Tuesday, December 16, 2025

वेदांगों की साधना


04 वेदांग वेद - साधना के 04 चरण हैं 

वर्तमान में 04 वेद हैं और हर वेद के अपने - अपनें चार अंग हैं , जैसा नीचे दिखाया गया है ⤵️

आदि सतयुग में प्रसव ,एक वेद, नारायण , एक देवता और हंस , एक धर्म था । एक वेद समयांतर में यह एक वेद तीन वेदों में रूपांतरित हो गया और आज चार वेद उपलब्ध हैं। यह वेद विकास , मनुष्य -विकास से जुड़ा हुआ है।

इच्छित सांसारिक भोग प्राप्ति से नैसर्गिक भोग प्राप्ति ( स्वर्गप्राप्ति

 ( यहां देखें गीता : 2.42 - 2.4.46 ) तक और माया बोध से जीवात्मा - ब्रह्म के एकत्व के रहस्य तक की यात्रा , वेद अपनें - अपनें अंगों के माध्यम से कराते हैं। नीचे स्लाइड में देखें कि किस प्रकार से चार वेद ब्रह्म की अनुभूति कराते हैं।

पिछले अंक में  कर्म ,उपासना और ज्ञान , वेद के तीन कांडों के संबंध में कुछ मूल बातों को समझने की कोशिश की गई थी और अब इस अंक में 04 वेदांगों के परिचय करते हैं।

 हर वेद के अपने - अपनें निम्न चार - चार अंग हैं।

संहिता ( मूल मंत्रों का संग्रह )

     ↓

ब्राह्मण (वैदिक कर्म और यज्ञ की विधियाँ) 

     ↓

आरण्यक (स्वाध्याय) 

     ↓

 उपनिषद (तत्त्व ज्ञान से कैवल्य मुखी)


 इसी तरह सभी वेदों के अपनें - अपनें देवता और यज्ञ भी  हैं। 

हर वेद की एक या एक से अधिक संहिताएं हैं। वेद के मूल मंत्रों के संग्रह को उस वेद की संहिता कहते हैं। संहिताओं के आधार पर हर वेद के शेष अंगों (ब्राह्मण,आरण्यक ,उपनिषद)  की रचना की गई हैं । 

वेदों के ब्राह्मण ग्रंथों में यज्ञों के बारे में पूरा विज्ञान मिलता है जो कर्मयोग साधना की पूरी गणित देते हैं। जब ब्राह्मण ग्रंथों की आधार पर की जाने वाली साधना की सिद्धि मिल जाती है तब वह साधन अंतर्मुखी हो जाता है और एकांगी जीवन जीने के गृहस्थ जीवन से वानप्रस्थ जीवन जीने लगता है और वह अरण्य में जानकर आरण्य ग्रंथों के आधार पर अपनी वेद साधना को आगे बढ़ाता है ।

जब वानप्रस्थ साधना की उच्च भूमि मिल जाती है तब वह साधन आरण्यक साधना से उपनिषद् साधना में प्रवेश कर जाता है। उपनिषद् को वेदांत कहते हैं । 

संहिता , ब्राह्मण और आरण्यक की साधना सिद्धियों से वेद के तीन कांडों में से कर्म और उपासना कांडों की सिद्धि तो मिल जाती है लेकिन इन सिद्धियों से जो साधना की उच्च भूमि मिलती है ,वह उपनिषद् साधना का द्वार खोलती है ।उपनिषद् की साधना की उच्च भूमि मिलने पर ब्रह्म की अनुभूति होने लगती है और वह साधक कैवल्यमुखी रहने लगता है।

निराकार की अनुभूति के लिए साकार का सहारा लेना होता है , अव्यक्त को समझने के लिए व्यक्त में डूबना पड़ता है और ब्रह्म की अनुभूति , माया बोध का फल है ।

अब आगे …

अब वेद साधना में और आगे बढ़ने से पहले श्रीमद्भागवत पुराण के निम्न सूत्रों को पीते हैं और इनको पीने से जो ऊर्जा मिलेगी , वह आगे की साधना यात्रा को और सुगम बना देगी ।

भागवत : 10.2 > मन और वेद वाणी से प्रभु स्वरूप का केवल अनुमान भर लगता है ।

भागवत :11.3.1 > भक्त माया का दृष्टा होता है।

भागवत :3.26 > भक्ति से ज्ञान मिलता है।

भागवत :11.19 > सबके होने का कारण , ब्रह्म को देखना , ज्ञान है। 

भागवत :2.2 > ज्ञान से चित्त की वासनाएं निर्मूल होती हैं।

चार वेदों में  ऋग्वेद शेष तीन वेदों की जननी है क्योंकि यजुर्वेद , सामवेद और अथर्ववेद में क्रमशः 40 % , 95% और 20% मंत्र , ऋग्वेद के हैं , वेद संबंधित देखें निम्न तालिका में दी गई सूचनाओं को …

ऋग्वेद

*यजुर्वेद

सामवेद

अथर्ववेद

मंत्र संख्या

  10552

मंत्र संख्या

शुक्ल 1975

कृष्ण 2086

मंत्र संख्या

1875

मंत्र संख्या

5977

40% 

मंत्र ऋग्वेद के हैं

95% मंत्र ऋग्वेद के हैं

लगभग 80 मंत्रों को छोड़ शेष मंत्र ऋग्वेद के हैं 

20% मंत्र ऋगवेद के हैं 

सभी मंत्र

 # देवता जैसे इंद्र ,वरुण , अग्नि और सोम आदि के स्तुति मंत्र हैं

इस वेद के मंत्र यज्ञ - कर्मकांड से संबंधित हैं 

येआह वेद संगीत का विज्ञान है।


इस वेद के मंत्र तंत्र,जादू , विवाह स्वास्थ्य, रोग और शांति से संबंधित हैं।

10 मंडल और 1028 ∆सूक्त हैं

ऋग्वेद के 8वे - 9 वे मंडल से मंत्र लिए गए हैं।  

संहिता में 20 कांड और 730 सूक्त हैं।

आइए! अब चार वेदांगों की यात्रा पर निकलते हैं …

नीचे दिए गए टेबल में चार वेदों के अंगों की स्थिति को दिखाया जा रहा है …..

04 वेदों के अंगों की संख्याएं

वेदांग

ऋग्वेद

यजुर्वेद

सामवेद

अथर्ववेद 

संहिता

01

शुक्ल 2

कृष्ण 4

03

02

ब्राह्मण

02

2+2

04

01

आरण्यक

02

1+1

02

00

उपनिषद् 

10

19

32

16

31


04 वेदों के अंगों के बारे में क्रमशः …

वेद ➡️

अंग ⤵️

ऋग्वेद

यजुर्वेद

सामवेद

अथर्ववेद

संहिता


📕

01 

शाकल 

कृष्ण

04

°तैत्तिरी

°मैत्रायणी °कठ 

°कपिष्ठल 

शुक्ल

02

°माध्यंदिन वाजसनेयी °काण्व  वाजसनेयी

03

°कौथुमी °राणायनीय

°जैमिनीय 



02

शौनकीय

पैप्पलद


ब्राह्मण

📔





02

°ऐतरेय °कौषीतकि

कृष्ण

02

°तैत्तिरीय °मैत्रायणी

शुक्ल

02

°माध्यंदिन शतपथ  °काण्व शतपथ

04 °पंचविंश °शड्विंश °सांखायन °जैमिनीय 


  01

गोपथ

आरण्य

📘

02

°ऐतरेय °कौषीतकि


कृष्ण

01

°तैत्तिरीय

शुक्ल

01

°बृहदारण्यक

01

जैमिनीय

00

📚

उपनिषद्

10

शुक्ल19कृष्ण 32

16

31


चार वेदांगों का सार 

निम्न टेबल में संहिता , ब्राह्मण , आरण्यक और उपनिषद् की एक झलक देखी जा सकती है जिससे वेद जिज्ञासा और सघन होती है …

क्र. सं.

वेदांग 

वेदांगों से परिचय 

1

📕

संहिता

संहिता शब्द  ,संकलित शब्द आधारित है। वेद के मूल सूक्तों/मंत्रों के संग्रह का नाम , संहिता  है। संहिता के मंत्रों पर उस वेद के अन्य अंगों की रचना हुई है। संहिता वेद का मूल ग्रन्थ होती है।

2

📔

ब्राह्मण

कर्मकांड अर्थात यज्ञ एवं यज्ञ - विधियों का विस्तृत विवरण, व्याख्या आदि वेद के ब्राह्मण ग्रन्थ के विषय हैं । इनका विकास गृहस्थ यजमानों के लिए किया गया है जिससे वे प्रवृत्तिपरक कर्म माध्यम से निवृत्तिपरक कर्मों में पहुंच सकें।

3

📘

आरण्यक

आरण्य से आरण्यक शब्द है।आरण्य में रह रहे वानप्रस्थ जीवन जीने वालों के लिए साधना की उच्च भूमियों को प्राप्त करने के लिए आरण्यक रचे गए हैं । जहां ब्राह्मण ग्रन्थ की साधना समाप्त होती है , वहां से आरण्यक ग्रन्थ आधारित साधना प्रारंभ होती है।

4

📚

उपनिषद्

जहां आरण्यक ग्रंथों की साधना समाप्त होती हैं , वहीं से उपनिषद् आधारित साधना प्रारंभ होती है। उपनिषद् ऐसे साधकों के लिए हैं जो ब्राह्मण एवं आरण्यक माध्यम से साधना की उच्च भूमियों में पहुंच चुके होते है , वैराव्यवस्था में होते हैं और कैवल्य मुखी होते हैं। उपनिषद् ज्ञान योग के ग्रन्थ हैं जो माया से ब्रह्म की अनुभूति कराते हैं।


 वेदों के चार अंग (संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद) न केवल पारस्परिक रूप से जुड़े हुए हैं, बल्कि वास्तव में ये ज्ञान प्राप्ति की ओर ले जाने वाली चार सीढ़ियाँ हैं। इनका क्रम एक गहन दार्शनिक यात्रा को दर्शाता है, जो बाह्य कर्मकांड से शुरू होकर आंतरिक आत्मज्ञान तक पहुँचता है। आइए इनके पारस्परिक संबंध और इस यात्रा को समझते हैं।

सार तत्त्व 

संहिता (मंत्र) >मंत्रों का शुद्ध उच्चारण करने का अभ्यास , वेद साधना का पहला चरण है ।

     ↓

ब्राह्मण (यज्ञ की विधियाँ) > प्रवृत्ति परक कर्म का  निवृत्ति परक कर्म में बदलने जाना , ब्राह्मण ग्रन्थ साधना का फल हैं।

     ↓

आरण्यक (आंतरिक साधना, प्रतीक, ध्यान) > इंद्रियों का रुख बाहर से अंदर की ओर हो जाना, आरण्यक ग्रन्थ साधना के अभ्यास का फल है।

     ↓

 उपनिषद (ज्ञान, आत्मा-ब्रह्म की एकता) > मायामुक्त चिंतन का ब्रह्ममुखी हो जाने का अभ्यास अर्थात ब्रह्म केंद्रित होने का कारण , उपनिषद् साधना से प्राप्त ऊर्जा का परिणाम है। ब्रह्म केंद्रित साधक कैवल्य के द्वार पर होता हैं।

ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद कोई "अलग दर्शन" नहीं हैं, इन्हें वेद के "तन्त्र भाग" की भांति समझना उचित है। अगले अंक में वेद माध्यम से ब्रह्म एकत्व की अनुभूति के संबंध में यात्रा की जाएगी। वेद माध्यम से ब्रह्म से एकत्व की अनुभूति प्राप्त करने की साधना  वैदिक प्रवृत्तिपरक कर्मों में कर्म बंधनों का त्याग हो जाना, निवृत्तिपरक कर्मों के द्वार को खोलता है । जन निवृत्तिपरक कर्म की सिद्धि मिलती है , जिसे नैष्कर्म्य की सिद्धि कहते हैं तब ज्ञानयोग में प्रवेश मिलता है । यहां तक कि साधना में अंतःकरण में राजस एवं तामस गुणों की वृत्तियों का आवागम समाप्त हो गया होता है और केवल सात्त्विक गुण की वृत्तियों का आवागमन बना रहता है । यह अवस्था अपरा वैराग्य की होती है।

जब ज्ञानयोग साधना दघन गो जाती है तब सात्त्विक गुणों की वृत्तियों का अंतःकरण में चल रहा आवागमन भी समाप्त हो जाता है और अंतःकरण एक दर्पण जैसा हो जाता है। साधना की इस अवस्था में निर्विकल्प समाधि घटने लगती है और मैं , मेरा , तूं और तेरा का भाव निर्मूल हो गया होता है और समाधि में ब्रह्म की ऐसी अनुभूति होने लगती है जिसे व्यक्त नहीं किया जा सकता। यह वह अवस्था होती है जहां सिद्धि प्राप्त योगी , सिद्धियों से अप्रभावित रहते हुए ब्रह्मवित् होता है और ऐसे योगी का वेदों से ऐसा संबंध होता है जैसा श्रीमद्भगवद्गीता श्लोक : 2.46 में बताया गया है …

यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके।

तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः॥४६॥

जैसे सर्वत्र जल से परिपूर्ण बड़े जलाशय के मिल जाने पर छोटे कुएँ या तालाब का कोई विशेष उपयोग नहीं रह जाता, वैसे ही आत्मतत्त्व को जान लेने वाले ब्रह्मज्ञानी के लिए सम्पूर्ण वेदों का उपयोग उतना ही रह जाता है (अर्थात् व्यावहारिक रूप से कोई विशेष प्रयोजन नहीं रहता, क्योंकि वह वेदों के परम लक्ष्य को प्राप्त कर चुका होता है)।

यह अवस्था , कैवल्य प्राप्ति के ठीक पहले की होती है।

वेद चाहे कोई हो उसके चार अंग इस वेद - उपासना की चार सीढियां हैं। बेड संहिता के मूल मंत्रों का गहन अभ्यास उस वेद के ब्राह्मण ग्रंथों में पहुंचाताहै । ब्राह्मण ग्रंथों के आधारणपर की जाने वाली साधना उस वेद के आरण्यक ग्रंथों में पहुंचाती है । आरण्यक ग्रंथों पर आधारित की जाने वाली साधना से उस वेद के चौथे अंग उपनिषद् में प्रवेश मिलता है। उपनिषद् की साधना की सिद्धि मिलने पर ब्राह्मवित् की अवस्था मिलती है । इस प्रकार वेद के 04 अंगों की साधना की सीढ़ी पर निम्न क्रम से ऊपर चढ़ा जाता है 

 संहिता ( मूल मंत्रों का संग्रह )

     ↓

ब्राह्मण (वैदिक कर्म और यज्ञ की विधियाँ) 

     ↓

आरण्यक (स्वाध्याय) 

     ↓

 उपनिषद (तत्त्व ज्ञान से कैवल्य मुखी)

उपनिषद् को वेदांत क्यों कहा जाता है , संभवतः अबतक स्पष्ट हो जाना चाहिए। उपनिषद् की साधना से ब्रह्म एकत्व की अनुभूति का होते रहना , एक दिन कैवल्य में पहुंचा देती है जिसे मोक्ष भी कहा जाता है अर्थात आवागमन से मुक्त हो जाना।

।।।।। ॐ ।।।।।


Monday, September 1, 2025

कर्म से ज्ञान और ज्ञान से कैवल्य की यात्रा मार्ग का नाम उपासना है


       

संदर्भ : श्रीमद्भागवत पुराण 11.21.35 

             श्रीमद्भगवद्गीता : 3.5 , 3.27 , 3.28 

कोई भी जीवधारी पल भर के लिए भी कर्म मुक्त नहीं रह सकता , कर्म तो करते ही रहना हैं क्योंकि कर्म करता , हम नहीं , हमारे अंदर हर पल बदल रहे तीन गुण हैं और हमारे अंदर कर्म  करता का भाव अहंकार की उपज है। गुण विभाग और कर्म विभाग को समझते हुए ज्ञानी दृष्टा भाव में कर्म बंधनों से अप्रभावित रहते हुए कर्म करते रहते हैं। 

श्रीमद्भगवद्गीता में सकाम और निष्काम - दो प्रकार के कर्म बताए गए हैं और वेदों में प्रवृत्ति परक एवं निवृत्ति परक दो प्रकार के वैदिक कर्म बताए गए हैं । आसक्ति , कामना , काम , क्रोध , लोभ ,मोह ,भय , आलस्य और अहंकार , कर्म बंधन या कर्म तत्त्व हैं । जब कर्म होने का कारण कर्म बंधन होते हैं तब उस कर्म को सकाम या प्रवृत्ति परक कर्म कहते हैं और इसके विपरीत जो कर्म होते हैं अर्थात कर्म बंधनों से अप्रभावित रहते हुए जो कर्म होते हैं , उन्हें निष्काम या निवृत्ति परक कर्म कहते हैं ।

वेदों में तीन काण्ड  हैं - कर्म , उपासना और ज्ञान । कर्म के संबंध में ऊपर बताया जा चुका है । कर्म से ज्ञान की यात्रा का नाम है उपासना जिसे अभ्यास योग भी कह सकते हैं। कर्म करते हुए कर्म बंधनों को समझने का अभ्यास उपासना है । जब उपासना फलित होती है तब तीन गुणोंमें से राजस एवं तामस गुणोंकी वृत्तियों से मुक्त रहते हुए अंतःकरण ( मन , बुद्धि और अहंकार ( सात्त्विक गुणों की वृत्तियों पर केंद्रित रहने लगता है। जब यह अवस्था और सघन होती जाती है तब संप्रज्ञात ( साकार या सविकल्प) समाधिघटने लगती है। जब सात्त्विक गुण से भी अंतःकरण मुक्त हो जाता है तब असंप्रज्ञात ( निराकार या निर्विकल्प ) समाधि घटने लगती है और इस अवस्था में ज्ञान की ऊर्जा अंतःकरण में भरने लगती है। ज्ञानी सत्य और असत्य को स्पष्ट रूप से देखने लगता है।

चार वेदों में से जब किसी एक वेद के माध्यम से साधना - अभ्यास किया जाता है तब कर्म से उपासना और उपासना से ज्ञान की प्राप्ति होती है। ज्ञान कैवल्यमुखी बनाए रखता है ।


Monday, August 18, 2025

बूढ़ा केदार की यात्रा



केदार नाथ से बूढ़ा केदार की यात्रा 

यात्रा मार्ग ⤵️

स्थान

दूरी km 

ऊंचाई 

केदारनाथ

00

3583

सोनप्रयाग

20

1829

त्रियुगी नारायण

15

1980

पन्वाली काँठा 

12

2900

घत्तु - हठकुणी

10

विनयखाल - 

बूढ़ा केदार

15

1340

योग

 (4-5 दिन की यात्रा )

72 km 


2243 m उतराई @ 31m/km 


बूढ़ा केदार मंदिर के पुजारी जब देह त्यागते हैं तब उन्हें मंदिर परिसर में ही  भूमि समाधि दी जाती है। बूढ़ा केदार के  पुजारी , नाथ संप्रदाय के राजपूत (कान छिदे हुए) होते है न कि ब्राह्मण। बूढ़ा केदार क्षेत्र के लोग केदारनाथ दर्शन करने नहीं जाते।

 टिहरी झील से 40 km घमसाली है जहां से जीप द्वारा लगभग 2 घंटे की 20 - 25 km की यात्रा , बूढ़ा केदार की है।   बाल गंगा नदी के समानांतर घमसाली से उत्तर - पश्चिम दिशा में बूढ़ा केदार का मंदिर बालगंगा एवं धर्म गंगा संगम पर स्थित है। केदारनाथ मंदिर हरिद्वार से लगभग 215km सड़क मार्ग से तथा लगभग 20 km की चढ़ाई की यात्रा है । यह मंदाकिनी के तट पर स्थित है । बूढ़ा केदार में रुकने के लिए सीमित धर्मशालाएँ उपलब्ध है।

केदारनाथ से बूढ़ा केदार के यात्रा मार्ग का विस्तृत विवरण ⤵️

1.यात्रा केदारनाथ मंदिर से दक्षिण - पश्चिम दिशा में स्थित सोनप्रयाग की खड़ी उतराई से प्रारंभ होती है।

2. सोनप्रयाग से आगे त्रिजुगीनारायण पहुंचते। सोनप्रयाग से त्रिजुगीनारायण तक का मार्ग घने जंगलों और ढलानों से होकर गुजरता है। यह स्थान एक प्राचीन विष्णु मंदिर के लिए प्रसिद्ध है और पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, यह स्थान शिव-पार्वती विवाह का स्थान है ।

3.त्रिजुगीनारायण से पंवाली कांठा की चढ़ाई शुरू होती है। यह मार्ग का सबसे दुर्गम हिस्सा है, जहाँ खड़ी चढ़ाई , खड़ी ढलान और संकरे रास्ते हैं। मौसम साफ होने पर यहाँ से हिमालय के शानदार दृश्य दिखाई देते हैं।

4.पंवाली कांठा से उतरकर घुत्तू गाँव पहुँचते हैं, जिसके आगे  हटकुणी गाँव आता है जहां स्थानीय घरों में आवास या भोजन की सुविधा उपलब्ध है।

5.हटकुणी से विनयखाल होते हुए बूढ़ा केदार मंदिर पहुंचते हैं । 


यात्रा की प्रमुख चुनौतियाँ और सुझाव

अप्रैल-जून में बर्फबारी से रास्ता कठिन हो जाता है। पंवाली कांठा दर्रा विशेष रूप से खतरनाक है। यात्रा में 4-5 दिन लगते हैं। अनुभवी ट्रेकर्स या स्थानीय गाइड के साथ समूह में यात्रा करनी चाहिए। आवश्यक सामान (टेंट, राशन, फर्स्ट-एड किट) साथ ले जाएँ। मई-जून और सितंबर-अक्टूबर उपयुक्त महीने हैं। जुलाई-अगस्त (मानसून) में भूस्खलन और सर्दियों में भारी बर्फबारी से बचें ।

 रास्ते में आवास और भोजन की सीमित सुविधाएँ हैं। बूढ़ा केदार में शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाओं का अभाव है। 

मार्ग के धार्मिक और प्राकृतिक आकर्षण

मान्यता है कि इस मार्ग से पांडव स्वर्गारोहण के लिए गए थे और बूढ़ा केदार में शिव ने उन्हें वृद्ध संन्यासी के रूप में दर्शन दिए थे । बूढ़ा केदार के दर्शन के बिना केदारनाथ यात्रा अधूरी मानी जाती है। यात्रा के दौरान महासर ताल, सहस्त्र ताल जैसी झीलें और बालखिल्य ऋषि आश्रम भी देखना चाहिए । बालगंगा-धर्मगंगा का संगम अद्भुत दृश्य प्रस्तुत करता है। बूढ़ा केदार को  पांचवाँ धाम कहा जाता है, क्योंकि यह यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ के मध्य स्थित है । 

स्थानीय लोग अक्सर केदारनाथ की बजाय बूढ़ा केदार के दर्शन को ही पर्याप्त मानते हैं, क्योंकि यहाँ के शिवलिंग की महत्ता केदारनाथ के समान है । यह यात्रा धार्मिक श्रद्धा और प्राकृतिक साहसिकता का अनूठा संगम है, लेकिन इसे केवल अनुभवी पैदल यात्रियों या स्थानीय गाइड की सहायता से ही करना उचित है। यात्रा ग्रुप में करनी चाहिए। 

प्राचीन काल में यह केदारनाथ जाने का प्रमुख मार्ग था। 

बूढ़ा केदार मंदिर परिसर में 18 फीट गहरा कुआँ है, जिसके जल से गौमय की गंध आती है ।  इस कुआं को भोलागंगा कूप या गौमुख कूप भी कहा जाता है। 

पानी से आने वाली गौमय (गोबर जैसी ) गंध के बारे में कुछ प्रमुख बातें ….

भूगर्भीय दृष्टिकोण से, उत्तराखंड का यह क्षेत्र युवा हिमालय पर्वतमाला में स्थित है, जहाँ विभिन्न प्रकार की चट्टानें और खनिज मौजूद हैं। ऐसा संभव है कि कुएँ के जलस्रोत में सल्फर (गंधक) या अन्य खनिजों की अधिक मात्रा मौजूद हो , हाइड्रोजन सल्फाइड (H₂S)जैसी गैसें, जो प्राकृतिक रूप से कुछ भूमिगत जलस्रोतों या ज्वालामुखीय क्षेत्रों में पाई जाती हैं जो सड़े हुए अंडे या गोबर जैसी तीखी गंध पैदा करती हैं। पानी में कार्बनिक पदार्थों के विघटन से भी ऐसी गंध उत्पन्न हो सकती है, विशेषकर अगर जल प्रवाह धीमा हो या स्रोत सीमित हो। मान्यता है कि इस कुएँ का पानी अमृततुल्य है और इसका सेवन करने से पापों का नाश होता है तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है। श्रद्धालु इस पानी को पीते हैं और अपने साथ ले जाते हैं। यह गंध उनके लिए इसकी पवित्रता और दिव्यता का प्रमाण होती है। 


गंध का वास्तविक कारण की वैज्ञानिक संभावना

यह गंध स्थानीय भूगर्भीय विशेषताओं  का परिणाम है।

 भूजल में हाइड्रोजन सल्फाइड (H₂S)गैस मिलने पर सड़े अंडे या गोबर जैसी तीखी गंध आती है। उत्तराखंड के कई हॉट स्प्रिंग्स (जैसे सूरतकुंड, गरम पानी) में यह गंध मिलती है। सीमित भूमिगत जलभृत में कार्बनिक पदार्थों (पत्तियाँ, मिट्टी) के सड़ने से भी ऐसी गंध उत्पन्न हो सकती है। चूना पत्थर (लाइमस्टोन), शेल या जिप्सम युक्त चट्टानों के संपर्क में आने वाला जल कभी-कभी अजीब गंध देता है।

इस संबंध में निम्न दो अन्य उदाहरण भी देखें ..

  1.हरिद्वार के हर की पौड़ी के जल में भी कभी-कभी विशिष्ट गंध आती है, जिसका कारण जैविक/खनिज तत्व हैं, पर श्रद्धालु इसे गंगा की पवित्रता मानते हैं।

  2.प्रयागराज में भारद्वाज कूप  के पानी में भी सल्फर गंध है, जिसे पवित्र माना जाता है।

।। ॐ ।। 

Friday, August 8, 2025

एक अमेरिकन लड़की का नंदा देवी पर्वत से क्या संबंध रहा होगा !


अमेरिकन नंदा देवी लड़की भारत की नंदा देवी शिखर में समा गई , कैसे ! देखिए यहां ⤵️



अमेरिका में जन्मी नंदा देवी अनसोएल्ड (Nanda Devi Unsoeld) का संबंध भारत के नंदा देवी पर्वत के साथ एक दुखद घटना से है।

 उनके पिता, विली उनसोएल्ड (Willi Unsoeld , जिनकी फोटो ऊपर दी गई है ) , एक प्रसिद्ध अमेरिकन पर्वतारोही थे, जिन्होंने 1963 में माउंट एवरेस्त के पश्चिमी रिज से पहली बार सफल चढ़ाई की थी। इनका भारत की नंदा देवी पर्वत से इतना प्यार था कि उन्होंने अपनी बेटी का नाम नंदा देवी रख दिया था । दरअसल सन् 1949 में वे खुद नंदा देवी पर्वत के अध्ययन अभियान में शामिल हुए थे। सन् 1976 में, विली अनसोएल्ड ने अपनी बेटी नंदा देवी को लेकर नंदा देवी पर्वत के एक अभियान में भाग लिया। इस दौरान उनकी 22 वर्षीय नंदा देवी देती को अल्टीट्यूड सिकनेस (ऊंचाई की बीमारी) के गंभीर लक्षण दिखाई दिए। उनके शरीर में जन्मजात एक गुर्दे की समस्या (किडनी की असामान्य स्थिति) थी, जिसके कारण ऊंचाई पर शरीर में तरल पदार्थों का संतुलन बिगड़ गया। हालांकि टीम ने उन्हें नीचे लाने की कोशिश की, लेकिन 1 नवंबर 1976 को बन्द देवी चढ़ाई में उनकी मृत्यु हो गई। 

उच्च हिमालयी क्षेत्रों में मृतकों के शवको नीचे लाना अक्सर संभव नहीं होता। इसलिए, नंदा देवी के शव को पर्वत की गोद में ही छोड़ दिया गया। इस तरह, वह सदियों से पूजे जाने वाले इस पवित्र पर्वत का हिस्सा बन गईं। कई लोग इसे आध्यात्मिक संयोग मानते हैं कि जिस पर्वत के नाम पर उनका नाम रखा गया था, उसी में उनकी अंतिम विश्रामस्थली बनी।

नंदा देवी पर्वत को स्थानीय लोग देवी का निवास मानते हैं और इसे पवित्र समझा जाता है। इस घटना ने पर्वतारोहण जगत में गहरी छाप छोड़ी, क्योंकि यह एक पिता-पुत्री के रिश्ते और प्रकृति की निर्ममता की मार्मिक कहानी है। इस प्रकार, नंदा देवी उनसोएल्ड का जीवन और मृत्यु नंदा देवी पर्वत के साथ एक अद्वितीय और भावनात्मक कड़ी बन गई। 

उत्तराखंड में नंदा देवी राज जात यात्रा संभवतः संसार की सबसे बड़ी धार्मिक यात्रा होगी जो हर 12 वर्ष में एक बार निश्चित समय में मनाई जाती है । इस यात्रा में Nauti गांव से पैदल यात्रा होमकुंड में जा कर समाप्त होती है । इस यात्रा का संबंध नंदा को मायके से  ससुराल (कैलाश ) भेजने से है ।

।।। जय मां नंदा देवी ।।।।


Sunday, July 13, 2025

क्या आप काशी तीर्थ यात्रा पर जा रहे हैं


क्या आप काशी तीर्थ - यात्रा पर जा रहे हैं ? यदि हां …

तो इस तीर्थ यात्रा को तीर्थ समागम में बदलने की जिज्ञासा गहरी होनी चाहिए। तीर्थ यात्रा पर निकलने से पहले  तीर्थ यात्रा और तीर्थ समागम को समझ लें । तीर्थ शब्द संस्कृत धातु तॄ से बना है जिसका अर्थ होता है - तरना अर्थात संसार - सागर से पार ले जाना । इस प्रकार तीर्थ यात्रा का अर्थ हुआ मायामुक्त होने का मार्ग। अब तीर्थ समागम को समझ लेते हैं। तीर्थ यात्रा तीर्थ तक पहुंचा कर तीर्थ में लीन हो जाती है। तीर्थ में पहुंचने के साथ तीर्थ समागम प्रारंभ हो जाना चाहिए। समागम शब्द का अर्थ है मिलन, संयोग या जुड़ना। जैसे अंधेरे में पड़े वस्तु को देखने के लिए दीपक की रोशनी चाहिए वैसे त्रिगुणी माया के अंधेरे में स्थित निर्गुणी के दर्शन के लिए तीर्थ समागम से प्राप्त रोशनी की आवश्यकता पड़ती है।

 तीर्थ समागम निम्न तीन स्तरों पर घटित होता है…

   भौतिक स्तर पर तीर्थ स्थल में होने पर अपने सभी द्वारों को खोज देना चाहिए जिससे तीर्थ क्षेत्र की दिव्य ऊर्जा बाहर से अंदर भरने लगे , लेकिनयह कैसे संभव है ? इस प्रश्न के साथ दूसरा स्तर प्रारंभ होता है जिसे साधनात्मक स्तर कहते हैं । तीर्थ क्षेत्र में देव पूजन करना , संतो की संगति करना और शास्त्रों पर हो रही चर्चाओं में ऐसे डूब जाना जिससे आपका अतः कारण ( मन , बुद्धि और अहंकार ) पूर्ण रूप से शून्य होने लगे । जब ऐसा लक्षण दिखानेंलगे तब इस स्थिति के साथ तीसरा स्तर - आध्यात्मिक स्तर प्रारंभ होता है। भौतिक स्तर और साधनात्मक स्तर की सिद्धि प्राप्त हो जाने के बाद तीर्थ यात्री , यात्री नहीं रह जाता , वह तीर्थमुखी रहने लगता है और तीर्थ की दिव्य ऊर्जा में वैसे घुलने लगता है जैसे पानी में नमक का टुकड़ा घुलता है। 

जब उसका तीर्थ - आगमन हुआ था , उस समय वह  त्रिगुणी माया में डूबा हुआ एक यात्रा था लेकिन तीर्थ समागम से वह त्रिगुणी न रह कर केवल सत् गुणी रह जाता है । इस अवस्था में उनके चित्त में केवल और केवल सात्त्विक गुणों की वृत्तियों का आवागमन बना रहता है । धीरे - धीरे वह भी स्थिति आती है जब वह इस सात्त्विक गुण की वृत्तियों से भी मुक्त हों जाता है। फिर क्या होता है ? रह - रह कर वह समाधि में उतरने लगता है । जैसे - जैसे समाधि सघन होती जाती है तब उसे उस काशी में मूल काशी दिखने लगती है । निराकार , उसके लिए साकार दिखने लगता है और वहां की दिव्य ऊर्जा सिद्धों के रूप में उसे साधना की उच्च भूमियों में पहुंचनें में मदद करने लगती है और इस प्रकार वह स्वयं तीर्थ बन जाता है । 

ध्यान रखना किसी तीर्थ में दो प्रकार से जाना होता है ; एक वह जाना होता है जैसे हम - आप साल में कई बार आते - जाते रहते हैं अर्थात काशी गए , गंगा नहाए , पूजा अर्चना की और लौट आए अपनें परिवार में । यह हमारा तीर्थ पर जाना वैसे ही होता है जैसे अन्य गृहस्थी की क्रियाएं होती रहती है । हम बार - बार जाते - आते रहेंगे और यह क्रम जीवन भर चलता रहता है ।

दूसरा जाना तब होता है तब तीर्थ स्वयं बुलाता है । घर - गृहस्थी के गहरे अनुभव से वैराग्य भाव भरने लगता है । जब यह वैराग्य भाव सघन हो जाता है तब उस व्यक्ति को तीर्थ बुलाता है और वह व्यक्ति अपनी बस्ती में फिर नहीं लौटता।

 ध्यान रखें ! तीर्थ यात्रा पर निकलना कोई मनोरंजन नहीं , यह कोई साधारण घटना भी नहीं , क्या पता आपको तीर्थ बुलाया हो ! 

~~ ॐ ~~