आप अपनें जीवन - यात्रा का रुख किधर को रखा है ?
आप दिल से किसे चाहते हैं ; भोग को या भगवान को या दोनों को ?
भोग और भागवान एक साथ एक बुद्धि में नहीं रहते , ऎसी बात गीता कहता है , फिर ?
क्या यह संभव नहीं कि भोग के आइनें में भगवान को देखा जाए ?
- हमारा अधिकाँश समय दूसरों के सम्बन्ध में सोचनें में गुजर जा रहा है , क्य हम इसे समझते हैं ?
- जितना समय हम दूसरों में बुराई को खोजनें में लगाते हैं यदि उसका एक चौथाई भी अपनें में बुराइयों को देखनें में लगाएं तो संभव है आप परम सत्य को देखनें में सफल हो सकें
- ऐसा क्यों है कि हमें दूसरों में मात्र बुराइयां दिखती हैं और अपनें में अच्छाइयां ही अच्छाइयां ?
- क्या हम राम को इस लिए चाहते हैं कि सारी सोचें कामयाब हो सकें ?
- क्या राम मात्रा कामनाओं को पूरा करनें की मशीन बन कर रह गया है ?
- क्या हम राम के अधीन हैं या राम हमारे अधीन ?
- हम क्यों चाहते हैं कि सभीं हमारे इशारे पर चलें चाहे वह भगवान ही क्यों न हो ?
- पिता , माता , पत्नी , पुरुष , पुत्र / पुत्री , सगे - संबंधी सभीं को हम अपना गुलाम क्यों बनाना चाहते हैं ?
- बहुत हो चुका , मालिक बनें लेकिन मात्र अतृप्तता ही मिली , फिर क्या करें ?
- चलो , अभीं तक जिनको हम अपना गुलाम बनाना चाहते रहे उनमें से किसी एक का ही सही , गुलाम बन कर देखते हैं
- क्या हम समझते हैं कि प्रभु संदेहों से भरी बुद्धि - क्षेत्र में नहीं रहता , वह तो बसेरा बनाता है उनके हृदयों में जिनके ह्रदय ......
मीरा , कबीर , नानक , परम हंस रामकृष्ण जैसे हों ......
ऐसे दिल जिनसे श्रद्धा छलकती हो
ह्रदय में श्रद्धा की लहर उठाई नहीं जा सकती यह तो प्रभु का प्रसाद है जो किसी - किसी को कभीं - कभीं मिलता है
अब सोचिये नहीं -----
क्योंकि ....
नानकजी साहिब कहते हैं ....
सोचे सोचि न होवहीं ----ज्यों सोची लख बार .....
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