पतंजलि योग सूत्र आधारित 03 प्रकार की समाधि संप्रज्ञात , असंप्रज्ञात, धर्ममेघ
योग साधना में स्थित योगी के चित्त ( बुद्धि , अहंकार , मन ) में राजस एवं तामस गुणों की वृत्तियों का न उठना , केवल सात्त्विक गुण की वृत्तियों का आवागमन बना रहना और इस स्थिति में 10 इंद्रियों सहित सम्पूर्ण स्थूल देह तथा अंतःकरण ( बुद्धि , अहंकार , मन ) का बाह्य जगत से संबंध
का टूट जाना , समाधि के लक्षण हैं ।
चित्त वृत्ति निरोध के लिए नित्य , निरंतर बिना किसी रुकावट किसी एक सात्त्विक आलंबन पर चित्त एकाग्रता के अभ्यास के फलस्वरूप चित्त की प्रवृति सात्त्विक गुणी हो जाती है जिसे प्रवृत्ति कहते हैं । इस प्रकार किसी सात्त्विक आलंबन से चित्त को बाध कर रखने के अभ्यास को पतंजलि योग सूत्र धारणा कहता है और धारणा की दृढ़ भूमि आने पर धारणा ध्यान में बदल जाती है । ध्यान का नित्य निरंतर बिना किसी रुकावट किए जा रहे अभ्यास से ध्यान की दृढ़ भूमि तैयार होती है जो समाधि में प्रवेश दिलाती है ।
ध्यान सिद्धि तक चित्त समाधि मुखी हो गया होता है , राजस एवं तामस गुणों के प्रभावों से मुक्त हो कर केवल सात्विक गुण केंद्रित हो गया होता है । यहां तक कि साधना सिद्धि तक चित्त में पहले के संस्कार एवं नए सात्त्विक आलंबन पर ध्यान करते रहने से निर्मित नए सात्त्विक संस्कार के साथ समाधि की यात्रा प्रारंभ होती है। पतंजलि योग सूत्र दर्शन के अंतर्गत तीन प्रकार की समाधियों की यात्रा कराते हैं जो क्रमशः एक के बाद एक घटित होती रहती हैं।
1▶️ संप्रज्ञात समाधि
तत् एव अर्थ मात्र निर्भासं स्वरुप शून्यम् इव समाधि
( विभूतिपाद - 3 )
ऊपर व्यक्त संप्रज्ञात समाधि की परिभाषा को समझते हैं …
धारणा एवं ध्यान साधना सिद्धि तक सात्त्विक आलंबन का स्थूल स्वरूप बना रहता है लेकिन जैसे - जैसे ध्यान सघन होता जाता है वैसे - वैसे सात्त्विक आलंबन का स्थूल स्वरूप सूक्ष्म होते - होते शून्य हो कर मात्र सूक्ष्म प्रकाश रूप में रह जाता है । इस अवस्था को संप्रज्ञात समाधि कहते हैं।
▶️ असंप्रज्ञात समाधि
तस्यापि निरोधे सर्व निरोधान् निर्बीज : ( समाधिपाद सूत्र - 51 )
धारणा , ध्यान और संप्रज्ञात समाधि के निरंतर अभ्यास से असंप्रज्ञात समाधि में प्रवेश मिलता है ।
जब संप्रज्ञात समाधि की दृढ़ भूमि तैयार हो जाती है तब असंप्रज्ञात समाधि घटित होती है । संप्रज्ञात समाधि सिद्धि तक चित्त राजस एवं तामस गुणों से मुक्त हो गया होता है लेकिन पिछले संस्कार एवं साधना से निर्मित नए सात्त्विक गुण आधारित संस्कार उपस्थित रहते हैं । संप्रज्ञात समाधि सिद्धि एवं असंप्रज्ञात समाधि सिद्धि के मध्य सभीं प्रकार के संस्कारों का निरोध हो जाता है अत अंतः असंप्रज्ञात समाधिनकी सिद्धि मिल जाती है ।
चित्त वृत्ति निरोध एवं संस्कारों के निरोधक साथ चित्त ऋतम्भरा प्रज्ञा से भर जाता है तथा विवेक की लहर चित्त में बहने लगती है ।
विवेक ज्ञान वह ज्ञान होता है जो परोक्ष ज्ञान से भिन्न होता है। परोक्ष ज्ञान किसी माध्यम से प्राप्त ज्ञान को कहते हैं जैसे धार्मिक शास्त्र आदि । विवेक ज्ञान प्राप्ति से विद्या का क्षय हो जाता है और सत् एवं असत् स्पष्ट रूप से दिखने लगते हैं । चित्त निर्मल दर्पण की भांति बन गया होता है । इस परिस्थिति में चित्त में विवेक ज्ञान से भी संस्कार निर्मित हो जाता है जिसके निरोध के संबंध में आगे धर्ममेघ समाधि में देखते हैं ।
▶️ धर्ममेघ समाधि प्रख्याने अपि अकुसीदस्य सर्वथा विवेकख्याते धर्ममेघ:
“ विवेक से मिले ऐश्वर्यों के प्रति वैराग्य का होना धर्ममेघ
समाधि है “ (पतंजलि कैवल्यपाद सूत्र : 29)
धारणा , ध्यान , संप्रज्ञात समाधि , असंप्रज्ञात समाधि और धर्ममेघ समाधि सिद्धि प्राप्त योगी कैसा होता होगा ?
इस प्रश्न के उत्तर के लिए पतंजलि योग दर्शन आधारित निम्न को देखें ⤵️
विवेक ज्ञानी आत्मभाव भावना मुक्त अर्थात हर प्रकार की जिज्ञासाओं से मुक्त ) रहते हुए प्रकृति एवं पुरुष को दो अलग - अलग तत्त्वों के रूप में देखते हुए कैवल्य मुखी रहने लगता है । यहां ध्यान में रखना होगा कि जब विवेक की धारा टूटती है तब ऋतम्भरा प्रज्ञा से निर्मित संस्कार प्रभावी हो उठते हैं ।
अपने मूल स्वरुप में स्थित (अर्थात प्रकृति - पुरुष को एक नहीं पृथक - पृथक होने के बोध से युक्त ) योगी आत्मभाव भावना मुक्त होता है ( कैवल्य पाद सूत्र - 25 ) । यहां समझना होगा कि
आत्मभाव भावना क्या है ?
मैं कौन हूं ?बीकहां से आया हूं ?और क्यों आया हूं ? आदि जैसी जिज्ञासाओं का होना आत्मभाव भावना है । धर्ममेघ समाधि सिद्धि योगी इन जिज्ञासाओं से मुक्त रहता है।
💮पुरुष - प्रकृति को अलग - अलग देखने वाले विवेक ज्ञानी का चित्त कैवल्यमुख रहता है । यहां ध्यान रखें कि अविद्या की अनुपस्थिति , विवेक ज्ञानी बनाती है (कैवल्य पाद सूत्र - 26 )।
💮विवेक की धारा टूटने पर संस्कार प्रभावी हो उठते हैं
( कैवल्यपाद सूत्र - 27 )
💮विवेक ज्ञान के साथ भी पर वैराग्य में स्थित रहते वाला योगी सर्वथा विवेक ख्याति में रहता हुआ धर्ममेघ समाधि में स्थिर हो जाता है ( कैवल्यपाद सूत्र - 29 ) ।
💮" धर्ममेघ समाधि प्राप्त योगी क्लेश और कर्म मुक्त होता है " (कैवल्य पाद सूत्र - 30)
धर्ममेघ समाधि में स्थित योगी के ...
1- सभीं आवरण और मल नष्ट हो गए होते हैं
2 - ज्ञान अनंत हो गया होता है
3 - ज्ञेय अल्प हो गया होता है
ज्ञान अनंत और ज्ञेय अल्प को समझें - ज्ञेय का अर्थ है जाननेयोग्य और ज्ञान का अर्थ है प्रकृति - पुरुष का बोध अर्थात धर्ममेघ समाधि सिद्ध योगी स्व के साथ संपूर्ण ब्रह्माण्ड के रहस्य को समझता है । जब ज्ञान बढ़ता है तब ज्ञेय घटता है ( कैवल्य पाद सूत्र - 31 )
धरमेघ समाधि से चित्त के सभी आवरण एवं मल नष्ट हो जाते ह ।
पतंजलि कैवल्यपाद सूत्र : 32
तत : कृतार्थानाम् परिणामक्रम समाप्ति : गुणानाम्
धर्ममेघ समाधि की सिद्धी प्राप्त योगी कृतार्थ होता है , उसके परिणाम क्रम समाप्त हो जाता है और वह गुणातीत होता है ।
समाधि भाव , गुणातीत , कृतार्थ और विवेक ज्ञानयुक्त योगी को समझने के लिए पतंजलि के निम्न सुत्रों को समझना चाहिए ।
साधन पाद सूत्र : 2 + 26 + 27 + 22 जो निम्न प्रकार हैं ⤵️
●समाधिभाव जागृत होते ही क्लेष तनु अवस्था में आ जाते हैं
( साधन पाद सूत्र - 2 )। क्लेश चित्त के मूल हैं और दुःख की जननी भी हैं । साधनपाद सूत्र - 26 में बताया गया है , " विवेक ख्याति से दुःख मुक्ति मिलती है और विवेक ख्याति गुणातीत की स्थिति को कहते हैं । गुणातीत देह में स्थित पुरुष , प्रकृति के 23 तत्त्वों के बंधन से मुक्त रहता है । साधन पाद - 27 में बताया गया है ,
" विवेक ख्याति प्राप्त योगी की प्रज्ञा 07 प्रकार की प्रान्तबीभूमियों वाली होती है । साधन पाद - 22 के माध्यम से महर्षि पतंजलि कृतार्थ को स्पष्ट करते हुए कह रहे हैं , कृत + अर्थ =कृतार्थ अर्थात वह जिसे जो पाना होता है , वह उसे पा लिया होता है , जो करना होता है , वह कर लिया होता है और जो जानना होता है , उसे जान लिया होता है ।
परिणाम क्रम को समझते हैं ?
👌 समय के साथ - साथ सबकुछ बदल रहा हैं जिसे पतंजलि समय का परिणाम क्रम कह रहे हैं ।
💮पुरुषार्थ का शून्य होना एवं गुणों का प्रतिप्रसव होना , कैवल्य है
अथवा " चित्ति शक्ति ( पुरुष ) का अपनें मूल स्वरूप में आ जाना , कैवल्य है " पतंजलि कैवल्य पाद सूत्र - 34
~~~ ॐ ~~~
No comments:
Post a Comment