Monday, September 1, 2025

कर्म से ज्ञान और ज्ञान से कैवल्य की यात्रा मार्ग का नाम उपासना है


       

संदर्भ : श्रीमद्भागवत पुराण 11.21.35 

             श्रीमद्भगवद्गीता : 3.5 , 3.27 , 3.28 

कोई भी जीवधारी पल भर के लिए भी कर्म मुक्त नहीं रह सकता , कर्म तो करते ही रहना हैं क्योंकि कर्म करता , हम नहीं , हमारे अंदर हर पल बदल रहे तीन गुण हैं और हमारे अंदर कर्म  करता का भाव अहंकार की उपज है। गुण विभाग और कर्म विभाग को समझते हुए ज्ञानी दृष्टा भाव में कर्म बंधनों से अप्रभावित रहते हुए कर्म करते रहते हैं। 

श्रीमद्भगवद्गीता में सकाम और निष्काम - दो प्रकार के कर्म बताए गए हैं और वेदों में प्रवृत्ति परक एवं निवृत्ति परक दो प्रकार के वैदिक कर्म बताए गए हैं । आसक्ति , कामना , काम , क्रोध , लोभ ,मोह ,भय , आलस्य और अहंकार , कर्म बंधन या कर्म तत्त्व हैं । जब कर्म होने का कारण कर्म बंधन होते हैं तब उस कर्म को सकाम या प्रवृत्ति परक कर्म कहते हैं और इसके विपरीत जो कर्म होते हैं अर्थात कर्म बंधनों से अप्रभावित रहते हुए जो कर्म होते हैं , उन्हें निष्काम या निवृत्ति परक कर्म कहते हैं ।

वेदों में तीन काण्ड  हैं - कर्म , उपासना और ज्ञान । कर्म के संबंध में ऊपर बताया जा चुका है । कर्म से ज्ञान की यात्रा का नाम है उपासना जिसे अभ्यास योग भी कह सकते हैं। कर्म करते हुए कर्म बंधनों को समझने का अभ्यास उपासना है । जब उपासना फलित होती है तब तीन गुणोंमें से राजस एवं तामस गुणोंकी वृत्तियों से मुक्त रहते हुए अंतःकरण ( मन , बुद्धि और अहंकार ( सात्त्विक गुणों की वृत्तियों पर केंद्रित रहने लगता है। जब यह अवस्था और सघन होती जाती है तब संप्रज्ञात ( साकार या सविकल्प) समाधिघटने लगती है। जब सात्त्विक गुण से भी अंतःकरण मुक्त हो जाता है तब असंप्रज्ञात ( निराकार या निर्विकल्प ) समाधि घटने लगती है और इस अवस्था में ज्ञान की ऊर्जा अंतःकरण में भरने लगती है। ज्ञानी सत्य और असत्य को स्पष्ट रूप से देखने लगता है।

चार वेदों में से जब किसी एक वेद के माध्यम से साधना - अभ्यास किया जाता है तब कर्म से उपासना और उपासना से ज्ञान की प्राप्ति होती है। ज्ञान कैवल्यमुखी बनाए रखता है ।


Monday, August 18, 2025

बूढ़ा केदार की यात्रा



केदार नाथ से बूढ़ा केदार की यात्रा 

यात्रा मार्ग ⤵️

स्थान

दूरी km 

ऊंचाई 

केदारनाथ

00

3583

सोनप्रयाग

20

1829

त्रियुगी नारायण

15

1980

पन्वाली काँठा 

12

2900

घत्तु - हठकुणी

10

विनयखाल - 

बूढ़ा केदार

15

1340

योग

 (4-5 दिन की यात्रा )

72 km 


2243 m उतराई @ 31m/km 


बूढ़ा केदार मंदिर के पुजारी जब देह त्यागते हैं तब उन्हें मंदिर परिसर में ही  भूमि समाधि दी जाती है। बूढ़ा केदार के  पुजारी , नाथ संप्रदाय के राजपूत (कान छिदे हुए) होते है न कि ब्राह्मण। बूढ़ा केदार क्षेत्र के लोग केदारनाथ दर्शन करने नहीं जाते।

 टिहरी झील से 40 km घमसाली है जहां से जीप द्वारा लगभग 2 घंटे की 20 - 25 km की यात्रा , बूढ़ा केदार की है।   बाल गंगा नदी के समानांतर घमसाली से उत्तर - पश्चिम दिशा में बूढ़ा केदार का मंदिर बालगंगा एवं धर्म गंगा संगम पर स्थित है। केदारनाथ मंदिर हरिद्वार से लगभग 215km सड़क मार्ग से तथा लगभग 20 km की चढ़ाई की यात्रा है । यह मंदाकिनी के तट पर स्थित है । बूढ़ा केदार में रुकने के लिए सीमित धर्मशालाएँ उपलब्ध है।

केदारनाथ से बूढ़ा केदार के यात्रा मार्ग का विस्तृत विवरण ⤵️

1.यात्रा केदारनाथ मंदिर से दक्षिण - पश्चिम दिशा में स्थित सोनप्रयाग की खड़ी उतराई से प्रारंभ होती है।

2. सोनप्रयाग से आगे त्रिजुगीनारायण पहुंचते। सोनप्रयाग से त्रिजुगीनारायण तक का मार्ग घने जंगलों और ढलानों से होकर गुजरता है। यह स्थान एक प्राचीन विष्णु मंदिर के लिए प्रसिद्ध है और पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, यह स्थान शिव-पार्वती विवाह का स्थान है ।

3.त्रिजुगीनारायण से पंवाली कांठा की चढ़ाई शुरू होती है। यह मार्ग का सबसे दुर्गम हिस्सा है, जहाँ खड़ी चढ़ाई , खड़ी ढलान और संकरे रास्ते हैं। मौसम साफ होने पर यहाँ से हिमालय के शानदार दृश्य दिखाई देते हैं।

4.पंवाली कांठा से उतरकर घुत्तू गाँव पहुँचते हैं, जिसके आगे  हटकुणी गाँव आता है जहां स्थानीय घरों में आवास या भोजन की सुविधा उपलब्ध है।

5.हटकुणी से विनयखाल होते हुए बूढ़ा केदार मंदिर पहुंचते हैं । 


यात्रा की प्रमुख चुनौतियाँ और सुझाव

अप्रैल-जून में बर्फबारी से रास्ता कठिन हो जाता है। पंवाली कांठा दर्रा विशेष रूप से खतरनाक है। यात्रा में 4-5 दिन लगते हैं। अनुभवी ट्रेकर्स या स्थानीय गाइड के साथ समूह में यात्रा करनी चाहिए। आवश्यक सामान (टेंट, राशन, फर्स्ट-एड किट) साथ ले जाएँ। मई-जून और सितंबर-अक्टूबर उपयुक्त महीने हैं। जुलाई-अगस्त (मानसून) में भूस्खलन और सर्दियों में भारी बर्फबारी से बचें ।

 रास्ते में आवास और भोजन की सीमित सुविधाएँ हैं। बूढ़ा केदार में शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाओं का अभाव है। 

मार्ग के धार्मिक और प्राकृतिक आकर्षण

मान्यता है कि इस मार्ग से पांडव स्वर्गारोहण के लिए गए थे और बूढ़ा केदार में शिव ने उन्हें वृद्ध संन्यासी के रूप में दर्शन दिए थे । बूढ़ा केदार के दर्शन के बिना केदारनाथ यात्रा अधूरी मानी जाती है। यात्रा के दौरान महासर ताल, सहस्त्र ताल जैसी झीलें और बालखिल्य ऋषि आश्रम भी देखना चाहिए । बालगंगा-धर्मगंगा का संगम अद्भुत दृश्य प्रस्तुत करता है। बूढ़ा केदार को  पांचवाँ धाम कहा जाता है, क्योंकि यह यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ के मध्य स्थित है । 

स्थानीय लोग अक्सर केदारनाथ की बजाय बूढ़ा केदार के दर्शन को ही पर्याप्त मानते हैं, क्योंकि यहाँ के शिवलिंग की महत्ता केदारनाथ के समान है । यह यात्रा धार्मिक श्रद्धा और प्राकृतिक साहसिकता का अनूठा संगम है, लेकिन इसे केवल अनुभवी पैदल यात्रियों या स्थानीय गाइड की सहायता से ही करना उचित है। यात्रा ग्रुप में करनी चाहिए। 

प्राचीन काल में यह केदारनाथ जाने का प्रमुख मार्ग था। 

बूढ़ा केदार मंदिर परिसर में 18 फीट गहरा कुआँ है, जिसके जल से गौमय की गंध आती है ।  इस कुआं को भोलागंगा कूप या गौमुख कूप भी कहा जाता है। 

पानी से आने वाली गौमय (गोबर जैसी ) गंध के बारे में कुछ प्रमुख बातें ….

भूगर्भीय दृष्टिकोण से, उत्तराखंड का यह क्षेत्र युवा हिमालय पर्वतमाला में स्थित है, जहाँ विभिन्न प्रकार की चट्टानें और खनिज मौजूद हैं। ऐसा संभव है कि कुएँ के जलस्रोत में सल्फर (गंधक) या अन्य खनिजों की अधिक मात्रा मौजूद हो , हाइड्रोजन सल्फाइड (H₂S)जैसी गैसें, जो प्राकृतिक रूप से कुछ भूमिगत जलस्रोतों या ज्वालामुखीय क्षेत्रों में पाई जाती हैं जो सड़े हुए अंडे या गोबर जैसी तीखी गंध पैदा करती हैं। पानी में कार्बनिक पदार्थों के विघटन से भी ऐसी गंध उत्पन्न हो सकती है, विशेषकर अगर जल प्रवाह धीमा हो या स्रोत सीमित हो। मान्यता है कि इस कुएँ का पानी अमृततुल्य है और इसका सेवन करने से पापों का नाश होता है तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है। श्रद्धालु इस पानी को पीते हैं और अपने साथ ले जाते हैं। यह गंध उनके लिए इसकी पवित्रता और दिव्यता का प्रमाण होती है। 


गंध का वास्तविक कारण की वैज्ञानिक संभावना

यह गंध स्थानीय भूगर्भीय विशेषताओं  का परिणाम है।

 भूजल में हाइड्रोजन सल्फाइड (H₂S)गैस मिलने पर सड़े अंडे या गोबर जैसी तीखी गंध आती है। उत्तराखंड के कई हॉट स्प्रिंग्स (जैसे सूरतकुंड, गरम पानी) में यह गंध मिलती है। सीमित भूमिगत जलभृत में कार्बनिक पदार्थों (पत्तियाँ, मिट्टी) के सड़ने से भी ऐसी गंध उत्पन्न हो सकती है। चूना पत्थर (लाइमस्टोन), शेल या जिप्सम युक्त चट्टानों के संपर्क में आने वाला जल कभी-कभी अजीब गंध देता है।

इस संबंध में निम्न दो अन्य उदाहरण भी देखें ..

  1.हरिद्वार के हर की पौड़ी के जल में भी कभी-कभी विशिष्ट गंध आती है, जिसका कारण जैविक/खनिज तत्व हैं, पर श्रद्धालु इसे गंगा की पवित्रता मानते हैं।

  2.प्रयागराज में भारद्वाज कूप  के पानी में भी सल्फर गंध है, जिसे पवित्र माना जाता है।

।। ॐ ।। 

Friday, August 8, 2025

एक अमेरिकन लड़की का नंदा देवी पर्वत से क्या संबंध रहा होगा !


अमेरिकन नंदा देवी लड़की भारत की नंदा देवी शिखर में समा गई , कैसे ! देखिए यहां ⤵️



अमेरिका में जन्मी नंदा देवी अनसोएल्ड (Nanda Devi Unsoeld) का संबंध भारत के नंदा देवी पर्वत के साथ एक दुखद घटना से है।

 उनके पिता, विली उनसोएल्ड (Willi Unsoeld , जिनकी फोटो ऊपर दी गई है ) , एक प्रसिद्ध अमेरिकन पर्वतारोही थे, जिन्होंने 1963 में माउंट एवरेस्त के पश्चिमी रिज से पहली बार सफल चढ़ाई की थी। इनका भारत की नंदा देवी पर्वत से इतना प्यार था कि उन्होंने अपनी बेटी का नाम नंदा देवी रख दिया था । दरअसल सन् 1949 में वे खुद नंदा देवी पर्वत के अध्ययन अभियान में शामिल हुए थे। सन् 1976 में, विली अनसोएल्ड ने अपनी बेटी नंदा देवी को लेकर नंदा देवी पर्वत के एक अभियान में भाग लिया। इस दौरान उनकी 22 वर्षीय नंदा देवी देती को अल्टीट्यूड सिकनेस (ऊंचाई की बीमारी) के गंभीर लक्षण दिखाई दिए। उनके शरीर में जन्मजात एक गुर्दे की समस्या (किडनी की असामान्य स्थिति) थी, जिसके कारण ऊंचाई पर शरीर में तरल पदार्थों का संतुलन बिगड़ गया। हालांकि टीम ने उन्हें नीचे लाने की कोशिश की, लेकिन 1 नवंबर 1976 को बन्द देवी चढ़ाई में उनकी मृत्यु हो गई। 

उच्च हिमालयी क्षेत्रों में मृतकों के शवको नीचे लाना अक्सर संभव नहीं होता। इसलिए, नंदा देवी के शव को पर्वत की गोद में ही छोड़ दिया गया। इस तरह, वह सदियों से पूजे जाने वाले इस पवित्र पर्वत का हिस्सा बन गईं। कई लोग इसे आध्यात्मिक संयोग मानते हैं कि जिस पर्वत के नाम पर उनका नाम रखा गया था, उसी में उनकी अंतिम विश्रामस्थली बनी।

नंदा देवी पर्वत को स्थानीय लोग देवी का निवास मानते हैं और इसे पवित्र समझा जाता है। इस घटना ने पर्वतारोहण जगत में गहरी छाप छोड़ी, क्योंकि यह एक पिता-पुत्री के रिश्ते और प्रकृति की निर्ममता की मार्मिक कहानी है। इस प्रकार, नंदा देवी उनसोएल्ड का जीवन और मृत्यु नंदा देवी पर्वत के साथ एक अद्वितीय और भावनात्मक कड़ी बन गई। 

उत्तराखंड में नंदा देवी राज जात यात्रा संभवतः संसार की सबसे बड़ी धार्मिक यात्रा होगी जो हर 12 वर्ष में एक बार निश्चित समय में मनाई जाती है । इस यात्रा में Nauti गांव से पैदल यात्रा होमकुंड में जा कर समाप्त होती है । इस यात्रा का संबंध नंदा को मायके से  ससुराल (कैलाश ) भेजने से है ।

।।। जय मां नंदा देवी ।।।।


Sunday, July 13, 2025

क्या आप काशी तीर्थ यात्रा पर जा रहे हैं


क्या आप काशी तीर्थ - यात्रा पर जा रहे हैं ? यदि हां …

तो इस तीर्थ यात्रा को तीर्थ समागम में बदलने की जिज्ञासा गहरी होनी चाहिए। तीर्थ यात्रा पर निकलने से पहले  तीर्थ यात्रा और तीर्थ समागम को समझ लें । तीर्थ शब्द संस्कृत धातु तॄ से बना है जिसका अर्थ होता है - तरना अर्थात संसार - सागर से पार ले जाना । इस प्रकार तीर्थ यात्रा का अर्थ हुआ मायामुक्त होने का मार्ग। अब तीर्थ समागम को समझ लेते हैं। तीर्थ यात्रा तीर्थ तक पहुंचा कर तीर्थ में लीन हो जाती है। तीर्थ में पहुंचने के साथ तीर्थ समागम प्रारंभ हो जाना चाहिए। समागम शब्द का अर्थ है मिलन, संयोग या जुड़ना। जैसे अंधेरे में पड़े वस्तु को देखने के लिए दीपक की रोशनी चाहिए वैसे त्रिगुणी माया के अंधेरे में स्थित निर्गुणी के दर्शन के लिए तीर्थ समागम से प्राप्त रोशनी की आवश्यकता पड़ती है।

 तीर्थ समागम निम्न तीन स्तरों पर घटित होता है…

   भौतिक स्तर पर तीर्थ स्थल में होने पर अपने सभी द्वारों को खोज देना चाहिए जिससे तीर्थ क्षेत्र की दिव्य ऊर्जा बाहर से अंदर भरने लगे , लेकिनयह कैसे संभव है ? इस प्रश्न के साथ दूसरा स्तर प्रारंभ होता है जिसे साधनात्मक स्तर कहते हैं । तीर्थ क्षेत्र में देव पूजन करना , संतो की संगति करना और शास्त्रों पर हो रही चर्चाओं में ऐसे डूब जाना जिससे आपका अतः कारण ( मन , बुद्धि और अहंकार ) पूर्ण रूप से शून्य होने लगे । जब ऐसा लक्षण दिखानेंलगे तब इस स्थिति के साथ तीसरा स्तर - आध्यात्मिक स्तर प्रारंभ होता है। भौतिक स्तर और साधनात्मक स्तर की सिद्धि प्राप्त हो जाने के बाद तीर्थ यात्री , यात्री नहीं रह जाता , वह तीर्थमुखी रहने लगता है और तीर्थ की दिव्य ऊर्जा में वैसे घुलने लगता है जैसे पानी में नमक का टुकड़ा घुलता है। 

जब उसका तीर्थ - आगमन हुआ था , उस समय वह  त्रिगुणी माया में डूबा हुआ एक यात्रा था लेकिन तीर्थ समागम से वह त्रिगुणी न रह कर केवल सत् गुणी रह जाता है । इस अवस्था में उनके चित्त में केवल और केवल सात्त्विक गुणों की वृत्तियों का आवागमन बना रहता है । धीरे - धीरे वह भी स्थिति आती है जब वह इस सात्त्विक गुण की वृत्तियों से भी मुक्त हों जाता है। फिर क्या होता है ? रह - रह कर वह समाधि में उतरने लगता है । जैसे - जैसे समाधि सघन होती जाती है तब उसे उस काशी में मूल काशी दिखने लगती है । निराकार , उसके लिए साकार दिखने लगता है और वहां की दिव्य ऊर्जा सिद्धों के रूप में उसे साधना की उच्च भूमियों में पहुंचनें में मदद करने लगती है और इस प्रकार वह स्वयं तीर्थ बन जाता है । 

ध्यान रखना किसी तीर्थ में दो प्रकार से जाना होता है ; एक वह जाना होता है जैसे हम - आप साल में कई बार आते - जाते रहते हैं अर्थात काशी गए , गंगा नहाए , पूजा अर्चना की और लौट आए अपनें परिवार में । यह हमारा तीर्थ पर जाना वैसे ही होता है जैसे अन्य गृहस्थी की क्रियाएं होती रहती है । हम बार - बार जाते - आते रहेंगे और यह क्रम जीवन भर चलता रहता है ।

दूसरा जाना तब होता है तब तीर्थ स्वयं बुलाता है । घर - गृहस्थी के गहरे अनुभव से वैराग्य भाव भरने लगता है । जब यह वैराग्य भाव सघन हो जाता है तब उस व्यक्ति को तीर्थ बुलाता है और वह व्यक्ति अपनी बस्ती में फिर नहीं लौटता।

 ध्यान रखें ! तीर्थ यात्रा पर निकलना कोई मनोरंजन नहीं , यह कोई साधारण घटना भी नहीं , क्या पता आपको तीर्थ बुलाया हो ! 

~~ ॐ ~~

Friday, June 20, 2025

भारतीय मंदिरों में पशु बलि प्रथा


पहले इस विषय से संबंधित वर्तमान स्थिति पर नज़र डालते हैं ….

राज्य

वर्तमान की स्थिति

उत्तर प्रदेश , बिहार और

 मध्य प्रदेश

अधिकांश मंदिरों में पशु बलि प्रथा समाप्त हो चुकी है ।

बंगाल , असम और ओडिशा

ग्रामदेवी , शक्ति पीठों में पशु बलि प्रथा कहीं - कहीं चल रही है।

तमिल नाडु और आंध्र प्रदेश

ग्रामीण / तांत्रिक परम्पराओं में सीमित बलि प्रथा कायम है।

केरल

कुछ मंदिरों में अनौपचारिक बलि , सरकार की निगरानी में चल रही है ।

उत्तर भारत के प्रमुख मंदिरों की स्थिति

19 वी शताब्दी के उत्तरार्ध से काशी विश्वनाथ मंदिर एवं महाकालेश्वर मंदिर , उज्जैन जैसे बड़े मंदिरों में पशु बलि बंद है।


पूरे भारत देशके मंदिरों में पशु बलि प्रथा (Animal Sacrifice) पूर्णरूपेण समाप्त नहीं हो पायी है। यह परंपरा आज भी कुछ राज्यों और विशेष रूप से शक्तिपीठों या

 ग्राम्य/तांत्रिक परंपराओं में सीमित रूप से प्रचलित है। 

 ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में धर्म, स्वास्थ्य, और सार्वजनिक शांति के नाम पर कई प्रकार की धार्मिक बलि प्रथाओं को अस्वीकार किया गया था । 1830s–1850s से, ब्रिटिश सरकार कई रियासतों के साथ मिलकर शहरी इलाकों में बलि पर नियंत्रण शुरू किया था । बंगाल, उड़ीसा, असम और तमिलनाडु जैसे क्षेत्रों में इस नियंत्रणका स्थानीय लोगों द्वारा विरोध भी किया गया क्योंकि वहां तांत्रिक परंपरा और देवी पूजा में बलि प्रचलित थी।

19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती (आर्य समाज), विवेकानंद, आदि ने पशु बलि की कड़ी आलोचना की जिसका शहरी और ब्राह्मणिक मंदिरों में बलि प्रथा पर नैतिक और धार्मिक दबाव पड़ा। 1950 के बाद संविधान के अनुच्छेद 48 में "गाय और बछड़ों के वध" पर प्रतिबंध की सिफारिश की गई। कई राज्यों ने अपने-अपने "पशु क्रूरता निवारण अधिनियम" (Prevention of Cruelty to Animals Act, 1960 के तहत) बनाए। कई मंदिरों में ट्रस्ट द्वारा औपचारिक रूप से बलिप्रथा समाप्त कर दी गई जैसे कामाख्या मंदिर (असम) लेकिन यहां अभी भी बकरे / मुर्गे तक सीमित बलिप्रथा है।

कालिका मंदिर कोलकाता में अनुमति के बिना बलि नहीं दी जाती। तमिलनाडु में कुछ ग्राम देवताओं के मंदिरों में अभी भी मुर्गा, बकरी आदि की बलि दी जाती है। अगले अंक में कड़ी विश्वनाथ मंदिर और दुर्गाकुंड मंदिर वाराणसी के संबंध में चर्चा होगी ।

~~ ॐ ~~