Saturday, August 5, 2023

गीता में अर्जुन का 13वां प्रश्न



प्रश्न – 13

श्लोक – 12.1

जो भक्त, निरंतर आपकी भक्ति में लगे हुए  आप की 

(साकार ) उपासना करते हैं और जो भक्त अक्षर - अव्यक्त  ( निराकार ) की  उपासना करते हैं, उन दोनों में कौन उत्तम योगवित् है ? 

अर्थात

साकार एवं निराकार उपासकों में उत्तम योगवित् कौन हैं ?

प्रभु श्री कृष्ण का उत्तर 

श्लोक – 12.2 से 12.20 ( 19 श्लोक )

योगवित् का अर्थ क्या है ? इसे समझते हैं ⤵️

सात्त्विक गुण में स्थिर चित्त का परम सत्ता (साकार रूप या निराकार रूप में ) से दीर्घ काल तक जुड़े रहना योगवित् की स्थिति होती है । इस स्थिति में धारणा , ध्यान और समाधि एक साथ घटित होते हैं जिसे पतंजलि योग सूत्र में संयम कहते हैं । संयम में चित्त का बसे रहना , योगवित् कहलाता है । इस स्थिति में रहने वाले योगी को सिद्धियां मिलती हैं । जो सिद्धियों को योग के रुकावट रूप में समझते हुए अपनी साधना का रुख कैवल्य की ओर बनाए रखते हैं , वे योगवित् कहलाते 

हैं । अब आगे ⤵️

अर्जुन के प्रश्न के संबंध में प्रभु श्री का उत्तर बहुत स्पष्ट तो नहीं है लेकिन जब सम्पूर्ण गीता को इस प्रश्न से संबंधित श्लोकों पर नजर डालते हैं तब साकार और निराकार उपासकों के संबंध में निम्न बातें मिलती हैं  ⤵️

# साकार उपासना निराकार उपासना का द्वार है । # साकार से निराकार में पहुंचा भक्त परा भक्ति में अव्यय ब्रह्म की अनुभूति से गुजरता है और साकार में जो रुक जाता है वह मन – बुद्धि से परे इस आयाम से वंचित रह जाता है /

#  निराकार उपासना अति कठिन उपासना है / 

🌷 निराकार उपासना करना केवल उनके लिए संभव है जो अपनें पिछले जन्म में वैराग्य की सिद्धि प्राप्त कर चुके होते हैं लेकिन आगे की साधना सिद्धि प्राप्ति से पहले उनका शरीर छूट गया होता है । 

योग , चित्त की वृत्तियों का निरोध ही तो है । चित्त को स्थिर रखने के लिए कोई आलंबन का सहारा तो  लेना ही पड़ता है चाहे वह स्थूल आलंबन का सहारा हो या सूक्ष्म आलंबन का सहारा हो । आलंबन मुक्त चित्त का शून्य रहना तो सिद्ध योगी के चित्त का स्वभाव बन गया होता है जो हर पल परम से परम में रहता है । 

अष्टांगयोग साधना में जब एक आसन में बैठे हुए साधक को एक ही समय में धारणा , ध्यान और समाधि ( साकार समाधि ) घटित होने लगती है तब इस साधना की स्थिति को संयम सिद्धि कहते हैं । संयम सिद्धि से जब साधना आगे चलती है तब धीरे - धीरे आलंबन सूक्ष्म होता चला जाता है और असंप्रज्ञात समाधि में आलंबन निमित्त मात्र रह जाता है । असंप्रज्ञात समाधि से आगे असंप्रज्ञ समाधि में आलंबन शून्य हो जाता है लेकिन संस्कारों के बीज रहते हैं जो समाधि टूटते ही चित्त को अपनी ओर खींच लेते हैं । असंप्रज्ञात समाधि सिद्धि तक संस्कार के बीज रहते हैं ।आगे धर्ममेघ समाधि में  संस्कारों के बीज भी निष्क्रिय हो जाते 

हैं । इस प्रकार आलंबन मुक्त अर्थात निराकार उपासना असंप्रज्ञात समाधि एवं इसके आगे की साधना होती है जो अति कठिन साधना है। 

अब देखते हैं प्रभु के श्लोकों को…

# सगुण उपासक योगियों में उत्तम योगी होते हैं 

#  निर्गुण - निराकार उपासना करने वाले योगी मुझे प्राप्त होते हैं

# निराकार उपासना में परिश्रम विशेष है 

# सगुण उपासक जो अनन्य भक्ति में आ जाते हैं और निरंतर भक्तियोग में डूबे रहते है ऐसे अनन्य भक्तों का मैं उद्धार करता हूं।

# जिसका चित्त मुझ पर केंद्रित होता है वह मुझ में निवास करता है ।

# यदि मुझ पर मन स्थिर नहीं होता तो अभ्यास योग में उतरो, यदि यह भी संभव नहीं तो मेरे लिए कर्म करो , ऐसा करने से मुझे प्राप्त करोगे ।

# यदि कर्म करना भी संभव नहीं तो तो कर्म में कर्मफल की सोच का त्याग करने का अभ्यास करो।

# अभ्यास से ज्ञान उत्तम है , ज्ञान से ध्यान उत्तम है और ध्यान से कर्म में कर्म फल की सोच का त्याग उत्तम है ।

# मेरा भक्त मुझे प्रिय होते है ।

# समभाव में स्थित भक्त मुझे प्रिय हैं।

# श्रद्धायुक्त भक्त मुझे प्रिय हैं ।

~~ ॐ ~~ 

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