Thursday, February 27, 2025

पतंजलि अष्टांगयोग का सातवां अंग ध्यान

पतंजलि अष्टांगयोग का सातवां अंग विभूतिपाद सूत्र - 2

“ तत्र प्रत्यय एकतांता , ध्यानं “ 

सूत्र भावार्थ देखने से पहले अष्टांगयोग के पिछले 06 अंगों के सार की पुनरावृत्ति करते हैं। ऐसा करने से अष्टांगयोग के अंतरंग अंग ध्यान और ध्यान के साथ संप्रज्ञात समाधि को समझना आसान हो जायेगा।

पतंजलि अष्टांगयोग के 08 अंगों में यम , नियम , आसन , प्राणायाम और प्रत्याहार को बाह्य अंग और धारणा , ध्यान और समाधि को अंतरंग कहते हैं  (विभूति पाद सूत्र :  7+ 8) ।

यम के 05 अंगों के अभ्यास की सिद्धि एवं नियम के 05 अंगों के पालन करने की सिद्धि के फलस्वरूप चित्त पर राजद एवं तामस गुणों की वृत्तियों का प्रभाव मंद पड़ जाता है और सात्त्विक गुण की वृत्तियों का प्रभाव देर तक रहने लगता है । जब यम - नियम की साधना दैनिक जीवन का अंश बन जाती है तब आसन ,  प्राणायाम एवं प्रत्याहार की साधनाओं का मार्ग सरल हो जाता है। प्रत्याहार साधना सिद्धि के साथ इंद्रियों का रुख बाहर से अंदर की ओर हो जाता है जिसके फलस्वरूप अष्टांगयोग के अंतरंग धारणा , ध्यान और समाधि की यात्रा प्रारंभ होती है। 

धारणा अभ्यास में जब चित्त किसी एक सात्त्विक आलंबन से जुड़ जाता है तब उसी आलंबन पर ध्यान घटित होने लगता है । ध्यान रहे , धारणा की गहराई मिलते ही ,  ध्यान का आयाम शुरू होता है । अब  ध्यान की परिभाषा को देखते हैं जो निम्न प्रकार है …

जब चित्त किसी एक सात्त्विक आलंबन पर केंद्रित रहने लगे तो उसे ध्यान कहते हैं अर्थात धारणा में चित्त का देर तक स्थित बने रहना, ध्यान है ।

आगे महर्षि पतंजलि साधनपाद  सूत्र : 11 में कहते हैं …

ध्यान हेयात् तत् वृत्तयः अर्थात ध्यान से क्लेशों की वृत्तियों का क्षय होता है । अब यहां इस सूत्र के संदर्भ में समझना होगा कि क्लेश क्या हैं ? क्लेश के लिए पतंजलि साधनपाद सूत्र > 3 - 14 ,  25 को देखना होगा जिनका सार निम्न प्रकार है ….

अविद्या ,अस्मिता , राग - द्वेष और अभिनिवेष , ये 05 क्लेश हैं ( साधनपाद -  3 )। अविद्या शेष चार क्लेशों की जननी है।

 सत् को असत् और असत् को सत् समझना अविद्या है।  

मैं और मेरा का अहं भाव , अस्मिता है । इंद्रिय सुख की लालसा , राग है । भोग के कड़वे अनुभव से द्वेष की ऊर्जा बनती है। मृत्यु भय को अभिनिवेश कहते हैं ।

पांच क्लेश मानसिक और आध्यात्मिक बाधाओं की उत्पत्ति के कारण हैं । क्लेश, कर्माशय ( चित्त ) की मूल हैं

 (साधनपाद सूत्र - 12) । क्लेश  त्रिगुणी बंधन तत्त्व हैं जो शुद्ध निर्गुणी चेतन पुरुष को त्रिगुणी जड़ प्रकृति से जुड़ने के बाद उसे अपने मूल स्वरूप में तबतक नहीं लौटने देते जबतक उसे कैवल्य नहीं मिल जाता । क्लेश दुखों की जननी हैं। जबतक क्लेष निर्मूल नही होते , आवागमन से मुक्ति नहीं मिल पाती (साधनपाद सूत्र - 13) ।

क्रियायोग से पञ्च क्लेशों का नाश तो होता है 

(साधनपाद सूत्र -10 ) लेकिन उनके सूक्ष्म बीज बच रहते हैं जो अनुकूल परिस्थिति आने पर पुनः सक्रिय हो सकते हैं । यहां क्रियायोग को भी समझना है जिसको महर्षि पतंजलि निम्न प्रकार से परिभाषित करते हैं ….

 तपः स्वाध्याय ईश्वरप्रणिधान क्रियायोगः

(साधन पाद - 01) 

 अर्थात तप , स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधानि , क्रियायोग के तीन अंग हैं । पतंजलि के ईश्वर को समझने के लिए देखें समाधिपाद सूत्र : 23 - 29 जिसका सार निम्न प्रकार है …

ईश्वर कर्म , कर्मफल और कर्माशय मुक्त है । वह सभीं ज्ञानों का बीज है । ईश्वर सभीं पूर्व में हुए गुरुओं का गुरु है , समायातीयत है और सनातन है। प्रणव उसका संबोधन है। ईश्वर समर्पण से 14 योग बाधाएँ दूर होती हैं और प्रज्ञा आलोकित होती है।


# समाधि भाव जागृत होने से क्लेश तनु (अप्रभावी ) अवस्था में आ जाते हैं ( साधनपाद सूत्र - 2 )।

# अविद्या का अभाव , दुःख का अभाव है और यही कैवल्य है (साधनपाद सूत्र - 25 )। 

# कैवल्य पाद सूत्र - 34 में कैवल्य की परिभाषा निम्न प्रकार दी गई है  ..

पुरुषार्थ शून्यानाम् गुणानाम् प्रतिप्रसव: कैवल्यम् ।

स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्ति : इति ।। 

अर्थात 

 पुरुषार्थ का शून्य हो जाना तथा त्रिगुणो का प्रतिप्रसव हो जाना , कैवल्य है। 

ध्यान सिद्धि से चित्त समाधिमुखी रहने लगता हैं ।

।।। ॐ ।।।

Friday, February 21, 2025

पतंजलि अष्टांगयोग का छठवां अंग धारणा


पतंजलि विभूति पाद सूत्र : 1 

अष्टांगयोग का छठवां अंग धारणा 

देश बंधश्चित्तस्य धारणा 

" देश (आलंबन ) से  चित्तका बधे रहना , धारणा है "

सूत्र - भावार्थ में उतरने से पहले अष्टांग योग के पिछले 05 अंगों के सार तत्त्व को एक बार पुनः देख लेते हैं । ऐसा करने से धारणा को समझना सरल हो जायेगा । धारणा के बाद अगला सातवां अंग ध्यान है और आखिरी आठवां अंग संप्रज्ञात समाधि है । धारणा , ध्यान और संप्रज्ञात समाधि क्रमशः एक दूसरे के बाद घटित होते हैं । प्रत्याहार की सिद्धि के साथ धारणा में प्रवेश मिलता है , यहां देखे साधनपाद सूत्र - 53 । प्रत्याहार की सिद्धि के लिए इसके पहले के अंग प्राणायाम की सिद्धिभप्राप्त करना पड़ता है। साधनपाद सूत्र 49 - 55 में प्राणायाम एवं प्रत्याहार के संबंध में बताया जा चुका है । प्राणायाम में इसके अंग पूरक , रेचक, और कुंभक ( भयंतर एवं बाह्य कुंभक ) की सिद्धि से अज्ञान का नष्ट होना , ज्ञान की किरण का फूटना तथा वैराग्य भाव का जागृत होना एक साथ घटित होते हैं । जब प्राणायाम की सिद्धि मिल जाती है तब इंद्रियों का रुख विषय की ओर से चित्त की ओर हो जाता है  और धारणा में प्रवेश करने की योग्यता मिल जाती है , जैसा ऊपर साधनपाद सूत्र -53 में पहले बताया जा चुका है । प्रत्याहार सिद्धि अवस्था में चित्त में राजस एवं तामस गुणों की वृत्तियों का आवागमन रुक जाता है और राजस - तामस गुण मुक्त चित्त में केवल सात्त्विक गुण की वृत्तियों का आवागमन बना रहता है । 

चित्त में सात्त्विक गुण की वृत्तियों का जब आवागमन प्रारंभ हो जाय तब उन वृत्तियों में से किसी एक के साथ चित्त को बांधने के अभ्यास को धारणा अभ्यास कहते हैं ।

धारणा का अभ्यास जब गहरा जाता है तब चित्त अष्टांग योग के सातवे अंग ध्यान में रहने लग जाता है । इसी तरह ध्यान की गहराई में चित्त स्वतः संप्रज्ञात समाधि में उतर जाता है ।

राजस एवं तामस गुणों की वृत्तियों से चित्त को मुक्त करने में  यम , नियम , आसन , प्राणायाम एवं प्रत्याहार की साधनाओं की सिद्धि पाना आवश्यक होता है । जब इन 05 तत्त्वों की सिद्धि मिल जाती है तब चित्त सात्त्विक गुण केंद्रित रहते हुए धारणा में धारणा से आगे की योग - यात्रा करता है ।

।।। ॐ ।।। 

Friday, February 14, 2025

पतंजलि अष्टांगयोग का पांचवां अंग प्रत्याहार


पतंजलि अष्टांगयोग का पांचवां अंग प्रत्याहार 

महर्षि पतंजलि अपनें योगसूत्र दर्शन के अंतर्गत साधन पाद सूत्र - 54 के माध्यम से  प्रत्याहार को निम्न प्रकार से परिभाषित करते हैं …

स्व + विषय  + असंप्रयोगे + चित्त स्वरूप + अनुकार 

 इव + इन्द्रियाणाम् +प्रत्याहारः 

अर्थात जब पांच ज्ञान इंद्रियों का रुख उनके अपनें - अपनें विषयों की ओर न हो कर चित्त की ओर हो जाता है अर्थात उल्टा हो जाता है तब उस अवस्था को प्रत्याहार कहते हैं ।

प्रत्याहार अर्थात प्रति + आहार  शब्द योग में प्रति का अर्थ है वापस या प्रतिकूल और आहार का अर्थ है लेना या ग्रहण करना । 

इंद्रियों का स्वभाव है , अपनें - अपनें विषयों में भ्रमण करना और जब इनमें विषय वैराग्य की ऊर्जा बहने लगती हैं तब ये विषयमुखी न रह कर चित्तमुखी हो जाती है । महर्षि पतंजलि इस अवस्था को प्रत्याहार की संज्ञा से संबोधित कर रहे हैं ।

महर्षि पतंजलि अष्टांगयोग के 08 अंगों में प्रत्याहार पांचवां अंग है अर्थात यम ,नियम , आसन और प्राणायाम की सिद्धियों के फलस्वरूप प्रत्याहार में प्रवेश मिलता है।

 जब योग में स्थित योगी का आसन और प्राणायाम (पूरक , रेचक, अभ्यांतर एवं बाह्य कुंभक ) की सिद्धि मिल जाती है तब ज्ञान की किरण फूटती है ,अज्ञात नष्ट हो जाता है और धारणा की योग्यता उत्पन्न होती हैं । यहां इस संदर्भ में साधन पाद के निम्न सूत्रों को देखें …

साधनपाद सूत्र - 52

" तत : क्षीयते प्रकाश आवरणम् "

साधनपाद सूत्र - 53

" धारणासु च योग्यता मनसः "

आंख का विषय रूप , कान का विषय शब्द , नाक का विषय गंध , रसना या जीभ का विषय रस और त्वचा का विषय स्पर्श है। सभी इंद्रिय विषयों में राग - द्वेष की ऊर्जा होती है ( गीता : 3.34 )

विषयों में स्थित राग - द्वेष के सम्मोहन के कारण इंद्रियां विषयों से आकर्षित होती हैं अन्यथा सांख्य दर्शन एवं पतंजलि योग दर्शन में इंद्रियों की निष्पति सात्त्विक गुण से है अतः इनका मूल स्वभाव सात्त्विक ही होता है । 

पांच ज्ञान इंद्रियां बाहरी जगत से सूचनाएं एकत्र करती हैं और चित्त को भेजती रहती हैं जिसके कारण चित्त  विषय स्वरूपाकार बना  रहता है ।

 पतंजलि योग सूत्र में जड़ - सनातन निष्क्रिय त्रिगुणी एवं प्रसवधर्मी प्रकृति एवं निष्क्रिय , सनातन निर्गुण एवं चेतन पुरुष के संयोग से प्रकृतिकी त्रिगुणी साम्यावस्था विकृत होती है जिसके फलस्वरूप प्रकृति के कार्य रूप में त्रिगुणी एवं जड़ बुद्धि , अहंकार ( सात्विक , राजद एवं तामस ) , मन , 10 इंद्रियां, 05 तन्मात्र एवं तन्मात्रों से उनके अपने - अपनें महाभूतों की उत्पत्ति होती है । इस प्रकार तीन गुणों की साम्यावस्था वाली मूल प्रकृति के विकृत होने से उत्पन्न इन 23 तत्त्वों में प्रथम तीन तत्त्वो (बुद्धि , अहंकार एवं मन ) को चित्त कहते हैंपुरुष चित्त केंद्रित रहता है । चित्त केंद्रित पुरुष संसार के त्रिगुणी विषयों का अनुभव करता है जिसमें प्रकृति के त्रिगुणी 23 तत्त्व उसकी सहायता करते हैं।

 जब पुरुष को त्रिगुणी भोग के फलस्वरूप क्षणिक सुख और दुःख का अनुभव पूरा हो जाता है तब उसे अपने मूल स्वरूप का बोध होता है जिसके फलस्वरूप उसे वैराग्य हो जाता है।

 इस प्रकार पतंजलि के अष्टांग योग साधना के अंतर्गत यम , नियम , आसन और प्राणायाम सिद्धि के फलस्वरूप इंद्रिय निग्रह के साथ चित्त में वितृष्णा का भाव भरने लगता है जिसे वैराग्य कहते हैं।

वैराग्य (Vairagya) संस्कृत शब्द है, जो "वि" (बिना) और "राग" (आसक्ति/लगाव) से मिलकर बना है। यह आध्यात्मिक जीवन का एक मूलभूत सिद्धांत है, जिसका अर्थ है चित्त की वह अवस्था जहाँ व्यक्ति भोग तत्त्वों (आसक्ति , कामना , काम , क्रोध , लोभ , मोह , भय एवं आलस्य आदि ) के प्रभाव से मुक्त रहते हुए स्व बोध में डूबे रहने लगता है ।

वैराग्य योगी को अंतर्मुखी बनाए रखता है जिसके कारण वह एकांत के आनंद में मस्त रहने लगता है और आध्यात्मिक सत्य का दर्शन करता रहता है।

।।। ॐ ।।।

Wednesday, February 5, 2025

पतंजलि योग सूत्र के प्राणायाम का सार


पतंजलि अष्टांगयोग में प्राणायाम रहस्य

भाग - 05 ( प्राणायाम का यह आखिरी अंक है )

पतंजलि योग दर्शन के अष्टांगयोग साधना के अंतर्गत यम , नियम , आसन के साथ प्राणायाम की योग साधना - यात्रा अब पूरी हो रही है । अष्टांगयोग के आठ अंगों में अगला अंग प्रत्याहार है । प्रत्याहार में प्रवेश करने से पहले हम एक बार अभी तक के अंगों के सार को एक बार पुनः देख लेते हैं ।

अहिंसा , सत्य , अस्तेय , ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह तत्त्वों को यम के अंतर्गत एवं शौच , संतोष , तप , स्वाध्याय तथा ईश्वर प्रणिधानि तत्वों को नियम के अंतर्गत देखा गया है। स्थिर सुखम् आसनम् , आसन की परिभाषा को भी समझा जा चुका है । श्वास - प्रश्वास , अभ्यंतर और बाह्य कुंभक के रूप में श्वास - प्रश्वास के रूप में प्राणायाम की भी साधना यात्रा पूरी हो रही है लेकिन अष्टांगयोग के अगले अंग , प्रत्याहार की यात्रा से पूर्व प्राणायाम का पूर्वावलोकन कर लेते हैं जिससे अगले अंगों की यात्रा सरल हो सके।

पतंजलि साधन पाद सूत्र : 49 - 53 में प्राणायाम को निम्न प्रकार से व्यक्त किया गया है ….

प्राणायाम के 05 अंग हैं । पहला अंग श्वास है , जिसकी साधना को पूरक प्राणायाम कहते हैं । दूसरा अंग प्रश्वास है जिसकी साधना को रेचक प्राणायाम कहते हैं । तीसरा अंग अभ्यांतर प्राणायाम । जब श्वास लेने की क्रिया पूरी होती है तब श्वास रुक सी जाती है, इस अवस्था को अभ्यांतर कहते हैं। चौथा अंग  बाह्य कुंभक है। जैसे अन्दर ली जा रही श्वास के पूरा होने पर श्वास रुक सी जाती है , जिसे अभ्यंतर कहते हैं ठीक उसी तरह बाहर निकल रही प्रश्वास भी जब पूरी होती है तब रुक जाती है, इस अवस्था को बाह्य कुंभक कहते हैं

जब प्राणायाम के पांच अंगों की सिद्धि मिल जाती है तब चित्त में राजस एवं तामस गुणों की वृत्तियां शांत हो जाती है , केवल सात्विक गुण की वृत्तियों का आवागमन बना रहता है । नियमित प्राणायाम अभ्यास से चित्त में विषय - वितृष्णा का भाव भरने लगता है और चित्त परा वैराग्य ऊर्जा के प्रभाव में समाधि मुखी रखने लगता है।

अविद्या मुक्त चित्त , क्लेश एवं दुःख मुक्त रहते हुए परमानंद की झलक पाने लगता है । पतंजलि कहते हैं , दुःख की अनुपस्थिति ही कैवल्य है ।

अगले अंक में अष्टांगयोग के पांचवें अंग प्रत्याहार की यात्रा की जाएगी ….

।। ॐ।।


Saturday, February 1, 2025

पतंजलि अष्टांगयोग में प्राणायाम अभ्यास


पतंजलि  योगदर्शन में अष्टांगयोग 

भाग - 04 . 2 > 


अष्टांगयोग का चौथा अंग प्राणायाम

निरंतर प्राणायाम अभ्यास से वितृष्णा का भाव भर जाता है जो चित्त को समाधिमुखी बनाता है …

संदर्भ सूत्र : पतंजलि साधनपाद सूत्र 49 - 53 (05 )

प्राणायाम दो शब्दों का योग है - प्राण एवं आयाम अर्थात जिस क्रिया का आलंबन प्राण हो ; प्राण अर्थात वायु , वह प्राणायाम है।

पतंजलि के अष्टांगयोग साधना के अंतर्गत अभी तक यम , नियम और आसान के साथ प्राणायाम संदर्भ में श्वास - प्रश्वास साधना रहस्य से संबंधित कुछ बातों को भी देखा गया है । 

आसन की साधना के साथ अन्दर आ रही श्वास (श्वास ) एवं देह के अंदर से बाहर निकल रही श्वास (प्रश्वास) पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए और उनका दृष्टा बनने का अभ्यास भी करते रहना चाहिए । जब यह अभ्यास गहराने लगता है तब प्राणायाम स्वतः घटित होता है जिसके संबंध में हम आगे चल कर विस्तार से देखने वाले हैं।

प्रमाण , विपर्यय, विकल्प , एकाग्रता और निरु, चित्त की 05 वृत्तियां हैं । व्युत्थान एवं निरोध , चित्त के 02 धर्म हैं ।  क्षिप्ति, मूढ़ , विक्षिप्त, एकाग्रता एवं निरू, चित्त की 05 भूमियां हैं । 

चित्त ( मन , बुद्धि , अहंकार का समूह ) त्रिगुणी एवं जड़ प्रकृति का तत्त्व है अतः कारण - कार्य सिद्धांत के आधार पर यह भी त्रिगुणी एवं जड़ तत्त्व है । चित्त का जड़ होने के कारण उसे स्वयं का भी पता नहीं होता लेकिन चित्त केंद्रित पुरुष की ऊर्जा के प्रभाव में यह चेतन जैसा व्यवहार करने लगता है क्योंकि पुरुष शुद्ध चेतन एवं निर्गुणी होता है । 

धीरे - धीरे अष्टांगयोग साधना के फलस्वरूप चित्त का व्युत्थान धर्म (अस्थिरता) अप्रभावी होने लगता है और निरोध धर्म (निर्गुण स्थिरता )  प्रभावी होने लगता है जिसके फलस्वरूप चित्त की प्रारंभिक तीन वृत्तियां ( प्रमाण , विपर्यय , विकल्प ) शांत होने लगती हैं और इसी के साथ चित्त प्रारंभिक तीन भूमियों से उठ कर चौथी उच्च भूमि पर केंद्रित रहने लगता है जो एकाग्रता भूमि है। चित्त एकाग्रता चित्त की चौथी वृत्ति एवं चौथी भूमि दोनों है।

 एकाग्रता वृत्ति केंद्रित चित्त में केवल सात्त्विक गुण की वृत्तियों का आवागमन बना रहता है , राजस एवं तामस गुणों की वृत्तियां शांत रहती हैं । धीरे - धीरे अष्टांगयोग के निरंतर अभ्यास से चित्त की एकाग्रता वृत्ति भी शांत होने लगती है और तब चित्त निरू वृत्ति पर केंद्रित रहने लगता है ।

 निरू चित्त की उच्चतम भूमि है। साधना की इस अवस्था में योगी किसी भी समय संप्रज्ञात समाधि में उतर सकता 

है।

 अब प्रारंभ के दिए गए पतंजलि के साधनपद के 05 एवं समाधिपाद का 01 सूत्रों को समझते हैं ….

पतंजलि साधनपाद सूत्र - 49

तस्मिन् सति श्वास प्रश्वास गति विच्छेद प्राणायाम:

सूत्र भावार्थ 

आसन सिद्धि में श्वास - प्रश्वास का रुक जाना , प्राणायाम है

पतंजलि साधन पाद सूत्र - 50

स तु बाह्य आभ्यंतर स्तंभ वृत्ति देश काल संख्या परिदृष्टो दीर्घ सूक्ष्म:

बाह्य > बाहर , आभ्यंतर > अंदर , स्तम्भ वृत्ति > दोनों की अनुपस्थिति , देश - काल >  स्थान और समय , संख्या 

सूत्र भावार्थ

यहां महर्षि पतंजलि तीन प्रकार के प्राणायाम बता रहे हैं रेचक , पूरक और कुम्भक और साथ यह भी बता रहे हैं कि ये तीनों प्राणायाम देश , काल एवं संख्या की दृष्टि में दीर्घ एवं सूक्ष्म होने चाहिए अर्थात  प्राणायाम अभ्यास में धीरे - धीरे श्वास - प्रश्वास पतली होती जानी चाहिए एवं  लंबाई बढ़ती जानी चाहिए । 

जो श्वास अंदर लेते हैं उसे पूरक  , जो श्वास बाहर निकालते हैं उसे रेचक कहते हैं और जब दोनों अनुपस्थित होते हैं तब कुंभक की स्थिति होती है । कुंभक दो प्रकार का होता है । पूरक के अंत में निःश्वास की स्थिति आंतरिक कुंभक और रेचक के एंड में निःश्वास की स्थिति बाह्य कुंभक की होती  है।

साधन पाद सूत्र : 51

" बाह्य आभ्यंतर बिषय आक्षेपी चतुर्थः “

इस सूत्र में महर्षि पतंजलि बाह्य कुंभक को चौथा प्राणायाम बता रहे हैं ।

पतंजलि साधनपाद सूत्र - 51 में कह रहे हैं …

जब पूरक , रेचक और कुंभक प्राणायामों का अभ्यास गहरा जाता है तब वह योगी पूरक एवं रेचक किए बिना सीधे कुंभक में पहुंच जाया करता है । यह रेचक - पूरक को छोड़ आगे बढ़ जाने वाला प्राणायाम को हठ प्रदीपिका में केवली प्राणायाम कहते हैं ।

बिना रेचक , बिना पूरक किये सीधे सूक्ष्म कुम्भक स्थिति में योगी पहुंच जाता है और देर तक श्वास रुक जाती हैं । यह अवस्था समाधि की अवस्था जैसी ही होती है ।

बाह्य कुम्भक में स्थित योगी को यदि डॉक्टर निरिक्षण करें तो मृत घोषित कर देंगे । यह अवस्था धर्ममेघ समाधि सिद्धि में भी आती है जिसे पतंजलि कैवल्य पाद में बताया गया है ।

साधन पाद सूत्र : 52 

" तत : क्षीयते प्रकाश आवरणम् "

प्राणायामके चारो अंगों ( पूरक , रेचक ,कुम्भक और बाह्य कुम्भक )  की सिद्धि से प्रकाश के ऊपर पड़ा आवरण क्षीण हो जाता है अर्थात अविद्या निर्मूल हो जाती है । 

अविद्या का लय दुःख का लय है और दुःख का लय ही कैवल्य है ( साधन पाद सूत्र : 25 )।

साधन पाद सूत्र : 53

धारणासु च योग्यता मनसः 

प्राणायाम सिद्धि से मनमें धारणाकी योग्यता आती है । धारणा अष्टांगयोग का छठवां अंग है । प्राणायाम और धारणा के बीच में पांचवां अंग प्रत्याहार है जिसे अगले अंक में देखा जा सकता है ।

 ।।। ॐ ।।।