1- भोगतत्वोंके सम्मोहनसे अप्रभावित मन ब्रह्म -जीवात्मा एकत्वकी अनुभूतिके माध्यम से ब्रह्म वित् बनाता है ।
2- वैदिक कर्म दों प्रकरके हैं : एक प्रवित्ति परक और दूसरा निबृत्ति परक कहलाता
है ।प्रवित्तिपरकका केंद्र भोग होता है और निबृत्तिपरकका केंद्र मोक्ष ।
3- माया मोहित ब्यक्ति असुर कहलाता है ।
4- माया मोहितकी पीठ प्रभुकी ओर होती है और आँखें भोग पर टिकी होती हैं ।
5- संकल्प धारी योगी नहीं हो सकता ।
6- संकल्पका न होना काममुक्त बनाता है ।
7- काममुक्त ब्रह्मवित् होता है ।
8- ब्रह्मवित् का बसेरा प्रभुमें होता है ।
9- ब्रह्मवित् और माया सम्मोहितकी आँखें कभीं एक दुसरे से नहीं मिलती ।
10- दुःख संयोग वियोगः योगः - गीता
<> ऊपरके सूत्र मूलतः गीता आधारित हैं <>
~~~ ॐ ~~~
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