Friday, March 29, 2024

गदाधर से रामकृष्ण , रामकृष्ण से परमहंस तक की आध्यात्मिक यात्रा


परमहंस श्री रामकृष्ण जी 

 गदाधर से रामकृष्ण और रामकृष्ण से परमहंस रामकृष्ण कैसे बने ?


दक्षिणेश्वर मां काली  परिसर का निर्माण रानी रासमणि द्वारा  करवाया गया था  और उनके दामाद माथुर मोहन विश्वास परिसर के प्रधान थे।लोग प्यार से माथुर मोहन विश्वास को मथुर बाबू कहा करते थे।

श्री रामकृष्ण परमहंस जी का पारिवारिक नाम गदाधर चट्टोपाध्याय था । गदाधर के बड़े भाई श्री रामकुमार जी को 1855 में काली मंदिर के प्रधान पुरोहित के रूप में नियुक्त किया गया था जो रामकृष्ण से 21 वर्ष बड़े थे। जब मंदिर बन कर तैयार हुआ तब बंगाल का कोई भी ब्राह्मण इस मंदिर का पुजारी बनने को तैयार नहीं हुआ क्योंकि मंदिर का निर्माण केवट जाति की रानी रासमणि द्वारा करवाया गया था ।  श्री रामकुमार जी विद्वान तो थे लेकिन गरीब भी थे और परिवार के भरण - पोषण के लिए कोलकाता में एक छोटा सा संस्कृत विद्यालय चला रहे थे। श्री रामकुमार जी के साथ गदाधर भी कोलकाता में थे । गरीबी के कारण श्री रामकुमार जी दक्षिणेश्वर में प्रधान पुरोहित बनने के लिए तैयार हो गए और दक्षिणेश्वर आ गए लेकिन छोटे भाई गदाधर उनके साथ दक्षिणेश्वर नहीं आए क्योंकि शुद्र जाति के द्वारा निर्मित मंदिर में वे नहीं रहना चाहते थे । गदाधर की इच्छा के विरुद्ध उनके बड़े भाई दक्षिणेश्वर का पुजारी पद स्वीकार किए थे । कुछ दिन बाद न चाहते हुए भी गदाधर दक्षिणेश्वर भाई के पास चले आए । गदाधर मां काली मंदिर परिसर में रहने लगे  लेकिन वहां की गतिविधियों से उनका कोई संबंध न था , यहां तक कि गदाधर मां के प्रसाद को भी ग्रहण नहीं करते थे । गदाधर के साथ उनसे 04 साल छोटा उनकी बहन का लड़का हृदय राम भी रह रहे थे ; दोनों में गहरा प्रेम था ।

एक दिन गदाधर हृदय से गंगा जी से मिट्टी मंगवाए और उस मिट्टी से एक प्यारी सी  शिव की मूर्ति तैयार किए । जब उस मूर्ति की वे पूजा कर रहे थे , उधर से मथुर बाबू वहा आ गए और उनकी दृष्टि मूर्ति और उनकी पूजा दोनों पर पड़ी और मानो उनके पैर को वहीं कोई बाध दिया हो , वे आगे न बढ़ पाए ।  उस समय गदाधर पूजा में इतने लीन थे कि उन्हें मथुर बाबू की वहां उपस्थिति का पता तक चल।पाया । इस समय मथुर बाबू को यह पता  न था कि इस मूर्ति का  निर्माता कौन है पर मूर्ति मथुर बाबू को अपनी ओर  खीच ली थी । हृदय राम को  मथुर बाबू बुलवाए और इस मूर्ति के बारे में पूछा तथा मूर्ति को अपनें पास ले आने को कहे । हृदय बोले , बाबू जी ! यह मूर्ति स्वयं गदाधर बनाई है , तब क्या है , मथुरबाबू के आश्चर्य का ठिकाना ने रहा ।  गदाधर की शिव की पूजा और वह मिट्टी की शिव की मूर्ति मथुर बाबू को अपनी ओर खीच लिया था । मूर्ति को मथुर बाबू रानी रासमणि को दिखाए और रामकृष्ण के संबंध में चर्चा भी किए । मथुर बाबू जानते थे कि गदाधर किसी भींसूरत में मंदिर का पुजारी बनने को तैयार ने होगा लेकिन वे थे तो सुलझे हुए व्यापारी , और एक दिन गदाधर को राधा - गोविंद मंदिर के पुजारी बनाने में सफल हो जाए आए हृदय को सहायक के रूप में नियुक्त कर दिए । गदाधर को राधा - गोविंद मंदिर के पुजारी के के के अतिरिक्त मां के श्रृंगार की भी जिम्मेदारी मिल गई ।

 कुछ दिनों बाद जन्माष्टमी के कुछ दिन बाद  राधा - गोविंद मंदिर की राधा - गोविंद की मूर्ति का एक पैर टूट गया । शास्त्र का नियम है कि खंडित मूर्ति की पूजा नहीं करनी चाहिए । मथुर बाबू पंडितों को बुलाया और उन सब की राय ली  ,सबकी एक ही राय थी , मूर्ति को बदल देना चाहिए । अंततः गदाधर से भी पूछा गया , वे बोले , मथुर बाबू ! आप मुझे यह बताए कि यदि आपके बच्चे की एक टांग टूट जाय तो क्या आप उसके स्थान पर दूसरा बच्चा ले आयेंगे क्या ? नहीं न ! फिर इस मूर्ति को आप क्यों बदलना चाह रहे हो ? 

मुझे मौका दीजिए मैं इस मूर्ति को ठीक करना चाहता हूं । रामकृष्ण मूर्ति के खंडित पैर को ऐसा जोड़ा कि कोई बता नहीं पा रहा था कि यह वही मूर्ति है । आज भी वह मूर्ति राधा - गोविंद मंदिर में है। 

गंगा जी की मिट्टी से निर्मित शिव की मूर्ति , गदाधर लाइन्स मूर्ति के प्रति भक्ति तथा राधा गोविंद की मूर्ति के एक पैर को जोड़ने के काम से प्रभावित हो कर मथुर बाबू गजाधर के प्रेमी हो गए और गदाधर चट्टोपाध्याय नाम बदल कर  रामकृष्ण रख दिए ।

 बड़े भाई रामकुमार की मृत्यु 1856 ले अंत  में हो गई और काली  मां के पुजारी रूप में गदाधर को रखा गयाबीतथा उनकी सहायता के लिए हृदय को रखा गया । उधर राधा - गोविंद मंदिर के लिए रामकृष्ण जी के रिश्तेदार हलधारी को नियुक्त किया गया ।   

रामकृष्ण जी की काली मां की पूजा देख मथुर बारहीबू को यकीन हो गया था कि रामकृष्ण कोई साधारण व्यक्ति नहीं , यह अवतारी पुरुष है । समय गुजरता रहा और मथुर बाबू का रामकृष्ण से प्यार बढ़ता रहा । मथुर बाबू रामकृष्ण की परीक्षा भी लेते रहते थे । एक बार मथुर बाबू कोलकाता की मशहूर तवाईफ को बुलवाया और रामकृष्ण को आकर्षित करने की जिम्मेदारी उसे सौंपी। रामकृष्ण को वह तवायफ आकर्षित नहीं कर पाई और बाद में उनके पैरों में गिर पड़ी और रोने लगी । रामकृष्ण उसे भी मां ही कहते थे । मथुर बाबू रामकृष्ण की  प्रेमा भक्ति को देखते हुए उन्हें परमहंस कहने लगे । इस प्रकार गदाधर चट्टोपाध्याय पहले  रामकृष्ण बने और बाद में रामकृष्ण से परमहंस बन गए ।

यह  गदाधर चट्टोपाध्याय की रामकृष्ण से परमहंस तक की आध्यात्मिक यात्रा । 

~~ ॐ ~~

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