पतंजलि अष्टांगयोग का सातवां अंग विभूतिपाद सूत्र - 2
“ तत्र प्रत्यय एकतांता , ध्यानं “
सूत्र भावार्थ देखने से पहले अष्टांगयोग के पिछले 06 अंगों के सार की पुनरावृत्ति करते हैं। ऐसा करने से अष्टांगयोग के अंतरंग अंग ध्यान और ध्यान के साथ संप्रज्ञात समाधि को समझना आसान हो जायेगा।
पतंजलि अष्टांगयोग के 08 अंगों में यम , नियम , आसन , प्राणायाम और प्रत्याहार को बाह्य अंग और धारणा , ध्यान और समाधि को अंतरंग कहते हैं (विभूति पाद सूत्र : 7+ 8) ।
यम के 05 अंगों के अभ्यास की सिद्धि एवं नियम के 05 अंगों के पालन करने की सिद्धि के फलस्वरूप चित्त पर राजद एवं तामस गुणों की वृत्तियों का प्रभाव मंद पड़ जाता है और सात्त्विक गुण की वृत्तियों का प्रभाव देर तक रहने लगता है । जब यम - नियम की साधना दैनिक जीवन का अंश बन जाती है तब आसन , प्राणायाम एवं प्रत्याहार की साधनाओं का मार्ग सरल हो जाता है। प्रत्याहार साधना सिद्धि के साथ इंद्रियों का रुख बाहर से अंदर की ओर हो जाता है जिसके फलस्वरूप अष्टांगयोग के अंतरंग धारणा , ध्यान और समाधि की यात्रा प्रारंभ होती है।
धारणा अभ्यास में जब चित्त किसी एक सात्त्विक आलंबन से जुड़ जाता है तब उसी आलंबन पर ध्यान घटित होने लगता है । ध्यान रहे , धारणा की गहराई मिलते ही , ध्यान का आयाम शुरू होता है । अब ध्यान की परिभाषा को देखते हैं जो निम्न प्रकार है …
जब चित्त किसी एक सात्त्विक आलंबन पर केंद्रित रहने लगे तो उसे ध्यान कहते हैं अर्थात धारणा में चित्त का देर तक स्थित बने रहना, ध्यान है ।
आगे महर्षि पतंजलि साधनपाद सूत्र : 11 में कहते हैं …
ध्यान हेयात् तत् वृत्तयः अर्थात ध्यान से क्लेशों की वृत्तियों का क्षय होता है । अब यहां इस सूत्र के संदर्भ में समझना होगा कि क्लेश क्या हैं ? क्लेश के लिए पतंजलि साधनपाद सूत्र > 3 - 14 , 25 को देखना होगा जिनका सार निम्न प्रकार है ….
अविद्या ,अस्मिता , राग - द्वेष और अभिनिवेष , ये 05 क्लेश हैं ( साधनपाद - 3 )। अविद्या शेष चार क्लेशों की जननी है।
सत् को असत् और असत् को सत् समझना अविद्या है।
मैं और मेरा का अहं भाव , अस्मिता है । इंद्रिय सुख की लालसा , राग है । भोग के कड़वे अनुभव से द्वेष की ऊर्जा बनती है। मृत्यु भय को अभिनिवेश कहते हैं ।
पांच क्लेश मानसिक और आध्यात्मिक बाधाओं की उत्पत्ति के कारण हैं । क्लेश, कर्माशय ( चित्त ) की मूल हैं
(साधनपाद सूत्र - 12) । क्लेश त्रिगुणी बंधन तत्त्व हैं जो शुद्ध निर्गुणी चेतन पुरुष को त्रिगुणी जड़ प्रकृति से जुड़ने के बाद उसे अपने मूल स्वरूप में तबतक नहीं लौटने देते जबतक उसे कैवल्य नहीं मिल जाता । क्लेश दुखों की जननी हैं। जबतक क्लेष निर्मूल नही होते , आवागमन से मुक्ति नहीं मिल पाती (साधनपाद सूत्र - 13) ।
क्रियायोग से पञ्च क्लेशों का नाश तो होता है
(साधनपाद सूत्र -10 ) लेकिन उनके सूक्ष्म बीज बच रहते हैं जो अनुकूल परिस्थिति आने पर पुनः सक्रिय हो सकते हैं । यहां क्रियायोग को भी समझना है जिसको महर्षि पतंजलि निम्न प्रकार से परिभाषित करते हैं ….
तपः स्वाध्याय ईश्वरप्रणिधान क्रियायोगः
(साधन पाद - 01)
अर्थात तप , स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधानि , क्रियायोग के तीन अंग हैं । पतंजलि के ईश्वर को समझने के लिए देखें समाधिपाद सूत्र : 23 - 29 जिसका सार निम्न प्रकार है …
ईश्वर कर्म , कर्मफल और कर्माशय मुक्त है । वह सभीं ज्ञानों का बीज है । ईश्वर सभीं पूर्व में हुए गुरुओं का गुरु है , समायातीयत है और सनातन है। प्रणव उसका संबोधन है। ईश्वर समर्पण से 14 योग बाधाएँ दूर होती हैं और प्रज्ञा आलोकित होती है।
# समाधि भाव जागृत होने से क्लेश तनु (अप्रभावी ) अवस्था में आ जाते हैं ( साधनपाद सूत्र - 2 )।
# अविद्या का अभाव , दुःख का अभाव है और यही कैवल्य है (साधनपाद सूत्र - 25 )।
# कैवल्य पाद सूत्र - 34 में कैवल्य की परिभाषा निम्न प्रकार दी गई है ..
पुरुषार्थ शून्यानाम् गुणानाम् प्रतिप्रसव: कैवल्यम् ।
स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्ति : इति ।।
अर्थात
पुरुषार्थ का शून्य हो जाना तथा त्रिगुणो का प्रतिप्रसव हो जाना , कैवल्य है।
ध्यान सिद्धि से चित्त समाधिमुखी रहने लगता हैं ।
।।। ॐ ।।।