Monday, July 10, 2023

गीता में अर्जुन का चौथा प्रश्न



प्रश्न – 04

गीता श्लोक – 4.4

श्लोक भावार्थ

अर्जुन कह रहे हैं > आपका जन्म अभीं हाल में हुआ है और विवस्वत ( सूर्य ) का जन्म बहुत पुराना है । ऐसी स्थिति में मैं कैसे समझूँ की कल्प के प्रारम्भ में जन्में सूर्य को आप यह योग कहा होगा ?

अर्जुन की संदेहयुक्त बुद्धि में इस प्रश्न के उठने का कारण प्रभु  के श्लोक : 4.1 - 4.3 हैं जिनका भावार्थ निम्न प्रकार से है⤵️

प्रभु यहां कह रहे हैं > मैं यह अविनाशी योग सूर्य को कहा था , सूर्य से यह योग उनके पुत्र मनु को मिला । मनु से यह योग इक्ष्वाकु को मिला और इक्ष्वाकु से यह योग राजर्षियों को मिला किन्तु इसके बाद यह योग बहुत समय तक नष्ट हो गया था । तुम मेरे मित्र हो , मेरे भक्त हो अतः आज मैं तुमको इस पुरातन योग के संबंध में चर्चा की  है ।

प्रभु श्री कृष्ण का उत्तर 

श्लोक – 4.5 से 4.42 तक [ कुल 38 श्लोक ] 

अब इन श्लोकों के भावार्थ को समझते हैं ⬇️

 गीता सूत्र – 4.5 में प्रभु कहते हैं , वर्तमान से पहले भूत काल में मेरे और तुम्हारे अनेक जन्म हो चुके हैं । तुम अपने पिछले जन्मों को नहीं जानता लेकिन मैं अपनें पिछले जन्मों को जानता हूं । 

यहां प्रभु पिछले जन्मों की स्मृतियों में लौटनें की बात कर रहे हैं जो योग की दृष्टि में बहुत गहरी बात है । योगाभ्यास माध्यम से अपनें पिछले जन्मों की स्मृतियों में लौटने की बात बुद्ध और महावीर भी करते थे । बुद्ध इस ध्यान को आलय विज्ञान और महाबीर जाति स्मरण कहते थे । 

प्रभु श्लोक : 4.6 और उसके आगे के श्लोकों में कह रहे हैं ⤵️

# मैं अजन्मा , अविनाशी एवं समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी योग माया से अपनी प्रकृति को अधीन करके  प्रकट होता हूं । 

# जब - जब धर्म की हानि होती है , अधर्म की वृद्धि होती है तब - तब साधु पुरुषों के कल्याण हेतु , पापियों के संहार हेतु एवं धर्म की पुनः स्थापना हेतु युग - युग में मैं अवतार लेता हूं ।

#  राग , भय और क्रोध मुक्त योगी मुझे ज्ञान मार्ग से  प्राप्त करते हैं । 

# भक्त के भाव के अनुसार मैं उसे चाहता हूं ।

#  देव पूजन के कामना पूर्ति होती है

# बुद्धिमान कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है। यहां कर्मका अर्थ है प्रवृत्ति परक कर्म और अकर्म का अर्थ है निवृत्ति परक कर्म

# कामना - संकल्प रहित कर्म करने वाले पंडित होते हैं । 

🌷 श्लोक : 4.26 - 4.33 तक यज्ञ संबंधित हैं जिनमे श्लोक : 4.29 - 30 में निम्न ध्यान विधि बताई जा रही है ⤵️

<> अपान वायु में प्राण वायु को हवन करना , प्राण वायु को अपान वायु में हवन करना और प्राण - अपान को रोक कर प्राणों को प्राणों में हवन करना । 

यहां बाह्य कुंभक प्राणायाम और आंतरिक कुंभक प्राणायाम की बात प्रभु श्री कृष्ण अर्जुन को बता रहे हैं । इन दो प्राणायामों में से किसी एक की सिद्धि से स्थिर प्रज्ञता मिलती है । प्राण - अपान का स्वतः रुकना प्राणायाम है यहां देखिए पतंजलि योग सूत्र साधन पाद सूत्र : 49 ⤵️

पतंजलि योग सूत्र में पूरक प्राणायाम में अंदर ली जा रही श्वास पर ध्यान केंद्रित करना होता है । रेचक प्राणायाम में बाहर निकाली जा रही श्वास पर ध्यान केंद्रित करना होता है ।  इन दोनों प्राणायामो की सिद्धि से मन शांत होता है और बुद्धि स्थिर होती है । 

श्लोक : 34 - 39

ज्ञान से मोह मुक्ति मिलती है । ज्ञान अग्नि में सभी कर्म भस्म हो जाते हैं । प्रभु समर्पित कर्म , बंधन मुक्त कर्म होते हैं ।

श्लोक : 4.40 - 4.42

^ विवेकहीन , श्रद्धा रहित और संशययुक्त के लिए न यह लोक है न परलोक है , उसकी जीवन यात्रा कांटो भरी यात्रा होती है।

^ जो संशय मुक्त है , उनके सभी कर्म , कर्मयोग बन गए होते हैं और इस प्रकार वह मनुष्य कर्म संन्यास में होता है तथा कर्म बन्धनों से मुक्त रहता है   

# अतः हे  अर्जुन ! तुम अपनें हृदय में स्थित अज्ञान की संशय ग्रंथि को विवेक ज्ञान माध्यम से काट दो और योग में स्थित हो कर युद्ध में खड़े हो जाओ  

~~ॐ ~~  

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