संदर्भ : श्रीमद्भागवत पुराण 11.21.35
श्रीमद्भगवद्गीता : 3.5 , 3.27 , 3.28
कोई भी जीवधारी पल भर के लिए भी कर्म मुक्त नहीं रह सकता , कर्म तो करते ही रहना हैं क्योंकि कर्म करता , हम नहीं , हमारे अंदर हर पल बदल रहे तीन गुण हैं और हमारे अंदर कर्म करता का भाव अहंकार की उपज है। गुण विभाग और कर्म विभाग को समझते हुए ज्ञानी दृष्टा भाव में कर्म बंधनों से अप्रभावित रहते हुए कर्म करते रहते हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता में सकाम और निष्काम - दो प्रकार के कर्म बताए गए हैं और वेदों में प्रवृत्ति परक एवं निवृत्ति परक दो प्रकार के वैदिक कर्म बताए गए हैं । आसक्ति , कामना , काम , क्रोध , लोभ ,मोह ,भय , आलस्य और अहंकार , कर्म बंधन या कर्म तत्त्व हैं । जब कर्म होने का कारण कर्म बंधन होते हैं तब उस कर्म को सकाम या प्रवृत्ति परक कर्म कहते हैं और इसके विपरीत जो कर्म होते हैं अर्थात कर्म बंधनों से अप्रभावित रहते हुए जो कर्म होते हैं , उन्हें निष्काम या निवृत्ति परक कर्म कहते हैं ।
वेदों में तीन काण्ड हैं - कर्म , उपासना और ज्ञान । कर्म के संबंध में ऊपर बताया जा चुका है । कर्म से ज्ञान की यात्रा का नाम है उपासना जिसे अभ्यास योग भी कह सकते हैं। कर्म करते हुए कर्म बंधनों को समझने का अभ्यास उपासना है । जब उपासना फलित होती है तब तीन गुणोंमें से राजस एवं तामस गुणोंकी वृत्तियों से मुक्त रहते हुए अंतःकरण ( मन , बुद्धि और अहंकार ( सात्त्विक गुणों की वृत्तियों पर केंद्रित रहने लगता है। जब यह अवस्था और सघन होती जाती है तब संप्रज्ञात ( साकार या सविकल्प) समाधिघटने लगती है। जब सात्त्विक गुण से भी अंतःकरण मुक्त हो जाता है तब असंप्रज्ञात ( निराकार या निर्विकल्प ) समाधि घटने लगती है और इस अवस्था में ज्ञान की ऊर्जा अंतःकरण में भरने लगती है। ज्ञानी सत्य और असत्य को स्पष्ट रूप से देखने लगता है।
चार वेदों में से जब किसी एक वेद के माध्यम से साधना - अभ्यास किया जाता है तब कर्म से उपासना और उपासना से ज्ञान की प्राप्ति होती है। ज्ञान कैवल्यमुखी बनाए रखता है ।
No comments:
Post a Comment