोगका चौथा अंग प्राणायाम

  श्वास रहस्य 

पतंजलियोग दर्शन के अष्टांगयोग के 08 अंगों में से अभी तक यम के 05 तत्त्वों (अहिंसा , सत्य , अस्तेय , ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ) , नियम के 05 तत्त्वों ( शौच , संतोष , तप , स्वाध्याय , ईश्वर प्रणिधान ) का गृहस्थ जीवन में क्रमशः अभ्यास एवं पालन करने का अभ्यास किया गया तथा इनके साथ आसान का भी अभ्यास किया गया । 

अष्टांगयोग की साधना परिधि ( त्रिगुणी शरीर  ) से केंद्र ( स्व बोध अर्थात त्रिगुणी शरीर में स्थित  निर्गुणी पुरुष ) की अनुभूति  की यात्रा है । इस यात्रा के 08 तत्त्व हैं जिनमें प्रथम दो तत्त्वों ( यम , नियम ) की यात्रा कर्म यात्रा के  संग चलती है और आगे की 06 शेष तत्त्वों की यात्राएं स्थिर शरीर द्वारा एक आसान में बैठ कर की जाती हैं ।

 अष्टांगयोग में आसन , प्राणायाम , प्रत्याहार , धारणा , ध्यान और संप्रज्ञात समाधि के योगाभ्यास में आसान , प्राणायाम और प्रत्याहार में श्वास - प्रश्वास आलंबन होते हैं और आगे धारणा , ध्यान एवं संप्रज्ञात समाधि का आलंबन कोई भी सात्त्विक आलंबन हो सकता है । 

पतंजलि अष्टांगयोग का चौथा एवं पांचवां अंग ( प्राणायाम - प्रत्याहार ) मूलतः श्वास आलंबन आधारित हैं अतः श्वास संबंधित साधना के संबंध में निम्न  बातों को भी समझ लेना चाहिए जिससे अगले अंक में पतंजलि के प्राणायाम को सरलता से समझा जा सके।

1- बुद्ध कहते हैं … बिना किसी रुकावट नियमित  01 घंटा प्रतिदिन अपनी श्वास - प्रश्वास पर ध्यान करने के अभ्यास से निर्वाण प्राप्त किया जा सकता है ।

बुद्ध का आनापानसति ध्यान सिद्धि से  हजारों बौद्ध भिक्षुक कैवल्य प्राप्त किए हैं । आनापानसति , आन , अपान और सति शब्दों से बना है जिनका क्रमशः अर्थ है - श्वास लेना , श्वास छोड़ना और दोनों के साथ बने रहना । यह शब्द पाली भाषा का शब्द है ।

2- गरुण पुराण कहता है …. 24 घंटों में एक स्वस्थ्य मनुष्य को 21600 श्वास लेनी चाहिए अर्थात 16 श्वास प्रति मिनट ।

3- वैज्ञानिक कहते हैं , एक स्वस्थ्य मनुष्य को 24 घंटों में 23000 श्वास लेनी चाहिए अर्थात 15 श्वास प्रति मिनट ।

4- श्रीमद्भगवद्गीता श्लोक 4.30 में प्राणायाम की चर्चा है ।

5- विज्ञान भैरव तंत्र में श्वास - प्रश्वास आधारित 112 ध्यान विधियों का वर्णन दिया गया है । विज्ञान भैरव तंत्र में भगवान शिव मात पार्वती को निर्वाण प्राप्ति के उपायों में इन विधियों के अभ्यास करने की बातें बताते हैं।

6- वेद , उपनिषद , महाभारत , श्रीमद्भगवद्गीता , श्रीमद्भागवत पुराण एवं अन्य सभी शास्त्रों में श्वास- प्रश्वास आधारित ध्यान विधियों की चर्चाएं हैं।

अब श्वास रहस्य समझने के साथ अगले अंक में पतंजलि का प्राणायाम देखा जायेगा …

।।। ॐ ।।।

Thursday, January 23, 2025

पतंजलि योगसूत्र के अष्टांगयोग का तीसरा अंग आसान


पतंजलि योग दर्शन में अष्टांगयोग 

भाग - 03 आसन

पिछले दो  भागों में पतंजलि योग दर्शन में अष्टांग योग के 08 तत्त्वों की परिभाषाओं तथा प्रारंभिक दो तत्त्वों - यम एवं नियम को देखा गया और अब इस अंक में आसन की साधना को समझते हैं …

महर्षि पतंजलि साधनपाद सूत्र - 46 में कहते हैं ….

स्थिर सुखं आसनम् , अर्थात , शरीर की जिस मुद्रा में बैठने पर शारीरिक - मानसिक स्थिर सुख मिलता हो ,उसे आसन कहते हैं । 

महर्षि पतंजलि की अष्टांगयोग साधना अभ्यास में यम और नियम से आगे आसन , प्राणायाम , प्रत्याहार , धारणा , ध्यान और समाधि की साधनाओं में प्रत्याहार से समाधि तक की साधनाएं आसन - साधना पर आधारित होती हैं अतः आसन सिद्धि , अष्टांगयोग साधना की सिद्धि में एक बुनियादी साधना है । 

योग साधना के लिए संध्या बेला उपयुक्त समय होता है । सूर्योदय एवं सूर्यास्त के ठीक पहले का समय , संध्या  बेला है, जहां न दिन होता है और न रात और जहां दिन और रात। साधना किसी जल श्रोत जैसे जलाशय या नदी के तट पर करने से सिद्धि शीघ्र मिलती है।साधना जिस स्थान पर की जाय वहां की भूमि समतल एवं विघ्नमुक्त होनी चाहिए। 

पहले जमीन पर कोई बिछावन बिछा कर सूर्य मुखी हो कर आसान ग्रहण करना चाहिए । बिछावन कुशा की बनीं चटाई या कंबल आदि ही सकते हैं । यदि कुश की चटाई हो तो उसे ऐसे बिछाएं जिससे खुश के नोकीले भाग पूर्वमुखी रहें । साधना में शरीर तनाव मुक्त बने रहना चाहिए। आँखें तीन चौथाई बंद होनी  चाहिए। अपनें शरीर से गज भर से अधिक दूरी पर दृष्टि नहीं होनी चाहिए। 

आसन साधना में उतरने के बाद जब चित्त व्याकुल होने लगे और ऐसा लगने लगे कि उस क्षेत्र की ऊर्जा आपको स्वीकार नहीं कर रही तब आपको उस स्थान को छोड़ कर कहीं कोई और स्थान की तलाश करनी चाहिए। सभीं स्थान सकारात्मक और नकारात्मक ऊर्जा के क्षेत्र हैं ; जहां नकारात्मक ऊर्जा प्रभावी रहती है वहां साधना करना संभव नहीं और जहां सकारात्मक ऊर्जा प्रभावी रहती है वहां की जा रही साधना शीघ्र फलित होती है । योगाभ्यास किसी जल श्रोत पर करनी चाहिए जैसे कोई नदी या जलाशय। जहां भी योगाभ्यास करें वह स्थान एकांत होना चाहिए । जबतक आसान की सिद्धि नहीं मिलती , प्राणायाम की साधना प्रारंभ नहीं करनी 

चाहिए । आसन अभ्यास में शरीर के बाह्य अंगों एवं आंतरिक अंगों में चल रही घटनाओं पर केंद्रित रखना चाहिए लेकिन उन घटनाओं से प्रभावित नहीं होना चाहिए । श्वास संबंधित बीमार व्यक्ति के लिए पतंजलि अष्टांगयोग का अभ्यास नहीं करना चाहिए । 

आसन सिद्धि मिलने के साथ अष्टांगयोग के अगले अंग प्राणायाम का अभ्यास प्रारंभ करना चाहिए जिसे अगले अंक में देखा जा सकता है । 

।। ॐ ।।

Friday, January 17, 2025

पतंजलि अष्टांग योग के प्रारंभिक दो अंग



पतंजलि योग दर्शन में अष्टांगयोग 

भाग - 02 , यम एवं नियम 

पिछले अंक में पतंजलि अष्टांगयोग के निम्न अंगों की परिभाषाओं को देखा गया और अब यहां इन अंगों में से प्रथम दो अंगों - यम और नियम को समझते हैं …

यम के 05 तत्त्व 

अपनें दैनिक जीवन में यम के पांच तत्त्वों -  अहिंसा , सत्य , अस्तेय , ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का अभ्यास करते रहना चाहिए । अष्टांगयोग साधना की पहली सीढ़ी यम है अतः पूरे होश में इन पांच तत्त्वों का अभ्यास करते रहना है ।

तन और मन से किसी जड़ - चेतन को हानि न पहुँचाने का भाव , अहिंसा है ।

जो जैसा है , उसे ठीक वैसे समझना , सत्य है।

सत्य सिद्धि प्राप्त योगी की क्रियाएं और उनके फल उसके नियंत्रण में होते हैं अर्थात ऐसे योगी के कर्म और उनके फल उसके नियंत्रण में होते हैं । 

चोरी न करने के भाव में स्थिर रहना , अस्तेय है ।

 ब्रह्मचर्य सिद्धि प्राप्त योगी को वीर्य लाभ मिलता है अर्थात उसके पास असीमित ऊर्जा होती है ( साधन पाद सूत्र - 38 ) ।

अपरिग्रह का अर्थ है भोग वस्तुओं का संग्रह न करना । अपरिग्रह सिद्ध योगी केवल जिज्ञासा मात्र से अपनें जन्म के बिषय में जान लेता है अर्थात ऐसा योगी यह जानता है कि उसे अपनें वर्तमान जीवन में क्या करना है ( साधनपाद सूत्र - 39 )।

नियम के 05 तत्त्व 

नियम तत्त्वों का जीवन में पालन करते रहना चाहिए ।

शौच - शौच का अर्थ है , निर्मलता ; तन और अंतःकरण की निर्मलता।आतंरिक शौंच सिद्धि से निम्न 05 योग्यताएँ मिलती हैं (साधनपाद सूत्र - 41 )...

1 - बुद्धि निर्मल होती है , 2 - मन शांत रहता है , 3 - एकाग्रता साधना में सहयोग मिलता है , 4 - इंद्रियों पर पूर्ण नियंत्रण रहता है और 5 - आत्म दर्शन में मदद मिलती है ।

 संतोष - कामना मुक्त होना ही संतोष है । संतोष से सर्वोच्च लाभ मिलता है ( साधनपाद सूत्र - 42 )

 तप - काया इन्द्रिय सिद्धि : अशुद्धि क्षयः तपः 

काया  और इंद्रियों की निर्मलता बनाए रखने के लिए जो किया जाय उसे तप कहते हैं (साधनपाद सूत्र - 43 )।

 स्वाध्याय - चित्त वृत्तियों का भावातीत अवस्था में दर्शक बने रहना , स्वाध्याय है । स्वाध्याय सिद्धि से इष्ट देवता से मिलना होता है 

(साधनपाद सूत्र - 44 ) । इष्ट देवता योग की उच्च भूमियों में पहुंचने में मदद करते हैं ।

ईश्वर प्रणिधान - ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण भाव का होना , ईश्वर प्रणिधान है ।  ईश्वर के सम्बन्ध में पतंजलि समाधि पाद सूत्र : 23 - 29 तक को देखना चाहिए । प्रणव को पतंजलि ईश्वर का संबोधन मानते हैं। 

पतंजलि का ईश्वर क्या है ? 

पतंजलि का ईश्वर ( प्रणव )  है जिसका जाप करने से चित्त की वृत्तियाँ शांत होती हैं और योग साधना में आने वाली सभीं बाधाएं दूर होती हैं  ।

 ईश्वर क्लेश , कर्म , कर्मफल और चित्त से अछूता  है । यह सनातन , सर्वश्रेष्ठ , पूर्व में  उत्पन्न सभीं गुरुओं का गुरु है और सर्वज्ञता का बीज है। ईश्वर प्रणिधान से सम्प्रज्ञात समाधि मिलती है (साधनपाद सूत्र - 45 ) 

।।।। ॐ।।।

Wednesday, January 15, 2025

पतंजलि योगसूत्र दर्शन का अष्टांगयोग


पतंजलि योग दर्शन में अष्टांगयोग 

भाग - 01

अष्टांगयोग संबंधित पतंजलि के सूत्र …..

1.साधनपाद सूत्र : 30 , 32 , 35 - 46 , 49 - 54 योग > 20 

2.विभूतिपाद के सूत्र : 1 - 3 योग > 03 

कुल सूत्र > 23

इस अंक में महर्षि पतंजलि योगसूत्र दर्शन में अष्टांगयोग साधना के 08 अंगों की परिभाषाओं से हम परिचित हो रहे हैं और अगले अंक में इन अंगों की परिभाषाओं पर विस्तार से चर्चा की जाएगी। 

यम , नियम , आसन , प्राणायाम , प्रत्याहार , धारणा , ध्यान और समाधि , अष्टांगयोग के 08 अंग हैं । निरंतर बिना किसी रुकावट इन 08 तत्त्वों की साधना सिद्धि से साधक को स्व बोध होता है जिससे वह समझने लगता है कि मैं कौन हूं ? , कहां से आया हूं ? क्यों आया हूं ? और इस प्रकार वह अविद्या से मुक्त हो , ज्ञान माध्यम से कैवल्य प्राप्त करता है । 

सांख्य दर्शन में तीन प्रकार के दुःखों से अछूता रहने के लिए एक मात्र उपाय तत्व ज्ञान है और सांख्य दर्शन , पतंजलि योग दर्शन का आधार है। पुरुष प्रकाश से  विकृत हुई मूल प्रकृति से उत्पन्न 23 तत्त्वों एवं मूल प्रकृति - पुरुष का बोध ही तत्त्व ज्ञान है। 

अब अष्टांगयोग के 08 अंगों की परिभाषाओं को देखते हैं ….

1 - यम  (साधनपाद : 30 , 35 - 39 )

अहिंसा , सत्य , अस्तेय , ब्रह्मचर्य , अपरिग्रह , ये यम के 05 अंग हैं । यम अंगों का अपनें दैनिक जीवन में अभ्यास करना होता है । 

2 - नियम (साधनपाद सूत्र : 32 , 40 - 45 )

शौच संतोष तपः स्वाध्याय 

ईश्वर प्रणिधानानि नियमाः 

शौच , संतोष , तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान, ये पांच नियम के अंग हैं । इन नियम केअंगों का पालन अपनें दैनिक जीवन में पालन करना होता है ।

3 - आसन (साधनपाद सूत्र - 46 )

स्थिर सुखं आसनम् " 

जिस मुद्रा में बैठने पर शारीरिक और मानसिक स्थिर सुख मिलता हो , उसे आसान कहते हैं ।

4 - प्राणायाम (पतंजलि साधनपाद सूत्र - 49 )

तस्मिन् सति श्वास प्रश्वास गति विच्छेद प्राणायाम

आसन की सिद्धि में स्वास एवं प्रश्वास का स्वयं रुक जाना और चित्त का देश - काल के प्रभाव से मुक्त हो जाना , प्राणायाम है ।

5 - प्रत्याहार (पतंजलि साधनपाद सूत्र - 54 )

स्व विषय असंप्रयोगे चित्त स्वरूप अनुकार इव इन्द्रियाणाम् 

प्रत्याहार: ।।

आसन एवं प्राणायाम सिद्धि मिलने पर पञ्च ज्ञान इंद्रियां विषय मुखी न  रह कर चित्त मुखी हो जाती हैं अर्थात इंद्रियों का रुख उल्टा हो जाता है जिसे कबीर दास कहते हैं कि अपनें पुतलियों को उल्टा कर दो ।

 आसन ,प्राणायाम और प्रत्याहार की सिद्धि मिल जाने पर चित्त राजस एवं तामस गुणों की वृत्तियों से मुक्त हो कर सात्त्विक गुण की वृत्तियों से परिपूर्ण रहने लगता है ।

6 - धारणा (विभूति पाद सूत्र : 1 )

<> देश बंध: चित्तस्य , धारणा <>

किसी सात्त्विक आलंबन से चित्त को बाध कर रखने का अभ्यास , धारणा है ।

7 - ध्यान (विभूति पाद सूत्र : 2 )

<> तत्र , प्रत्यय , एकतानता , ध्यानम् <>

धारणा का लंबे समय तक बने रहना , ध्यान कहलाता है ।

8 - समाधि  (विभूति पाद सूत्र : 3 )

<> तत् एव अर्थ मात्र निर्भासं स्वरुपशून्यम् इव समाधि < >

ध्यान में जब आलंबन का स्वरूप क्रमशः सूक्ष्म होते - होते लगभग शून्य हो जाता है और केवल अर्थ मात्र निर्भासित रहता है , तब इस अस्वस्थ को संप्रज्ञात या सविकल्प समाधि कहते हैं । 

यहां ध्यान रखा होगा कि आलंबन के तीन अंग होते हैं - शब्द , अर्थ और ज्ञान । शब्द स्थूल आलंबन है जिसका संबंध 05 ज्ञान इंद्रियों से है । उसी आलंबन की अर्थ रूप में सूक्ष्म अवस्था का संबंध , मन से होता है और उसी आलंबन के अति सूक्ष्म ज्ञान रूपी अवस्था का संबंध बुद्धि से होता है ।

## ॐ ##