Sunday, March 12, 2023

पञ्च कोष साधना और पञ्च कोसी तीर्थ परिक्रमा

पञ्च कोष - साधना
पञ्च कोष , वेदांत दर्शन तथा इसके सहयोगी दर्शनों का शब्द है । जैसे सांख्य - पतंजलि दर्शनों में प्रकृति - पुरुष बोध से मैं कौन हूं ? प्रश्न का उत्तर मिल जाता है वैसे पञ्च कोष बोध से मैं कौन हूं ? प्रश्न का उत्तर मिल जाता है । दर्शन कोई भी क्यों न हो चाहे वह आस्तिक जो या नास्तिक , चाहे वह अद्वैत्यवादी हो या द्वैत्यवादी , चाहे वह नेति - नेति से चल रहा हो या सबको स्वीकार करते हुए चल रहा हो , सबके सब अंततः वहीं पहुंच कर रुक जाते हैं , जिसके आगे और चलना संभव नहीं हो पाता और जहां पहुंचने पर एक तख्ती लटकती दिखती है जिस पर लिखा होता है , तुम्हारी यह यात्रा यही समाप्त होती है । अब तुम अगर चाहो तो सामने उस पार पहुंच सकते हो लेकिन उसके लिए तुम्हें अपनी नाव छोड़नी पड़ेगी और अनंत में छलांग लगानी पड़ेगी । यदि तुम स्व बोधी हो तो देर मत करो , भर लो छलांग , कहीं तुम्हारे संस्कार के बीज पुनः अंकुरित न हो जाएं वर्ना वे तुम्हें पीछे लौटा ले जायेंगे। ऐसा समझें , ऊपर व्यक्त 05 कोष , हमारे अस्तित्व के 05 आवरण हैं जिनके बोध से मनुष्य को स्व बोध हो जाता है । पंच कोष साधना सिद्धि से विवेक की धारा बहने लगती है , अविद्या का नाश हो जाता और जिसे कैवल्य कहते हैं । कैवल्य के लिए पतंजलि कैवल्य पाद सूत्र : 34 को यहां देखें पुरुषार्थ शून्यानां गुणानां प्रतिप्रसव: कैवल्यमं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति " पुरुषार्थ का शून्य होना एवं गुणों का प्रतिप्रसव होना कैवल्य है " अथवा (वा ) " चित्ति शक्ति का अपनें मूल रूप में हो जाना , कैवल्य है " अर्थात कैवल्य प्राप्त योगी पुरुषार्थ शून्य होता है , गुणातीत होता है और उसकी चित्त शक्ति ( पुरुष ) अपनें मूल स्वरुप में स्थित हो गया होता है । पुरुषार्थ ( पुरुष +अर्थ )के निम्न 04 अंग हैं धर्म +अर्थ + काम + मोक्ष ध्यान रखना होगा कि पुरुषार्थ भी एक मजबूत बंधन है । योग साधना के पंच कोष साधना की 05 सीढियां हैं जैसे अष्टांगयोग की 08 सीढियां हैं । अन्नमय कोष की सिद्धि प्राणमय कोष का द्वार है । प्राणमय कोष की सिद्धि से मन किसी एक सात्त्विक आलंबन से जुड़ जाता है और मन आलंबाकार बन जाता है फलस्वरूप स्थिर प्रज्ञाता मिलती है । मनमय कोष सिद्धि से विज्ञान मय कोष में प्रवेश मिलता है जहां ब्रह्म से ब्रह्म में सारी सूचनाएं दिखने लगती है । विज्ञानमय कोष सिद्धि से इंद्रियातीत आनंद मिलने लगता है क्योंकि इंद्रियों का मूल स्वभाव परमानंद है । आनंदमय कोष सिद्धि में कैवल्य का द्वार खुलता है । 1 - अन्नमय कोष 【स्थूल शरीर】 भोजन से स्थूल शरीर का और भोजन एवं संगति से चित्त का निर्माण होता है और ऐसे चित्त को निर्माण चित्त कहते हैं । चित्त बंधन और मोक्ष दोनो का माध्यम है । चित्त प्रकृति - पुरुष की संयोग भूमि है । पुरुष चित्त मध्यम से विषय को समझता है ; जिस रंग में चित्त रंगा होता है , उसी रंग में चित्त रंग जाता है । पुरुष की चित्त मुक्त स्थिति ही कैवल्य है । गीता : 17.7 - 17.10 में गुणों के आधार पर तीन प्रकार के लोगों के उनके अपने - अपने भोजनों के संबंध में बताया गया है । सात्त्विक भोजन से चित्त में सात्त्विक ऊर्जा भरती है जो सात्त्विक आलंबन से जोड़ती है। राजसी भोजन भोग से जोड़ने की ऊर्जा उत्पन्न करता है और तामसी भोजन से भय , मोह , आलस्य आदि को उत्पन्न करने की ऊर्जा बनती है । यह स्थूल शरीर पांच भूतों से निर्मित है और विभिन्न प्रकार के भोज्य पदार्थों के सेवन से इन पंच महाभूतों की यथावत स्थिति बनी रहती है । जरा सोचना! हमें क्यों भूख - प्यास लगती रहती है ? , वह कौन है , हमारे अंदर जो पांच भूतों की कमी को समझता है और इस कमी को पूरा करने के लिए कर्म करता है ? अन्नमय कोष साधना , स्थूल शरीर को साधना की अगली सीढ़ी पर पहुंचाती है । वेदांत दर्शन में अन्न को ब्रह्म कहा गया है । अन्न से स्थूल देह , मांस , रक्त , मज्जा और हड्डियों का ढांचा आदि निर्मित होते रहते हैं । अन्नमय कोष शेष 04 कोषों का आश्रय है अतः इसके प्रति होशमय रहना , सत्य साधक की प्राथमिकता होती है । अब शरीर के प्रकार को देखते हैं ⬇️ शरीर के प्रकार ⬇
स्त्री - पुरुष संयोग के फलस्वरूप गर्भ से मिला हुआ साकार शरीर , स्थूल शरीर है जो अनित्य है । शरीर के स्थूल अंग , चर्म , मांस , मज्जा , रक्त एवं हड्डियों का ढांचा आदि स्थूल शरीर के निर्माण - तत्त्व हैं । पञ्च भूतों से निर्मित स्थूल शरीर की ऊर्जा को बनाए रखने के लिए भोजन रूप में पंचभूतों का सेवन हम सब के लिए अनिवार्य है । प्रकृति - पुरुष संयोग से हम सब हैं । प्रकृति त्रिगुणी है और पुरुष निर्गुण । पंचभूत प्रकृति के कार्य हैं अतः वे भी त्रिगुणी ही हैं क्योंकि हर कार्य में कारण होता है । तीन गुणों की मात्राओं को यथावत बनाए रखने के लिए मनुष्य सात्त्विक , राजसी और तामसी वस्तुओं का अपनें भोजन में प्रयोग करता है । स्थूल शरीर सूक्ष्म शरीर का आश्रय है , बिना स्थूल शरीर , सूक्ष्म ( लिङ्ग शरीर ) शरीर अस्थिर रहता है । सूक्ष्म या लिंग शरीर के संबंध में आगे बताया जाएगा। बुद्धि , अहंकार और 11 इंद्रियों की सृष्टि के बिना पञ्च तन्मात्रो के होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती क्योंकि प्रकृति - पुरुष संयोग से बुद्धि की उत्पत्ति है , बुद्धिंसे तीन अहंकारों की उत्पत्ति है । सात्त्विक अहंकार से 11 इंद्रियों की उत्पत्ति है । तामस अहंकार से पञ्च तन्मात्र और तन्मात्रों से उनके अपने -अपने महाभूतों की उत्पति होती है । महाभूत स्थूल शरीर की रचना करते हैं । सूक्ष्म शरीर नित्य है , त्रिगुणी प्रकृति या त्रिगुणी माया से निर्मित होता है । यह तबतक नए - नए स्थूल शरीर धारण करता रहता है जबतक पुरुष ( सांख्य और पतंजलि दर्शन में ) या जीवात्मा ( वेदांत दर्शन में ) कैवल्य नहीं प्राप्त कर लेता । विभिन्न दर्शनों में लिंग शरीर की बनावट को यहां निम्न स्लाइड में देख सकते हैं ⤵️ सांख्य दर्शन में लिङ्ग शरीर 1- लिङ्ग शरीर नित्य और सनातन है जबकि माता - पिता से मिला स्थूल शरीर अनित्य है । 2 - महत् , अहंकार , 11 इन्द्रियाँ तथा 05 तन्मात्र लिङ्ग शरीर के अंग हैं । 3 - लिङ्ग शरीर निर्मल और नित्य है । 4 - बिना पञ्च भूत आश्रय लिङ्ग शरीर अस्थिर है। 5 - लिङ्ग शरीर के तत्त्वों में महत् से तन्मात्र तक 18 तत्त्व जड़ हैं और महत् , अहँकार और मन अर्थात चित्त में कैद हुआ पुरुष चेतन है । पुनर्जन्म पुरुष का नहीं होता , अन्य 18 सगुणी तत्त्वों का होता है । चित्ताकार पुरुष के लिए लिङ्ग शरीर का पुनर्जन्म , मोक्ष प्राप्ति के लिए एक और अवसर है । पुरुष का मोक्ष उसका अपनें मूल स्वरूप में लौटनें का नाम है । 5 - लिङ्ग शरीर पुरुष मोक्ष प्राप्ति हेतु अलग - अलग शरीर धारण करता रहता है। 6 - लिङ्ग शरीर प्रकृति का स्वामी है। 7 - लिङ्ग शरीर आवागमन चक्र में तबतक रहता है जबतक उसके आश्रित पुरुष को मोक्ष नहीं मिल जाता। 8 - लिङ्ग शरीर 08 भावों से अधिवासित ( सुगन्धित ) रहता है । 08 भाव निम्न हैं ⤵️ 1 - धर्म 2 - अधर्म 3 - ज्ञान 4 - अज्ञान 5 - वैराग्य 6 - राग 7 - ऐश्वर्य 8 - अनैश्वर्य √ कारण शरीर वेदांत दर्शन का शब्द है जबकि कारण शब्द सांख्य - पतंजलि दर्शनों का है । सांख्य दर्शन में कारण - कार्य एक प्रमुख सिद्धान्त है । उत्पत्ति करता को कारण और उत्पन्न हुए को कार्य कहते हैं , देखे इस उदाहरण को ⬇️ सरसो से तेल निकलता है , यहाँ तेल , सरसोका कार्य है और तेल का कारण सरसो है । सांख्य दर्शन में प्रकृति - पुरुष दो सनातन एवं स्वतंत्र तत्त्व हैं । प्रकृति प्रसवधर्मी जड़ है और पुरुष शुद्ध चेतन । प्रकृति - पुरुष संयोग से बुद्धि , बुद्धि से अहँकार , अहँकार से 11 इंद्रियं एवं पञ्च तन्मात्रों की उत्पत्ति होती है । तन्मात्रों से उनके अपनें - अपनें महाभूतों की उत्पत्ति होती है । इस प्रकार प्रकृति से निर्मित 23 तत्त्व भी जड़ एवं त्रिगुणी हैं । प्रकृति पुरुष - कैवल्य का माध्यम है ।√ पुरुष ऊर्जा प्राप्त करने से पहले प्रकृति अपनें मूल स्वरूप में होती है जो तीन गुणों की साम्यावस्था है । इस मूल प्रकृति को वेदांत में कारण शरीर कहा गया है । जब मूल प्रकृति पुरुष प्रकाश प्राप्त करती है तब वह विकृत हो उठती है और 23 तत्त्वों की उत्पत्ति प्रारम्भ हो जाती है जैसा ऊपर व्यक्त किया गया है । 2 - प्राणमय कोष प्रकृति - पुरुष दो तत्त्व हैं लेकिन दोनों को अलग करना संभव नहीं क्योंकि प्रकृति - पुरुष का संबंध एक अंधे और एक लंगड़े के संबंध जैसा है । प्रकृति अंधी है जो देख नहीं सकती और पुरुष लंगड़ा है जो चल नहीं सकता अतः पुरुष अंधी प्रकृति के कंधे पर सवार हो कर उसे मार्ग दिखाते हुए यात्रा करता है । प्रकृति परोपकारिणी है और पुरुष को समझना चाहती है। पुरुष प्रकृति को देखना चाहता है । प्रकृति पुरुष दर्शन के बाद उसे मुक्त कर स्वयं भी अपनें मूल स्वरूप में लौट जाती है जिसे वेदांत कारण शरीर और सांख्य में साम्यावस्था कहता है । प्रकृति - पुरुष संबंध जैसा श्वास और जीवन का भी संबंध है । श्वास और जीवन समझने के लिए दो हैं लेकिन इन दो तत्त्वों को एक दूसरे से अलग करना संभव नहीं । जबतक श्वास का आवागमन चल रहा है तबतक जीवन है । जैसे ही श्वास बंद हो जाती है , व्यक्त जीवन अव्यक्त हो जाता है । ऐसा समझें कि श्वास ही जीवन ऊर्जा है । अपने जीवन को समझने के लिए अपनी श्वास से मैत्री स्थापित करनी पड़ती है , उसके साथ हर पल बने रहने का अभ्यास करना होता है और ऐसा करने से को सिद्धि मिलती है तब अव्यक्तातीत परम सत्य दिखने हथेली पर रखे आवले की भांति दिखने लगता है । देह में 10 प्रकार की वायु हैं जिनको प्राण कहते हैं। 10 प्रकार के प्राणों और स्थूल देह के संबंध को निम्न स्लाइड में दिखाया गया है । ऊपर स्लाइड में प्रभु की 16 कलाओं में 11 इंद्रियों और 05 प्राणों को बताया गया है । ये 10 प्राणों में प्रथम 05 प्राण हैं जो क्रमशः हृदय स्थित प्राण वायु , गुदा स्थित अपान वायु नाभि स्थित समान वायु , कंठ स्थित उदान वायु और देह में सर्वत्र व्याप्त ब्यान वायु हैं । मूलतः पतंजलि योग दर्शन श्वास की साधना का विज्ञान है । श्वास नियंत्रण , चित्त की स्थिरता और सत्य बोध के पारस्परिक संबंध को स्पष्ट किया गया है । पतंजलि योग दर्शन में पूरक , अंतः कुंभक , रेचक और बाह्य कुंभक अभ्यास , प्राणमय कोष के तत्त्व हैं जिसे पतंजलि प्राणायाम कहते हैं । आगे देखिए महर्षि पतंजलि की प्राणायाम की परिभाषा को । आसन सिद्धि में श्वास - प्रश्वास का स्वत रुक जाना , प्राणायाम है । 3 - मनोमय कोष वेदांत दर्शन में ब्रह्म की माया से काल के प्रभाव में दृष्टि रचना का प्रारंभ बताया गया है । पतंजलि योगसूत्र और सांख्य दर्शनों में प्रकृति - पुरुष के योग से सृष्टि की रचना बताई गयी है । प्रकृति - पुरुष की संयोग भूमि चित्त है और मन , बुद्धि एवं अहँकार के समूह को पतंजलि - सांख्य चित्त कहते हैं जबकि वेदांत में चित्त एक अलग तत्त्व माना जाता है । चित्त को कर्माशय भी कहते हैं अर्थात यह वह तत्त्व है जहाँ पिछले जन्मों एवं वर्तमान जन्म के कर्मों का सूक्ष्ण संग्रह होता है । सांख्य - पतंजलि दर्शनों में मन , बुद्धि और अहंकर एक दूसरे के संकेत को समझते हुए , परस्पर सहयोग से कार्य करते हैं । बुद्धि निर्णय लेती है , अहँकार करने की ऊर्जा देता है और मन पिछले अनुभवों पर भोरे की भांति मंडराता रहता है। मन पिछले अनुभवों के आधार पर अहँकार एवं बुद्धि को सहयोग करता रहता है । 4 - विज्ञानमय कोष सृष्टि रचना के तत्त्वों का बोध ज्ञान है और इन तत्त्वों को ब्रह्म के फैलाव के रूप में समझना , विज्ञान है । इस प्रकार वेदांत में माया बोध के आधार पर ब्रह्म बोध का होना तथा सांख्य में प्रकृति के 23 तत्त्वों के बोध से पुरुष बोध का होना विज्ञान है । यह अवस्था परा वैराग्य की होती है जहां विज्ञाननय कोष में चित्त में विवेक ऊर्जा भर जाती है , और साधक को परम सत्य की खुशबू मिलने लगती है। 5 - आनंदमय कोष आनंदमय कोष को समझने से पहले पतंजलि समाधि पाद सूत्र - 19 को देखते हैं , जो निम्न प्रकार है ⬇️ सबीज ( सम्प्रज्ञात ) समाधि 04 प्रकार की है ; वितर्क , विचार , आनंद और अस्मिता । साधना में आनंद शब्द का अर्थ है - इंद्रियातीत आनंद । तंत्र में चक्र साधना के अंतर्गत 07 चक्रों की साधना करनी होती है जिसमें चौथी साधना हृदय चक्र ( अनाहत ) की है । जब हृदय चक्र की साधना सिद्धि मिलती है तब अनाहद नाद सुनाई पड़ने लगता है जो परम् आनंद का नाद होता है । आनंदमय कोष का सीधा संबंध अनाहद नाद से ही है । जब बुद्धि , अहँकार , 11 इन्द्रियाँ सत्त्विक ऊर्जा के परिपूर्ण हो जाती हैं , विवेक की धारा बहने लगती है तब आनंदमय कोष की सिद्धि मिलती है । तीर्थों की पञ्च कोष या पञ्च क्रोसी परिक्रमा का सीधे संबंध पञ्च कोषी साधना से है जिसमें 05 दिन की परिक्रमा में प्रतिदिन 05 कोस की यात्रा की जाती है । इस 25 कोसीय परिक्रमा में अन्नमय , प्राणमय , मनमय , विज्ञानमय और आनंदमय कोषों की सिद्धि प्राप्त कर यात्री प्रभु केंद्रित हो जाता है जिसकी आंखें हर पल प्रभु के विकृतियों पर टिकी होती है और उसकी पीठ भोग की ओर रहती है । ऐसे यात्री के लिए गीता श्लोक : 2.69 को देखें जो निम्न प्रकार है या निशा सर्व भूतानाम् तस्याम् जागर्ति संयमी । यस्याम् जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यत: मुने : ।। जो सभी के लिए रात्रि जैसा है , जिसमें सभीं सोए हुए से रहते हैं , वह ज्ञानी के लिए दिन होता है जिसमें ज्ञानी जगा हुआ रहता है , अर्थात परमात्मा। काशी पञ्चकोषी ( पञ्च क्रोशी या पञ्च कोसी ) परिक्रमा यात्रा इस यात्रा में 108 शिवलिङ्ग , 56 मंदिर , 11 विनायक , 10 शिव मंदिर , 10 देवी , 4 विष्णु , 2 भैरव , 14 अन्य देवताओं के दर्शन करने होते हैं । यात्रा प्रारंभ करने से एक दिन पूर्व गंगा स्नान , काशी विश्वनाथ , अन्नपूर्णा एवं भैरव आदि देव - दर्शन तथा परिक्रमा के लिए संकल्प करना होता है । यात्रा का प्रारंभ मणिकर्णिका कुण्ड से यात्रा प्रारंभ होती है । यह कुंड मणिकर्णिका घाट के समीप में स्थित है । मणिकर्णिका से अस्सी आते हैं जहाँ से पांच कोषी परिक्रमा मार्ग प्रारम्भ होता है । पहला पड़ाव कर्मद ऋषि के मंदिर पर और पांचवां पड़ाव कपिल मुनि के मंदिर पर पड़ता है । कर्मद ऋषि के पुत्र कपिल मुनि हैं । पहला पड़ाव कर्मदेश्वर मंदिर पर यह शिव मंदिर कर्मद ऋषि द्वारा बनाया गया है । कर्मद ऋषि ब्रह्मा की छाया से उत्पन्न ऋषि हैं जो कपिल मुनि के पिता भी हैं । कर्मद ऋषि का ब्याह पहले स्वायंभुव मनु की कन्या देवहूति से हुआ था। कर्मद ऋषि का आश्रम विन्दुसर में था जो तीन तरफ से सरस्वती नदी से घिरा हुआ होता था । वर्तमान का विन्दुसर अहमदाबाद - उदयपुर मार्ग परअहमदाबाद से 130 किलो मीटर दूरी पर है । दूसरा पड़ाव भीमचण्डी मंदिर गन्धर्व सागर कुण्ड के समीप तीसरा पड़ाव रामेश्वर मंदिर वरुणा नदी के तट पर स्थित है । चौथा पड़ाव शिवपुर यहाँ द्रौपदी कुण्ड है । पांचवां पड़ाव कपिलधारा यहाँ कपिलेश्वर महादेव का मंदिर है जो कपिल मुनि द्वारा स्थापित है । कपिलधारा के आगे वरुणा - गंगा संगम के निकट केशव घाट के समीप विनायक मंदिर है । यहाँ गंगा में लोग गंगा में जौ बोते हैं । यहाँ से मणिकर्णिका घाट पहुँचते हैं । विश्वनाथ , अन्नपूर्णा , गणेश और काल भैरव दर्शन करके अपनी 05 दिन की 25 कोशीय यात्रा पूरी करते हैं। परिक्रमा में एक स्थान से दूसरे स्थान की दुरी 1 - मर्णकण्डिका - कर्मदेश्वर …….. 03 कोस 2 - कर्मदेश्वर - भीमचण्डी ………. 05 कोस 3 - भीमचण्डी - रामेश्वर …………. 07 कोस 4 - रामेश्वर - शिवपुर ……………. 04 कोस 5 - शिवपुर - कपिलधारा ………… 03 कोस 6 - कपिलधारा - मणिकर्णिका …… 03 कोस योग >>>>>>>>>>>>>>> 25 कोस 01 कोस = 3.2 किलो मीटर ~~ ॐ ~~

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