Friday, September 27, 2024

श्रीमद्भागवत पुराण आधारित गंगा रहस्य भाग - 03


श्रीमद्भागवत पुराण आधारित गंगा रहस्य भाग - 03

(;भागवत : 3.10 , 3.11, 5.24 28 , 11.24 )

गंगा रहस्य संबंधित पिछले दो भागों में ध्रुवलोक , जम्बू द्वीप , ब्रह्मा की सुवर्ण पूरी , इलावृत वर्ष और मेरु पर्वत आदि  से परिचय हुआ लेकिन इनकी स्थितियों के बारे में जानने की जिज्ञासा बनी हुई है अतः इस अंक में इनके संबंध में चर्चा की जा रही है ।पिछले अंक में गंगा की ब्रह्मांड से परे से जंबू द्वीप में मेरु पर्वत के उच्च शिखर पर स्थित ब्रह्मा की सुवर्ण पूरी तक की यात्रा को देखा गया । भागवत में  ब्रह्मांड से परे के आयाम का तो कोई जानकारी उपलब्ध नहीं लेकिन ध्रुव लोक के संबंध में उपलब्ध जानकारी के आधार ध्रुवलोक को समझते हैं …

14 लोकों में ध्रुव लोक की स्थिति ⤵️

नीचे ग्राफिक में 14 लोको को स्पष्ट किया गया है जिनमे पृथ्वी सहित पृथ्वी के ऊपर 07 लोक हैं और 07 पृथ्गी के नीचे के लोक हैं । इन 14 लोकों को भुवन भी कहते हैं ।

 ॐ भूर्भुवः स्व :  गायत्री छंद का पहला पद है । यह यजुर्वेदीय मंत्र है और गायत्री के शेष तीन पद ऋग्वेद एवं सामवेद में भी हैं । गायत्री पद में ॐ ईश्वर का संबोधन प्रणव है , भूः पृथ्वी का संबोधन है , भुवः अंतरिक्ष को कहते हैं और स्वः स्वर्गलोक के लिए प्रयोग किया गया है । पृथ्वी सहित पृथ्वी के ऊपर के 07 लोकों में 03 लोकों से आप का परिचय हो गया शेष 04 लोक और भी हैं जिन्हें ऊपर ग्राफिक में देख सकते हैं । ऊपर ग्राफिक में 14 लोकों में रहने वालों के संबंध में भी भागवत के आधार पर संक्षेप में दिया गया है ।

पृथ्वी सहित ऊपर के 07 लोकों में पृथ्वी ( भू: ) को मृत्यु लोक भी कहते हैं और यह कर्म भूमि है जहां मनुष्य सहित नाना प्रकार की अन्य सृष्टियां हैं और अपनें - अपनें कर्मों के आधारित अपना - अपना जीवन जी रहे हैं । पृथ्वी के ऊपर का लोक ( भुव: )  अंतरिक्ष लोक कहलाता है को  भूत - प्रेत  लोक है  और इस लोक के ऊपर (स्वः) , स्वर्ग लोक में देवता रहते हैं । महर्लोक ( मह:) में अदृश्य रूप में साधक लोग निवास करते हैं तथा तप लोक में अदृश्य रूप में सिद्ध निवास करते हैं ।  ब्रह्मलोक ( सत्  लोक ) में निष्काम कर्म करने वाले कर्मयोगी पहुंचते हैं । ध्रुव लोक , ध्रुव जी का लोक है । 

अब देखना होगा कि ध्रुव जी कौन हैं ?

ध्रुव जी कौन हैं ? [भागवत स्कंध - 4 आधारित ]

ध्रुव जी पहले मनु के दूसरे पुत्र उत्तान पाद के पुत्र हैं जो 36000 वर्ष राज्य करके बद्रीनाथ में निर्विकल्प समाधि माध्यम से देह त्याग कर ध्रुवलाेक के स्वामी बने हैं । 5 वर्षीय ध्रुव मथुरा में यमुना के तट पर नारद  द्वारा बताए गए पूरक , रेचक और कुंभक प्रणायामों का अभ्यास  5 दिनों तक की और सिद्धि प्राप्ति पर श्री हरि का दर्शन प्राप्त कर ध्रुव पद प्राप्ति का आशीर्वाद प्राप्त किए । श्री हरि ध्रुव जी को वापिस घर लौट जाने को कहा । प्रभु आगे कहते हैं , ध्रुव !  तुम जीवन के अंत में बदरी बन में जाकर तप करना और वहीं से तुम अपनें ध्रुव लोक चले जाओगे   (भागवत स्कंध - 4 ) ।

अब अगले भाग में जम्मू द्वीप को समझने के लिए  07 द्वीपों एवं 07 सागरो के भूगोल पर चर्चा की जाएगी ।

~~ ॐ ~~ 

Thursday, September 26, 2024

श्रीमद्भागवत पुराण में गंगा रहस्य भाग - 02


श्रीमद्भागवत पुराण 

आधारित गंगा रहस्य भाग - 02

गंगा स्वयं नहीं आयी, लायी गई 

( भागवत स्कंध : 5.16 , 5.17 , 9.9 )

ऋग्वेद की परम पवित्र नदी सरस्वती है । ऋग्वेद में गंगा शब्द 01 बार और यमुना शब्द 03 बार आया है इस प्रकार ऋगवेदीय काल में गंगा का आज जैसा महत्व नहीं रहा होगा ।

राजा बलिकी यज्ञशाला में यज्ञ मूर्ति प्रभु श्री विष्णु बामन रूप में  जब तीन कदम भूमि मापने के लिए अपना पहला बाया पैर ऊपर उठाया तब उनके पैर का अंगूठा ब्रह्मांड की आखिरी परत को छेद दिया । इस छिद्र से ब्रह्माण्ड सीमा के उस पार से एक जल धारा ब्रह्मांड में प्रवेश की और प्रभु श्री के चरण को स्पर्श करती हुई ध्रुवलोक में पहुंची । प्रभु श्री के चरण स्पर्श करके गंगा भगवत्पदी कहलाने लगी ।

 ध्रुवलोक जिसे विष्णुपद भी कहते हैं से गंगा अन्य 5 लोकों से होती हुई हजारों युगों बाद पृथ्वी लोक में पहुंचती हैं । जम्बू द्वीप 07 द्वीपों में केंद्र द्वीप है । जंबू द्वीप के केंद्र में इलावृत्त वर्ष स्थित है जो शिव क्षेत्र है । इलावृत वर्ष के केंद्र में मेरु पर्वत स्थित है जिसके उच्च शिखर पर स्थित सुवर्णमयी ब्रह्माकी पूरी हैं । गंगा ब्रह्मा की सुवर्ण पूरी में उतरती हैं , यहां देखें निम्न दो ग्राफिक्स को ⤵️

मेरु पर्वत के संबंध में विस्तार से देखने के लिए भागवत 

स्कंध : 3 .21 - 3 33 + 4.19 + 5.16 + 12.8 - 12.9 को देख सकते हैं ।

मेरु के उच्च शिखर पर स्थित ब्रह्मास की सुवर्ण पूरी में उतरते ही गंगा निम्न  04 भागों में विभक्त हो जाती हैं । 

1 - उत्तर दिशामें बहनें वाली गंगा को भद्रा कहते हैं जो मेरु शिखर से चल कर क्रमशः नील पर्वत , रम्यक वर्ष , श्वेत पर्वत , हिरण्य वर्ष , श्रृंगवान पर्वत और कुरु वर्ष से होती हुई उत्तरी सागर से मिलती हैं । भद्रा का विस्तृत भूगोल ज्ञात नही है ।

यहां साइबेरिया का उत्तरी सागर का तटीय क्षेत्र कुरु वर्ष के रूप में बताया जा रहा है सिर दूसरा कुरुक्षेत्र हरियाणा में दिल्ली - चंडीगढ़ मार्ग पर स्थित हैं कुरुक्षेत्र जहां महाभारत युद्ध हुआ था । इन दो 

कुरुक्षेत्रों पर शोध कार्य किया जाना चाहिए ।

2 - दक्षिण दिशामें बहने वाली गंगा धारा अलकनंदा कहलाती है जो  क्रमशः निषध पर्वत , हरि वर्ष , हेमकूट पर्वत , किंपुरुष वर्ष  से होती हुई हिमालय पर्वत को पार करके भारत वर्ष को पवित्र करती हुई सागर से जा मिलती हैं । यहां हिमालय , भारत वर्ष  , अलकनंदा और जिस सागर में अलकनंदा लीन होती हैं उस सागर के संबंध पर भी शोध करना चाहिए । जिसे हम सब आज गंगा कह रहे हैं वह यहां अलकनंदा है ।

 3 - पूर्व दिशा में गंगा की बहने वाली धारा सीता क्रमशः गंधमादन पर्वत को पार करके भद्राश्व वर्ष को पवित्र करती हुई सागर से जा मिलती हैं। इस का कोई पता नहीं मिलता ।

4 - पश्चिम दिशा में गंगा की बहने वाली धारा चक्षु क्रमशः माल्यावान पर्वत को पार करके केतुमान वर्ष को पवित्र करती हुई सागर से जा मिलती हैं , इस के संबंध में इतना ही ज्ञात है ।

ऊपर व्यक्त गंगा की 04 धाराओं को आप यहां जंबू द्वीप के भूगोल समनाधित ग्राफिक में देख सकते हैं ⤵️

~~ ॐ ~~ 


Saturday, September 21, 2024

प्रभु श्री कृष्ण का जन्म कब होता है ?


श्री कृष्ण अवतार 

प्रभु श्री कृष्ण - जन्म के संबंध में श्रीमद्भागवत पुराण में निम्न दो संदर्भ हैं । 

1⃣ संदर्भ ..

 कदाचिद् द्वापरस्यान्ते रहोलीलाधिकारिणः ।

समवेता यदात्र स्युर्यथेदानिम् तदा हरि : //

श्रीमद्भागवत पुराण खण्ड : 2 , माहात्म्य श्लोक - 1.29

2️⃣ संदर्भ ..

अष्टाविंशे द्वापरांते स्वयमेव यदा हरि : /

उत्सारयेन्निजाम् मायाम् तत्प्रकाशो भवेत्तदा //

 श्रीमद्भागवत पुराण खण्ड : 2 ,माहात्म्य श्लोक - 3.10 

ऊपर दिए गए भागवत के 02 श्लोकों का संबंध यदुकुल संहार से है अतः यदुकुल संहार संबंधित निम्नसंदरभों को भी आप देख सकते हैं…

भागवत 1.15.22- 51    > 30 श्लोक

भागवत 11.1 +11.6      > 74 श्लोक

भागवत 11.30 + 11.31 > 78 श्लोक (योग - 182 श्लोक )

ऊपर दिए गए संदर्भ 1 और संदर्भ 2 श्लोकों के भावार्थ को समझने से पूर्व इनके पृष्टिभूमि को जानना आवश्यक है। 

अरब सागर तट पर स्थित तीर्थ प्रभास क्षेत्र में जहां सरस्वती नदी पश्चिम मुखी हो कर सागर से मिलती थी , वहां यदुकुल के लोग आपस में लड़ रहे थे और यदुकुल का संहार हो रहा था । इस भयावह समय में प्रभु श्री कृष्ण सरस्वती तट पर एक पीपल वृक्ष के नीचे बैठे हुए गंगा द्वार से आए मैत्रेय ऋषि की उपस्थिति में उद्धव को तत्त्व ज्ञान दे रहे थे। दोपहर में लड़ाई शुरू हुई और सूर्यास्त होते - होते यदुकुल का अंत भी हो गया था । इस समय अर्जुन द्वारका में ही रह रहे थे । प्रभु अपनें सारथी दारूक के माध्यम से अर्जुन को संदेश भेजवाले थे कि आज से ठीक तीसरे दिन द्वारका सागर में लीन हो जाएगा अतः तुम वहां रह रहे लोगों को लेकर इंद्रप्रस्थ चले जाओ और प्रभु स्वयं अपनें गरुण रथ से स्वधाम चले गए । 

यदुकुल संहार के बाद द्वारका में प्रभु श्री कृष्ण की 16108 रानियों में से 16000 रानियां और एक प्रपौत्र श्री बज्र नाभ बचे थे । अर्जुन इन को ले कर इंद्रप्रस्थ आ गए थे । हस्तिनापुर सम्राट परीक्षित बज्र नाभ को मथुरा मंडल का सेनाधिपति नियुक्त कर दिए थे और बज्र नाभ अपने 16000 दादियों को ले कर मथुरा चलें गए थे । इस समय तक ब्रज के कृष्ण लीला संबंधित स्थल धरती में समा चुके थे और ब्रज पूर्ण रूपेण निर्जन हो चुका था अर्थात ब्रज श्री कृष्ण लीला स्थलियों और प्रजा से रिक्त हो चुका था ।

कुछ दिन बाद सम्राट परीक्षित बज्र नाभ से मिलने मथुरा पधारे । बज्र नाभ बोलें, आप का धन्यवाद कि आप मुझे मथुरा मंडल का सेनाधिपति नियुक्त किए लेकिन इस निर्जन क्षेत्र में मैं क्या करूंगा , यहां तो कोई नहीं है ! मैं यहां आने को के कर प्रसन्न था , चाहता था कि अपनें दादा जी की लीला स्थलियों को देखूं , लेकिन यहां तो वे भी नहीं दिखते !

 सम्राट परीक्षित यदुकुल के पुरोहित शांडिल्य ऋषि को आमंत्रित किए और उनसे अनुरोध किए कि वे मथुरा , वृंदावन , नंद गांव आदि सभीं कृष्ण से संबंधित स्थानों के लुप्त हो जाने तथा इन स्थानों का निर्जन हो जाने के रहस्य से पर्दा उठाएं ।

ऋषि शांडिल्य जो दृश्य प्रस्तुत करते हैं उसी के संदर्भ में  प्रारंभ में दिए गए दो श्लोकों में पहला श्लोक है । दूसरा श्लोक गोवर्धन के निकट कुसुम सरोवर पर उद्धव जी द्वारा  हस्तिनापुर नरेश परीक्षित , बज्रनाभ ( प्रभु श्री कृष्ण के प्रपौत्र ) और श्री  कृष्ण की 16,000 रानियों को कृष्ण लीला रहस्य को व्यक्त करते समय बोला गया है।

अब प्रारंभिक दो श्लोकों के भावार्थ को समझते हैं ..

संदर्भ सूत्र 01 का भावार्थ

कभीं किसी  द्वापर के अंत में जब प्रभु के रहस्य मयी लीला देखनें के अधिकारी ब्रज में एकत्र होते हैं जैसा अभी हुआ है  ,उस समय प्रभु श्री कृष्ण अपने अंतरंग एवं परिकरों के साथ ब्रज में अवतार लेते हैं । 

संदर्भ सूत्र 02 का भावार्थ 

जब 28 वें द्वापर के अंत में प्रभु श्री हरि स्वयं ही सामने प्रकट हो कर अपनी माया का पर्दा उठा लेते हैं , तब उस समय जीवों को उनका प्रकाश प्राप्त होता है । अब इन दो श्लोकों के संबंध में कुछ और जानकारी लेते हैं …

कभी किसी 28 वें द्वापर के अंत में जब प्रभु श्री कृष्ण की लीला देखने के अधिकारी ब्रज में इकट्ठे होते हैं तब प्रभु श्री कृष्ण अपने परिकरों एवं अंतरंगो के साथ ब्रज में अवतरित होते हैं और अपनी लीलाओं को दिखाते हैं । यहां ध्यान रहे कि 

हमेशा नहीं कभी किसी 28 वें द्वापर युग के अंत समय में प्रभु श्री कृष्ण अवतरित होते हैं । श्रीमद्भागवत पुराण 3.11 , 8.1 और 12.4 में समय की गणित दी गई है । सतयुग ( 1, 728, 000 ) , त्रेतायुग ( 1,296,000 ) , द्वापर ( 864,000 ) और कलियुग ( 432,000 ) चार युगों की अवधियों का योग 4,320,000 वर्ष है । ब्रह्मा का एक दिन जिसे कल्प  कहते हैं वह 1000 ( चार युगों की अवधि ) का होता है जो 4,320,000,000 वर्ष अर्थात एक कल्प = 4.32 billion years का होता है और इस प्रकार 28 वें द्वापर का अंत 120.96 million years पर आता है अर्थात यदि दुबारा कभी श्री कृष्ण का जन्म हुआ तो वह समय 120.96 × x वर्ष बाद ही होगा । यहां x = 28 वे द्वापर की संख्या है । इसे ऐसे समझते हैं ; अभी पिछले द्वापर में प्रभु श्री कृष्ण का अवतरण हुआ था । यदि इसके आगे तीसरे द्वापर के अंत में यदि पुनः प्रभु श्री कृष्ण अवतरित होते हैं तो वह समय होगा 120.96 मिलियन x 03 वर्ष का होगा । जब भी श्री कृष्ण अवतरित होते हैं अब वही मथुरा , वृंदावन , वसुदेव , देवकी , यशोदा और नंद , राधा , गोप , गोपियां आदि होते हैं । वही लोग और वही श्रीमद्भागवत की कहानी पुनः घटित होती रहती है।

प्रभु श्री कृष्ण का पिछला अवतरण न पहला था न आखिरी था , यह समयांतर पर पुनः - पुनः होता रहता है। 

~~ ॐ ~~