04 वेदांग वेद - साधना के 04 चरण हैं
वर्तमान में 04 वेद हैं और हर वेद के अपने - अपनें चार अंग हैं , जैसा नीचे दिखाया गया है ⤵️
आदि सतयुग में प्रसव ,एक वेद, नारायण , एक देवता और हंस , एक धर्म था । एक वेद समयांतर में यह एक वेद तीन वेदों में रूपांतरित हो गया और आज चार वेद उपलब्ध हैं। यह वेद विकास , मनुष्य -विकास से जुड़ा हुआ है।
इच्छित सांसारिक भोग प्राप्ति से नैसर्गिक भोग प्राप्ति ( स्वर्गप्राप्ति
( यहां देखें गीता : 2.42 - 2.4.46 ) तक और माया बोध से जीवात्मा - ब्रह्म के एकत्व के रहस्य तक की यात्रा , वेद अपनें - अपनें अंगों के माध्यम से कराते हैं। नीचे स्लाइड में देखें कि किस प्रकार से चार वेद ब्रह्म की अनुभूति कराते हैं।
पिछले अंक में कर्म ,उपासना और ज्ञान , वेद के तीन कांडों के संबंध में कुछ मूल बातों को समझने की कोशिश की गई थी और अब इस अंक में 04 वेदांगों के परिचय करते हैं।
हर वेद के अपने - अपनें निम्न चार - चार अंग हैं।
संहिता ( मूल मंत्रों का संग्रह )
↓
ब्राह्मण (वैदिक कर्म और यज्ञ की विधियाँ)
↓
आरण्यक (स्वाध्याय)
↓
उपनिषद (तत्त्व ज्ञान से कैवल्य मुखी)
इसी तरह सभी वेदों के अपनें - अपनें देवता और यज्ञ भी हैं।
हर वेद की एक या एक से अधिक संहिताएं हैं। वेद के मूल मंत्रों के संग्रह को उस वेद की संहिता कहते हैं। संहिताओं के आधार पर हर वेद के शेष अंगों (ब्राह्मण,आरण्यक ,उपनिषद) की रचना की गई हैं ।
वेदों के ब्राह्मण ग्रंथों में यज्ञों के बारे में पूरा विज्ञान मिलता है जो कर्मयोग साधना की पूरी गणित देते हैं। जब ब्राह्मण ग्रंथों की आधार पर की जाने वाली साधना की सिद्धि मिल जाती है तब वह साधन अंतर्मुखी हो जाता है और एकांगी जीवन जीने के गृहस्थ जीवन से वानप्रस्थ जीवन जीने लगता है और वह अरण्य में जानकर आरण्य ग्रंथों के आधार पर अपनी वेद साधना को आगे बढ़ाता है ।
जब वानप्रस्थ साधना की उच्च भूमि मिल जाती है तब वह साधन आरण्यक साधना से उपनिषद् साधना में प्रवेश कर जाता है। उपनिषद् को वेदांत कहते हैं ।
संहिता , ब्राह्मण और आरण्यक की साधना सिद्धियों से वेद के तीन कांडों में से कर्म और उपासना कांडों की सिद्धि तो मिल जाती है लेकिन इन सिद्धियों से जो साधना की उच्च भूमि मिलती है ,वह उपनिषद् साधना का द्वार खोलती है ।उपनिषद् की साधना की उच्च भूमि मिलने पर ब्रह्म की अनुभूति होने लगती है और वह साधक कैवल्यमुखी रहने लगता है।
निराकार की अनुभूति के लिए साकार का सहारा लेना होता है , अव्यक्त को समझने के लिए व्यक्त में डूबना पड़ता है और ब्रह्म की अनुभूति , माया बोध का फल है ।
अब आगे …
अब वेद साधना में और आगे बढ़ने से पहले श्रीमद्भागवत पुराण के निम्न सूत्रों को पीते हैं और इनको पीने से जो ऊर्जा मिलेगी , वह आगे की साधना यात्रा को और सुगम बना देगी ।
भागवत : 10.2 > मन और वेद वाणी से प्रभु स्वरूप का केवल अनुमान भर लगता है ।
भागवत :11.3.1 > भक्त माया का दृष्टा होता है।
भागवत :3.26 > भक्ति से ज्ञान मिलता है।
भागवत :11.19 > सबके होने का कारण , ब्रह्म को देखना , ज्ञान है।
भागवत :2.2 > ज्ञान से चित्त की वासनाएं निर्मूल होती हैं।
चार वेदों में ऋग्वेद शेष तीन वेदों की जननी है क्योंकि यजुर्वेद , सामवेद और अथर्ववेद में क्रमशः 40 % , 95% और 20% मंत्र , ऋग्वेद के हैं , वेद संबंधित देखें निम्न तालिका में दी गई सूचनाओं को …
ऋग्वेद | *यजुर्वेद | सामवेद | अथर्ववेद |
मंत्र संख्या 10552 | मंत्र संख्या शुक्ल 1975 कृष्ण 2086 | मंत्र संख्या 1875 | मंत्र संख्या 5977 |
40% मंत्र ऋग्वेद के हैं | 95% मंत्र ऋग्वेद के हैं लगभग 80 मंत्रों को छोड़ शेष मंत्र ऋग्वेद के हैं | 20% मंत्र ऋगवेद के हैं | |
सभी मंत्र # देवता जैसे इंद्र ,वरुण , अग्नि और सोम आदि के स्तुति मंत्र हैं | इस वेद के मंत्र यज्ञ - कर्मकांड से संबंधित हैं | येआह वेद संगीत का विज्ञान है। | इस वेद के मंत्र तंत्र,जादू , विवाह स्वास्थ्य, रोग और शांति से संबंधित हैं। |
10 मंडल और 1028 ∆सूक्त हैं | ऋग्वेद के 8वे - 9 वे मंडल से मंत्र लिए गए हैं। | संहिता में 20 कांड और 730 सूक्त हैं। |
आइए! अब चार वेदांगों की यात्रा पर निकलते हैं …
नीचे दिए गए टेबल में चार वेदों के अंगों की स्थिति को दिखाया जा रहा है …..
04 वेदों के अंगों की संख्याएं
वेदांग | ऋग्वेद | यजुर्वेद | सामवेद | अथर्ववेद |
संहिता | 01 | शुक्ल 2 कृष्ण 4 | 03 | 02 |
ब्राह्मण | 02 | 2+2 | 04 | 01 |
आरण्यक | 02 | 1+1 | 02 | 00 |
उपनिषद् | 10 | 19 32 | 16 | 31 |
04 वेदों के अंगों के बारे में क्रमशः …
वेद ➡️ अंग ⤵️ | ऋग्वेद | यजुर्वेद | सामवेद | अथर्ववेद |
संहिता 📕 | 01 शाकल | कृष्ण 04 °तैत्तिरी °मैत्रायणी °कठ °कपिष्ठल शुक्ल 02 °माध्यंदिन वाजसनेयी °काण्व वाजसनेयी | 03 °कौथुमी °राणायनीय °जैमिनीय | 02 शौनकीय पैप्पलद |
ब्राह्मण 📔 | 02 °ऐतरेय °कौषीतकि | कृष्ण 02 °तैत्तिरीय °मैत्रायणी शुक्ल 02 °माध्यंदिन शतपथ °काण्व शतपथ | 04 °पंचविंश °शड्विंश °सांखायन °जैमिनीय | 01 गोपथ |
आरण्य 📘 | 02 °ऐतरेय °कौषीतकि | कृष्ण 01 °तैत्तिरीय शुक्ल 01 °बृहदारण्यक | 01 जैमिनीय | 00 |
📚 उपनिषद् | 10 | शुक्ल19कृष्ण 32 | 16 | 31 |
चार वेदांगों का सार
निम्न टेबल में संहिता , ब्राह्मण , आरण्यक और उपनिषद् की एक झलक देखी जा सकती है जिससे वेद जिज्ञासा और सघन होती है …
क्र. सं. | वेदांग | वेदांगों से परिचय |
1 | 📕 संहिता | संहिता शब्द ,संकलित शब्द आधारित है। वेद के मूल सूक्तों/मंत्रों के संग्रह का नाम , संहिता है। संहिता के मंत्रों पर उस वेद के अन्य अंगों की रचना हुई है। संहिता वेद का मूल ग्रन्थ होती है। |
2 | 📔 ब्राह्मण | कर्मकांड अर्थात यज्ञ एवं यज्ञ - विधियों का विस्तृत विवरण, व्याख्या आदि वेद के ब्राह्मण ग्रन्थ के विषय हैं । इनका विकास गृहस्थ यजमानों के लिए किया गया है जिससे वे प्रवृत्तिपरक कर्म माध्यम से निवृत्तिपरक कर्मों में पहुंच सकें। |
3 | 📘 आरण्यक | आरण्य से आरण्यक शब्द है।आरण्य में रह रहे वानप्रस्थ जीवन जीने वालों के लिए साधना की उच्च भूमियों को प्राप्त करने के लिए आरण्यक रचे गए हैं । जहां ब्राह्मण ग्रन्थ की साधना समाप्त होती है , वहां से आरण्यक ग्रन्थ आधारित साधना प्रारंभ होती है। |
4 | 📚 उपनिषद् | जहां आरण्यक ग्रंथों की साधना समाप्त होती हैं , वहीं से उपनिषद् आधारित साधना प्रारंभ होती है। उपनिषद् ऐसे साधकों के लिए हैं जो ब्राह्मण एवं आरण्यक माध्यम से साधना की उच्च भूमियों में पहुंच चुके होते है , वैराव्यवस्था में होते हैं और कैवल्य मुखी होते हैं। उपनिषद् ज्ञान योग के ग्रन्थ हैं जो माया से ब्रह्म की अनुभूति कराते हैं। |
वेदों के चार अंग (संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद) न केवल पारस्परिक रूप से जुड़े हुए हैं, बल्कि वास्तव में ये ज्ञान प्राप्ति की ओर ले जाने वाली चार सीढ़ियाँ हैं। इनका क्रम एक गहन दार्शनिक यात्रा को दर्शाता है, जो बाह्य कर्मकांड से शुरू होकर आंतरिक आत्मज्ञान तक पहुँचता है। आइए इनके पारस्परिक संबंध और इस यात्रा को समझते हैं।
सार तत्त्व
संहिता (मंत्र) >मंत्रों का शुद्ध उच्चारण करने का अभ्यास , वेद साधना का पहला चरण है ।
↓
ब्राह्मण (यज्ञ की विधियाँ) > प्रवृत्ति परक कर्म का निवृत्ति परक कर्म में बदलने जाना , ब्राह्मण ग्रन्थ साधना का फल हैं।
↓
आरण्यक (आंतरिक साधना, प्रतीक, ध्यान) > इंद्रियों का रुख बाहर से अंदर की ओर हो जाना, आरण्यक ग्रन्थ साधना के अभ्यास का फल है।
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उपनिषद (ज्ञान, आत्मा-ब्रह्म की एकता) > मायामुक्त चिंतन का ब्रह्ममुखी हो जाने का अभ्यास अर्थात ब्रह्म केंद्रित होने का कारण , उपनिषद् साधना से प्राप्त ऊर्जा का परिणाम है। ब्रह्म केंद्रित साधक कैवल्य के द्वार पर होता हैं।
ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद कोई "अलग दर्शन" नहीं हैं, इन्हें वेद के "तन्त्र भाग" की भांति समझना उचित है। अगले अंक में वेद माध्यम से ब्रह्म एकत्व की अनुभूति के संबंध में यात्रा की जाएगी। वेद माध्यम से ब्रह्म से एकत्व की अनुभूति प्राप्त करने की साधना वैदिक प्रवृत्तिपरक कर्मों में कर्म बंधनों का त्याग हो जाना, निवृत्तिपरक कर्मों के द्वार को खोलता है । जन निवृत्तिपरक कर्म की सिद्धि मिलती है , जिसे नैष्कर्म्य की सिद्धि कहते हैं तब ज्ञानयोग में प्रवेश मिलता है । यहां तक कि साधना में अंतःकरण में राजस एवं तामस गुणों की वृत्तियों का आवागम समाप्त हो गया होता है और केवल सात्त्विक गुण की वृत्तियों का आवागमन बना रहता है । यह अवस्था अपरा वैराग्य की होती है।
जब ज्ञानयोग साधना दघन गो जाती है तब सात्त्विक गुणों की वृत्तियों का अंतःकरण में चल रहा आवागमन भी समाप्त हो जाता है और अंतःकरण एक दर्पण जैसा हो जाता है। साधना की इस अवस्था में निर्विकल्प समाधि घटने लगती है और मैं , मेरा , तूं और तेरा का भाव निर्मूल हो गया होता है और समाधि में ब्रह्म की ऐसी अनुभूति होने लगती है जिसे व्यक्त नहीं किया जा सकता। यह वह अवस्था होती है जहां सिद्धि प्राप्त योगी , सिद्धियों से अप्रभावित रहते हुए ब्रह्मवित् होता है और ऐसे योगी का वेदों से ऐसा संबंध होता है जैसा श्रीमद्भगवद्गीता श्लोक : 2.46 में बताया गया है …
यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः॥४६॥
जैसे सर्वत्र जल से परिपूर्ण बड़े जलाशय के मिल जाने पर छोटे कुएँ या तालाब का कोई विशेष उपयोग नहीं रह जाता, वैसे ही आत्मतत्त्व को जान लेने वाले ब्रह्मज्ञानी के लिए सम्पूर्ण वेदों का उपयोग उतना ही रह जाता है (अर्थात् व्यावहारिक रूप से कोई विशेष प्रयोजन नहीं रहता, क्योंकि वह वेदों के परम लक्ष्य को प्राप्त कर चुका होता है)।
यह अवस्था , कैवल्य प्राप्ति के ठीक पहले की होती है।
वेद चाहे कोई हो उसके चार अंग इस वेद - उपासना की चार सीढियां हैं। बेड संहिता के मूल मंत्रों का गहन अभ्यास उस वेद के ब्राह्मण ग्रंथों में पहुंचाताहै । ब्राह्मण ग्रंथों के आधारणपर की जाने वाली साधना उस वेद के आरण्यक ग्रंथों में पहुंचाती है । आरण्यक ग्रंथों पर आधारित की जाने वाली साधना से उस वेद के चौथे अंग उपनिषद् में प्रवेश मिलता है। उपनिषद् की साधना की सिद्धि मिलने पर ब्राह्मवित् की अवस्था मिलती है । इस प्रकार वेद के 04 अंगों की साधना की सीढ़ी पर निम्न क्रम से ऊपर चढ़ा जाता है
संहिता ( मूल मंत्रों का संग्रह )
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ब्राह्मण (वैदिक कर्म और यज्ञ की विधियाँ)
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आरण्यक (स्वाध्याय)
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उपनिषद (तत्त्व ज्ञान से कैवल्य मुखी)
उपनिषद् को वेदांत क्यों कहा जाता है , संभवतः अबतक स्पष्ट हो जाना चाहिए। उपनिषद् की साधना से ब्रह्म एकत्व की अनुभूति का होते रहना , एक दिन कैवल्य में पहुंचा देती है जिसे मोक्ष भी कहा जाता है अर्थात आवागमन से मुक्त हो जाना।
।।।।। ॐ ।।।।।
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