Saturday, August 3, 2024

पतंजलि योग सूत्र दर्शन समाधिपाद सूत्र 17


पतंजलि योगसूत्र में चार प्रकार की संप्रज्ञात समाधि ⬇️


हम यहां वितर्क में सवितर्क एवं निर्वितर्क , विचार में सविचार एवं निर्विचार तथा आनंद एवं अस्मिता के रूपो में  06 प्रकार की संप्रज्ञात समाधि की यात्रा पतंजलि योग सूत्र दर्शन के आधार पर करने जा रहे हैं जैसा ऊपर स्लाइड में दिखाया गया है । संप्रज्ञात समाधि को साकार या सालम्बन या विकल्प समाधि भी कहते हैं । 

पिछले लेख में पतंजलि योग सूत्र दर्शन आधारित 03 प्रकार की समाधियों (संप्रज्ञात,असंप्रज्ञात और धर्ममेघ ) की चर्चा की गई थी जिन्हें क्रमशः विकल्प , निर्विकल्प और पुरुषार्थशून्य समाधि भी कहते हैं । जैसा ऊपर स्लाइड में दिखाया गया है ,  संप्रज्ञात समाधि के संदर्भ में पतंजलि समाधिपाद सूत्र : 17 , 18 , 42 - 45 को समझने से पूर्व इनसे संबंधित समाधि पाद सूत्र : 12 - 16 में वर्णित अभ्यास - वैराज्ञ को भी समझ लेना चाहिए। अभ्यास वैराग्य की चर्चा श्रीमद्भगवद्गीता श्लोक - 6.35 में भी प्रभु श्री कृष्ण करते हैं।

अभ्यास से चित्त एकाग्रता , चित्त एकाग्रता से वैराग्य और वैराग्य में समाधि की सिद्धी मिलती है अतः आगे बढ़ने से पूर्व 

समाधिपाद सूत्र : 12 - 16 का सार देखना चाहिए जो निम्न प्रकार है ….

धारणा - ध्यान सिद्धि से अपरा वैराग्य मिलता है । यत्न द्वारा उपजे विषय वितृष्णा का भाव  अपरा वैराग्य कहलाता है जिसकी दृढ़ भूमि परा वैराग्य में पहुंचाती है जो यत्न मुक्त विषय वितृष्णा का भाव होता हैं। परा वैराग्य सिद्धि से चित्त समाधि मुखी रहने लगता है । 

क्षिप्ति, मूढ़ , विक्षिप्त , एकाग्रता और निरु , ये  चित्त की 05 भूमियां हैं । इन भूमियों में प्रारंभिक 03 भूमियों को निम्न भूमि एवं आखिरी 02 भूमियों को चित्त की उच्च भूमि कहते हैं ।  जब तक चित्त निम्न भूमियों में भ्रमण करता रहता है तब तक वह राजस एवं तामस गुणों से प्रभावित रहता हुआ  भोग मुखी रहता है ।  एकाग्रता एवं निरु भूमियों वाला चित्त सात्त्विक गुण प्रभावित होने के कारण समाधिमुखी रहने लगता है। अब सम्प्रज्ञत समाधि संबंधित पतंजलि समाधि पाद सूत्र - 17 को देखते हैं …

“ वितर्क ,विचार ,आनंद , अस्मिता रूप अनुगमात्  , संप्रज्ञात “ 

, “ वितर्क , विचार , आनंद और अस्मिता सिद्धियों के रूप में संप्रज्ञात समाधि घटित होती है ”

महर्षि पतंजलि समाधिपाद सूत्र : 42 - 45 में सवितर्क समापत्ति - निर्वितर्क समापत्ति एवं सविचार समापत्ति - निर्विचार समापत्ति की भी चर्चा करते हैं अतः समाधिपाद सूत्र - 17 के साथ समाधिपाद सूत्र 42 - 45 को भी देखना चाहिए ।

 अब समाधिपाद सूत्र - 17 के शब्दों को समझते हैं ….

1.वितर्क ( सवितर्क , निर्वितर्क )  

तर्क दो प्रकार का होता है ; कुतर्क और वितर्क । वितर्क की दो अवस्थाएं होती हैं ; सवितर्क एवं निर्वितर्क ( देखें ऊपर दी  गई स्लाइड में ) । अब इन शब्दों को समझते हैं …

किसी विषय के संबंध में संदेहमुक्त  अवस्थामें उसके सकारात्मक पक्ष को स्पष्ट करना तर्क कहलाता है  और उस विषय संबंधित असंगत बात (दलील ) को कुतर्क कहते हैं ।

 जहां तर्क में किसी बात को सत्य  प्रमाण आधार पर सिद्ध करने की चेष्टा होती है  तो वहीं वितर्क में उसी बात को असत्य बनाने हेतु तर्क से भी अच्छा सत्य का प्रमाण प्रस्तुत किया जाता है ।

 पक्षी तर्क देता है और विपक्षी वितर्क देकर अपनी बात को और अधिक यथार्थ सिद्ध करने का प्रयास करता है। अब सवितर्क एवं निर्वितर्क को समझने के लिए पतंजलि समाधिपाद सूत्र - 42 को समझते हैं जो निम्न प्रकार है ……

“ तत्र शब्द अर्थ ज्ञान विकल्पै: संकीर्णा सवितर्का समापत्ति

ध्यान आलंबनों के 03 अंग होते हैं - शब्द , अर्थ और ज्ञान। 

जो मुंह से बोला जाए और कान से सुना जाए उसे शब्द कहते हैं। आलंबन के संबोधन करने की संज्ञा का नाम शब्द  है जैसे शिव , ॐ आदि । पतंजलि योग साधना में शब्द पर चित्त एकाग्रता का अभ्यास मूलतः इंद्रिय - आलंबन संयोग आधारित होता है । अब ध्यान आलंबन के अर्थ अंग एवं ज्ञान अंग को समझते हैं । आलंबन के शब्दार्थ की साधना सूक्ष्म एवं मन आधारित साधना है। शब्द के अर्थ के संबंध में मन मनन करता है और उस अर्थ पर मन द्वारा किया जा रहा मनन जब गहरा जाता है अब  बुद्धि द्वारा उस अर्थ की सत्यता पर निर्णय लिया जाता है और बुद्धि द्वारा  लिया गया निर्णय उस समय बुद्धि की स्थिति पर निर्भर करता है । बुद्धि दो प्रकार की होती है और दोनों बुद्धियों का निर्णय एक दूसरे के विपरीत होता 

है ।श्रीमद्भगवद्गीता श्लोक - 2.41 में व्यवसायिका या निश्चयात्मिका एवं अव्यवसायित्मिका या अनिश्चयात्मिका , दो प्रकार की बुद्धि की बात प्रभु श्री कृष्ण करते हैं। भ्रम एवं संदेह युक्त बुद्धि अनिश्चयात्मिका होती है और भ्रम एवं संदेह से मुक्त निश्चयात्मिका बुद्धि होती है । निश्चयात्मिका बुद्धि द्वारा यथार्थ निर्णय लिया जाता है और अनिश्चयात्मिक बुद्धि द्वारा लिया गया निर्णय यथार्थ नहीं होता ।  पतंजलि सवितर्क समापत्ति के संबंध में कहते है …

पतंजलि योग समाधिपाद सूत्र - 42 

“ तत्र शब्द अर्थ ज्ञान विकल्पै: संकीर्णा सवितर्का समापत्ति “

सवितर्क समापत्ति में आलंबन के शब्द , अर्थ और ज्ञान , तीनों अंगों के मध्य की दूरी संकीर्ण हो जाती हैं और इस संकीर्णता की स्थिति में समाधि का घटित होना , सवितर्क समापत्ति कहलाती है , यहां समापत्ति का अर्थ भी जान लेना चाहिए…..

समापत्ति का अर्थ  

ध्यान आलंबन के एक से अधिक अंगों का एक साथ चित्त पर उपस्थित रहना , समापत्ति कहलाता है । यहां  पतंजलि समापत्ती शब्द संप्रज्ञात समाधि के लिए प्रयोग कर रहे हैं ।

ऊपर समाधिपाद सूत्र - 42 में महार्षिंक रहे हैं कि जब चित्त एकाग्रता अभ्यास में आलंबन के तीनों अंगों के मध्य की दूरी संकीर्ण हो जाती तब यदि समाधि लग जाती है तो उसे सवितर्क समापत्ति कहते हैं अर्थात शब्द , अर्थ और ज्ञान के भ्रम में समाधि घटित होना सवितर्क समापत्ति कहलाती है । 

अब निर्वितर्क समापत्ति को  समझते हैं …..

पतंजलि योग सूत्र समाधिपाद सूत्र - 43 

स्मृति परिशुद्धौ स्वरूप शून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का 

सवितर्क समापत्ति सिद्धि के बाद निर्वितर्क समापत्ति में प्रवेश मिलता हैं । यहां पहुंचते - पहुंचते स्मृति परिशुद्ध हो गई होती है , भ्रम दूर हो गया होता है और आलंबन का स्वरूप ( शब्द ) शून्य हो कर केवल अर्थ मात्र सूक्ष्म रूप में निर्भासित होता रहता है और इस अवस्था में यदि समाधि लग जाती है तो ऐसी समाधि निर्वितरक समापत्ति कहलाती है । ध्यान रहे कि सवितर्क की दृढ़ भूमि निर्वितर्क समापत्ति में पहुंचाती है। अब समाधिपाद सूत्र - 43 के साथ विभूतिपाद सूत्र - 03 को भी देखते हैं जो संप्रज्ञात समाधि की परिभाषा को दर्शाता है ।

पतंजलि समाधिपाद सूत्र - 43 

स्मृति परिशुद्धौ स्वरूप शून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का 

पतंजलि विभूतिपाद सूत्र : 3

 तत् एव अर्थ मात्र निर्भासं स्वरुपशून्यम् इव समाधि " 

ऊपर के दोनों सूत्रों को ध्यान से देखें

दिनों सूत्रों में स्वरूप शून्य एवं अर्थमात्र निर्भासन् की स्थिति है लेकिन विभूति पाद सूत्र - 03 में स्मृति परिशुधौ की बात नहीं कही गई है । इस प्रकार निर्वितर्क समापत्ति संप्रज्ञात समाधि की उच्च अवस्था होती है ।

 2.विचार 

किसी विषय पर कुछ सोचने एवं सोचकर निश्चय करने की क्रिया , विचार है । मन में उठनेवाली कोई बात ,कोई भावना या कोई खयाल आदि पर मनन करना विचार है । सविचार की दृढ़ भूमि में विचार का शून्य हो जाना , निर्विचार की अवस्था होती है । वितर्क संप्रज्ञात समाधि की भांति विचार संप्रज्ञात समाधि भी सविचार एवं निर्विचार समापत्तियोंं के रूप में दो प्रकार की होती है।

समाधिपाद सूत्र : 44 ( सविचार -निर्विचार समापत्ति )

एतयैव सविचारा निर्विचारा च सूक्ष्मविषया व्याख्याता।।

💐इस प्रकार सवितर्क - निर्वितर्क समापत्ति की ही भांति  सूक्ष्म आलंबन - एकाग्रता में सविचार - निर्विचार समापत्ति को भी समझ जा सकता है ।

सवितर्क , निर्वितर्क , सविचार एवं निर्विचार समापत्तियों को सरल भाषा में समझें ⤵️

जब आलंबन के तीन अंगों - शब्द , अर्थ और ज्ञान के भ्रम में समाधि लग जाती है तो उसे सवितर्क समापत्ति कहते हैं । इसी तरह निर्वितर्क समापत्ति में स्मृति शुद्ध हो गई होती है , आलंबन का स्वरूप अर्थ मात्र भासता रहता है । 

जैसे सवितर्क एवं निर्वितर्क समापत्ति स्थूल आलंबन के अंग पर घटित होती हैं वैसे सूक्ष्म आलंबन अंगों (जैसे अर्थ एवं ज्ञान ) पर सविचार - निर्विचार समापत्ति घटित होती हैं जो अलिंग के बाद तक रहती हैं । अलिंग अर्थात गुणातीत अवस्था तक रहती हैं , यहां देखें निम्न सूत्र को …

समाधिपाद सूत्र : 45 

सूक्ष्मविषयत्वं च अलिंगपर्यवसानम् 

इस प्रकार निर्विचार समापत्ति अलिंग के बाद तक रहती है।

💐अलिङ्ग क्या है ?

लिंग अर्थात जिसका लय होता हो और अलिंग वह जिसका लय न होता हो । प्रकृति की साम्यावस्था अर्थात मूल प्रकृति को अलिङ्ग कहते हैं और प्रकृति के 23 तत्त्व ( बुद्धि , अहंकार , 11 इंद्रियां , 05 तन्मात्र एवं 05 महाभूत ) लिंग कहलाते हैं । 

▶️ निर्विचार समापत्ति से आध्यात्मिक शांति मिलती है 

लेकिन यह शांन्ति भी आलंबन मुक्त नहीं होती

 ( समाधिपाद सूत्र : 47)

▶️ निर्विचार समापत्ति  सिद्धि से प्रज्ञा सात्त्विक वृत्तियों से भर जाती  है  , राजस - तामस गुणों की वृत्तियाँ निर्मूल हो जाती हैं लेकिन जो सात्त्विक वृत्तियाँ रहती हैं वे भी श्रुति - अनुमान आधारित ही होती हैं और इनसे  भी एक संस्कार निर्मित होता  है । श्रुति - अनुमान ज्ञान परोक्ष ज्ञान  या  उधार का ज्ञान होता है ( समाधिपाद : 49 ) ।

▶️ सम्प्रज्ञात समाधि सिद्धि की ऊर्जा में प्रज्ञा ऋतंभरा हो जाती है अर्थात सत्य से भर जाती है ( समाधिपाद : 48 ) , और जिसके प्रभाव में …

▶️ समाधिपाद सूत्र : 50 

तत् अजः संस्कारः अन्य संस्कार प्रतिबंधी 

☸ सत्त्विक संस्कार चित्त के शेष राजस - तामस संस्कारों को नष्ट कर देता तो है लेकिन यह सात्त्विक संस्कार भी एक बंधन ही होता है । अब आगे ….

▶️ समाधिपाद सूत्र : 51 

तस्य , अपि , निरोधे , सर्व , निरोध , 

अन्य , निर्वीजः 

 जब सात्त्विक संस्कार भी निर्मूल हो जाते हैं तब निर्बीज समाधि घटित होती है , जिसे असंप्रज्ञात समाधि कहते हैं।

अर्थात निर्बीज समाधि सिद्धि में पुरुष अपने मूल स्वरूप में स्थित हो जाता है जैसा निम्न समाधि पाद सूत्र - 3 में बताया गया है ⬇️

तदा द्रष्टु : स्वरूपे : अवस्थानम् : सूत्र - 3 】

3.आनंद  

आनंद दो प्रकार का है ; एक आनंद वह है जो त्रिगुणी तत्त्वों के भोग से हमें इंद्रियों एवं स्थूल देह के माध्यम से अनुभव होता है और दूसरा आनंद ब्रह्मानंद है जो बाह्यमुखी नहीं अंतर्मुखी होता है , जो हृदय में उठता है और उठा ही रह जाता है । सांसारिक आनंद आता और जाता रहता है लेकिन ब्रह्मानंद ऐसा नहीं होता , इस आनंद में योगी मतवाला बना रहता है जिसे सांसारिक लोग औघड़ या पागल बाबा कहते हैं। ब्रह्मानंद का मतवाला योगी प्रकृतिलय एवं विदेह योगी होता है । 

गीता अध्याय 06 श्लोक : 18 - 23 योगयुक्त योगी से संबंधित हैं जो 

अति इंद्रिय आत्यन्तिक आनंद में स्थित होता है । आत्यंतिक का अर्थ है जिसका कभीं  अंत न हो । आनंद सम्प्रज्ञात समाधि में डूबे योगी की भी ऐसी ही स्थिति होती है ।

योग में चरम आनन्द की अवस्था को समाधि कहते हैं जिसमें मनुष्य असीम दिव्य आनन्द प्राप्त करता है और इसमें स्थित मनुष्य परम सत्य के पथ से विपथ नहीं होता।

रसो वै सः , रसँ ह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति ।। (तैत्तिरीयोपनिषद्-2.7) -  "भगवान स्वयं आनन्द है। जीवात्मा उसे पाकर आनन्दमयी हो जाती है।"

आनन्दमयोऽभ्यासात्" (ब्रह्मसूत्र-1.1.12) "भगवान परमानंद का वास्तविक स्वरूप है " सत्यज्ञानानन्तानन्दमात्रैकरसमूर्तयः। (श्रीमद्भागवतम्-10.13.54)  अर्थात  "भगवान का दिव्य स्वरूप सत्-चित्-आनन्द से निर्मित है।" 

4.अस्मिता > अहं भाव को अस्मिता कहते हैं । अस्मिता के संबंध में पतंजलि साधनपाद सूत्र - 6 को देखें , जो  निम्न प्रकार है …

दृग - दर्शन शक्ति का  एक हो जाना , अस्मृता है अर्थात द्रष्टा पुरुष स्वयं को चित्त समझ लेना , अस्मिता। संप्रज्ञात समाधि सिद्धि में चित्ताकार चित्त केंद्रित पुरुष को अपने मूल स्वरूप का बोध हो जाता है और वह समझने लगता है वह चित्त नहीं , अपितु वह शुद्ध चेतन एवं निर्गुण है ।

5.रूप का अर्थ क्या है ? 

 स्वरूप या आकार को रूप  कहते हैं । 

6.अनुगमात् शब्द का अर्थ क्या है ? 

यह शब्द अनुगमन शब्द से बना है जिसका अर्थ है पीछे - पीछे चलना ।

7.संप्रज्ञात शब्द  का अर्थ क्या है ? 

यह शब्द सम्यक + प्र +  ज्ञान से बना है  जिसका अर्थ है किसी वस्तु या विषय का पूर्ण और शुद्ध ज्ञान का होना , इसे समझते हैं ..

क्षिप्ति, मूढ़ , विक्षिप्त , एकाग्रता और निरु चित्त की 05 भूमियां हैं । इन भूमियों में प्रारंभिक 03 भूमियों को निम्न भूमियां एवं आखिरी 02 भूमियों को चित्त की उच्च भूमियां कहते हैं । 

चित्त जब निम्न भूमियों में भ्रमण करता है तब राजस एवं तामस गुणों की वृत्तियों से अधिक प्रभावित रहता है और वह भोगमुखी रहता है लेकिन एकाग्रता एवं निरु भूमियों वाला चित्त सात्त्विक गुण की वृत्तियों में होने के कारण समाधिमूखी रहता है । समाधिमुखी योगी को सम्प्रज्ञात समाधि की अनुभूति 04 प्रकार से मिलती है जैसा समाधिपाद सूत्र -17 में बताया जा चुका है । 

इस प्रकार ऊपर स्पष्ट किए गए समाधिपाद सूत्र - 17 के सभीं 07 शब्दों के भावों को समझने से संप्रज्ञात समाधि के रहस्य को समझा जा सकता है ।

संप्रज्ञात समाधि आलंबन आधारित समाधि हैं । धारणा एवं ध्यान की सिद्धि से वितर्क , विचार , आनंद एवं अस्मिता की अनुभूति में डूबे हुए योगी को संप्रज्ञात समाधि घटित होती है। पतंजलि योग दर्शन में संप्रज्ञात समाधि से कैवल्य की यात्रा प्रारंभ होती है । जब धारणा , ध्यान और संप्रज्ञात समाधि एकसाथ घटित हो रहे होते हैं तब इस योगी की स्थिति को संयम कहते हैं । संयम से नाना प्रकार की सिद्धियां मिलती हैं जो कैवल्य यात्रा को खंडित करती हैं लेकिन जो इन सिद्धियों से अप्रभावित रहते हुए योग साधना को आगे बढ़ाता रहता है , वह योगी कैवल्य में पहुंच जाता है ।

~~ ॐ ~~

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