पतंजलि अष्टांगयोग का पांचवां अंग प्रत्याहार
महर्षि पतंजलि अपनें योगसूत्र दर्शन के अंतर्गत साधन पाद सूत्र - 54 के माध्यम से प्रत्याहार को निम्न प्रकार से परिभाषित करते हैं …
स्व + विषय + असंप्रयोगे + चित्त स्वरूप + अनुकार
इव + इन्द्रियाणाम् +प्रत्याहारः
अर्थात जब पांच ज्ञान इंद्रियों का रुख उनके अपनें - अपनें विषयों की ओर न हो कर चित्त की ओर हो जाता है अर्थात उल्टा हो जाता है तब उस अवस्था को प्रत्याहार कहते हैं ।
प्रत्याहार अर्थात प्रति + आहार शब्द योग में प्रति का अर्थ है वापस या प्रतिकूल और आहार का अर्थ है लेना या ग्रहण करना ।
इंद्रियों का स्वभाव है , अपनें - अपनें विषयों में भ्रमण करना और जब इनमें विषय वैराग्य की ऊर्जा बहने लगती हैं तब ये विषयमुखी न रह कर चित्तमुखी हो जाती है । महर्षि पतंजलि इस अवस्था को प्रत्याहार की संज्ञा से संबोधित कर रहे हैं ।
महर्षि पतंजलि अष्टांगयोग के 08 अंगों में प्रत्याहार पांचवां अंग है अर्थात यम ,नियम , आसन और प्राणायाम की सिद्धियों के फलस्वरूप प्रत्याहार में प्रवेश मिलता है।
जब योग में स्थित योगी का आसन और प्राणायाम (पूरक , रेचक, अभ्यांतर एवं बाह्य कुंभक ) की सिद्धि मिल जाती है तब ज्ञान की किरण फूटती है ,अज्ञात नष्ट हो जाता है और धारणा की योग्यता उत्पन्न होती हैं । यहां इस संदर्भ में साधन पाद के निम्न सूत्रों को देखें …
साधनपाद सूत्र - 52
" तत : क्षीयते प्रकाश आवरणम् "
साधनपाद सूत्र - 53
" धारणासु च योग्यता मनसः "
आंख का विषय रूप , कान का विषय शब्द , नाक का विषय गंध , रसना या जीभ का विषय रस और त्वचा का विषय स्पर्श है। सभी इंद्रिय विषयों में राग - द्वेष की ऊर्जा होती है ( गीता : 3.34 )
विषयों में स्थित राग - द्वेष के सम्मोहन के कारण इंद्रियां विषयों से आकर्षित होती हैं अन्यथा सांख्य दर्शन एवं पतंजलि योग दर्शन में इंद्रियों की निष्पति सात्त्विक गुण से है अतः इनका मूल स्वभाव सात्त्विक ही होता है ।
पांच ज्ञान इंद्रियां बाहरी जगत से सूचनाएं एकत्र करती हैं और चित्त को भेजती रहती हैं जिसके कारण चित्त विषय स्वरूपाकार बना रहता है ।
पतंजलि योग सूत्र में जड़ - सनातन निष्क्रिय त्रिगुणी एवं प्रसवधर्मी प्रकृति एवं निष्क्रिय , सनातन निर्गुण एवं चेतन पुरुष के संयोग से प्रकृतिकी त्रिगुणी साम्यावस्था विकृत होती है जिसके फलस्वरूप प्रकृति के कार्य रूप में त्रिगुणी एवं जड़ बुद्धि , अहंकार ( सात्विक , राजद एवं तामस ) , मन , 10 इंद्रियां, 05 तन्मात्र एवं तन्मात्रों से उनके अपने - अपनें महाभूतों की उत्पत्ति होती है । इस प्रकार तीन गुणों की साम्यावस्था वाली मूल प्रकृति के विकृत होने से उत्पन्न इन 23 तत्त्वों में प्रथम तीन तत्त्वो (बुद्धि , अहंकार एवं मन ) को चित्त कहते हैं । पुरुष चित्त केंद्रित रहता है । चित्त केंद्रित पुरुष संसार के त्रिगुणी विषयों का अनुभव करता है जिसमें प्रकृति के त्रिगुणी 23 तत्त्व उसकी सहायता करते हैं।
जब पुरुष को त्रिगुणी भोग के फलस्वरूप क्षणिक सुख और दुःख का अनुभव पूरा हो जाता है तब उसे अपने मूल स्वरूप का बोध होता है जिसके फलस्वरूप उसे वैराग्य हो जाता है।
इस प्रकार पतंजलि के अष्टांग योग साधना के अंतर्गत यम , नियम , आसन और प्राणायाम सिद्धि के फलस्वरूप इंद्रिय निग्रह के साथ चित्त में वितृष्णा का भाव भरने लगता है जिसे वैराग्य कहते हैं।
वैराग्य (Vairagya) संस्कृत शब्द है, जो "वि" (बिना) और "राग" (आसक्ति/लगाव) से मिलकर बना है। यह आध्यात्मिक जीवन का एक मूलभूत सिद्धांत है, जिसका अर्थ है चित्त की वह अवस्था जहाँ व्यक्ति भोग तत्त्वों (आसक्ति , कामना , काम , क्रोध , लोभ , मोह , भय एवं आलस्य आदि ) के प्रभाव से मुक्त रहते हुए स्व बोध में डूबे रहने लगता है ।
वैराग्य योगी को अंतर्मुखी बनाए रखता है जिसके कारण वह एकांत के आनंद में मस्त रहने लगता है और आध्यात्मिक सत्य का दर्शन करता रहता है।
।।। ॐ ।।।
No comments:
Post a Comment