Thursday, July 13, 2023

श्रीमद्भगवद्गीता में अर्जुन का पांचवां प्रश्न


प्रश्न - 5

भावार्थ

अर्जुन कह रहे हैं ⤵️

हे कृष्ण! आप कर्म संन्यास की बात करते हैं और फिर कर्मयोग की भी प्रशंसा करते हैं । इन दोनों में जो मेरे लिए कल्याणकारी हो उसे कहें।

पहले अर्जुन के मनोविज्ञान को समझते हैं फिर इस प्रश्न और इसके उत्तर को देखेंगे ….

गीता अध्याय : 3 में कर्म और ज्ञान योग में अर्जुन भ्रमित थे और अब अध्याय : 5 में  कर्म संन्यास एवं कर्म योग में भ्रमित हो रहे हैं अर्थात अर्जुन की बुद्धि अभी तक ज्ञानयोग , कर्म , कर्म योग और कर्म संन्यास में उलझी हुई दिख रही है ।

 यदि अध्याय - 3 में कर्म एवं ज्ञान योग स्पष्ट हो गए होते तो यहां यह प्रश्न न उठता क्योंकि योग साधना के तत्त्व  कर्म - कर्म संन्यास एवं कर्म योग  और ज्ञान - ज्ञानयोग एक दूसरे से जुड़े हुए तत्त्व  हैं।

 कर्म में कर्म बंधनों का त्याग , कर्म संन्यास है और कर्म में कर्म बंधनों के प्रति होश उठना कर्म योग है । कर्म योग की सिद्धि से ज्ञान मिलता हैं और ज्ञान में प्रकृति - पुरुष के बोध से जब विवेक की धारा अंतःकरणमेंं भरने लगती है तब वह योगी , ज्ञान योगी होता है जो ब्रह्मवित् होता है ।

प्रवृत्ति परक कर्म , निवृत्ति परक कर्म , कर्म संन्यास , कर्मयोग , ज्ञान , ज्ञानयोग और ब्रह्मवित् के पारस्परिक संबंध को संक्षेप में ऊपर बता दिया गया  अब इस के आधार पर अर्जुन के प्रश्न : 5 के संदर्भ में प्रभु के 60 श्लोकों के सार को समझें  ⤵️

( श्लोक 5.2 से 5.29 तक + श्लोक 6.1 से 6.32 तक का सार निम्न प्रकार है ) ⤵️


( 1 ) श्लोक : 5.2 - 5.29

🌷कर्मयोगी कर्म संन्यासी ही होता है । कर्मयोग , कर्म संन्यास और ज्ञानयोग तीनों का फल एक होता है ।

🌷कर्मयोग के बिना कर्म संन्यास संभव नहीं । कर्मयोगी कर्मों से बधा हुआ नहीं होता । तत्त्ववित् अपनी इंद्रियों के क्रियाओंका दृष्टा होता है , उनसे प्रभावित नहीं होता। कर्मयोगी अपनें कर्मों को प्रभु को समर्पित करके उन्हें करता है और इस प्रकार वह पाप से अछूता रहता है । 

🌷कर्मयोगी आसक्ति रहित इंद्रिय , मन , बुद्धि और शरीर से को भी करता है वह अपने अंतःकरण की शुद्धि के लिए करता है । 

🌷कर्म , कर्म फल और करता भाव की रचना प्रभु नहीं करते , यह सब स्वभाव से होते हैं । 

🌷प्रभु किसी के पाप - पुण्य कर्मों को ग्रहण नहीं करते 

🌷ज्ञान से परम प्रकाश दिखता है और ज्ञानी प्रभु केंद्रित , ब्रह्मवित् , समभाव और समदर्शी होता है । 

🌷इंद्रिय -विषय संयोग की निष्पति भोग है । योगारूढ़

काम , क्रोध रहित , आत्मा केंद्रित ब्रह्ममय होता है। 

ध्यानविधि ( श्लोक : 5.27 - 5.28

विषय चिंतन मुक्त मन से , भृगुटी के मध्य में  दृष्टि को केंद्रित करके , नासिका में प्राण और अपान वायुओं को सम रखते हुए श्वासों का दृष्टा बने रहने से भोग बंधनों के मुक्ति मिलती है ।

( 2 ) श्लोक : 6.1 - 6.32

# संकल्प त्यागी और जिसकी इंद्रियां भोगों में अनासक्त रहित हैं , वह योगारूढ़ होता है । 

# मनुष्य स्वयं का मित्र और शत्रु दोनो है ।

#  इंद्रिय निग्रह वाला , जिसका मन शांत हो जो समभाव में रहता हो वह स्वयं का मित्र होता है अन्यथा शत्रु होता है ।

# एकांत स्थान में बैठ कर आत्मा के मध्यम से परमात्मा से जुड़ने का अभ्यास करते रहना चाहिए ।

ध्यान करने की विधि ( श्लोक : 6.11 - 6.20

# शुद्ध भूमि पर कुशा या मृगछाला बिछा कर उस पर किसी सुखमय आसन में बैठ कर ध्यान करना चाहिए । 

# भूमि समतल होनी चाहिए । शरीर सीधा और तनाव रहित रहना चाहिए ।

#; दृष्टि नासिका के अग्र भाग पर केंद्रित रखना चाहिए । # ब्रह्मचारी व्रत में रहना चाहिए और मन में केवल सात्त्विक विचारों का प्रवेश होना चाहिए ।

#  धीरे - धीरे मन शांत होने लगता है और अंततः शुन्यावस्था में जा जाता है । 

# नियमित ध्यान में रहने वाले योगी को सामान्य और सात्त्विक भोजन लेना चाहिए ; न ज्यादा न कम ।

#  सामान्य निद्रा लेनी चाहिए , ज्यादा सोना या ज्यादा जागना ठीक नहीं । 

# ध्यान सिद्धि पर चित्त ऐसे स्थिर हो जाता है जैसे वायु रहित स्थान में रखे एक दीपक की ज्योति स्थिर होती है।

श्लोक : 6.21 - 6. 32

समाधिस्थ योगी आनंद से भर जाता है 

# दुःख संयोग वियोगः, योग: 

अर्थात जिन तत्त्वों से दुख की उत्पत्ति होती हैं , उनसे वियोग होना , योग है। 

# मन से इंद्रियों का नियोजन करें ।

#  कामना मुक्त मन रहे , ऐसा अभ्यास धीरे - धीरे मन को मन की उच्च भूमियों में पहुंचाता है। मन या चित्त की पांच भूमियों हैं , इन्हें यहां समझना भी आवश्यक है।

 मन या चित्त की 5 भूमियां 

क्षिप्ति , मूढ़ , विक्षिप्त , एकाग्रता और निरु । 

सम्प्रज्ञात समाधि में चित्त एकाग्रता भूमि में  होता है लेकिन ज्योंही चित्त निरु अवस्था में आता है  असम्प्रज्ञात समाधि घटित हो जाती है । असम्प्रज्ञात समाधी तक संस्कार शेष रहते हैं । धर्ममेघ समाधि से संस्कारों का प्रतिप्रसव हो जाता है । यह अवस्था कैवल्य का द्वार खोलती है ।

चित्त की भूमियों को चित्त की अवस्थाएं भी कहते हैं । चित्त माध्यम से चित्ताकार पुरुष की  यात्रा भोग से वैराग्य , वैराग्य में समाधि और  समाधि से कैवल्य की है । पुरुष की इस यात्रा में चित्त की भूमियों की प्रमुख भूमिका होती है अतः अब चित्त की 05 भूमियों को समझते हैं ।

1-  क्षिप्ति  : चित्त की यह भूमि योगमें एक बड़ी रुकावट

 है । विचारों का तीव्र गति से बदलते रहना , चित्त की क्षिप्त अवस्था होती है । यह अवस्था तामस गुण प्रधान होती है शेष दो गुण दबे हुए रहते हैं ।

2 - मूढ़ : मूर्छा या नशा जैसी अवस्था मूढ़ अवस्था होती है ।  यह अवस्था राजस गुण प्रधान अवस्था होती है जिसमें ज्ञान - अज्ञान , धर्म - अधर्म , वैराग्य - राग और ऐश्वर्य - अनैश्वर्य जैसे 08 भावों से चित्त बधा रहता है । आसक्ति , काम , कामना , क्रोध , लोभ , भय आदि जैसी रस्सियों से चित्त जकड़ा हुआ होता है ।

3 - विक्षिप्त : इस भूमि में चित्त सतोगुण में होता है  पर रजो गुण भी कभीं - कभीं सतोगुण को दबाने की कोशिश करता रहता है। इस प्रकार रजोगुण के प्रभाव से उत्पन्न होने वाली चित्त की  चंचलता अवरोध उत्पन्न करती रहती है लेकिन इस अवस्था में भी कभीं - कभीं सम्प्रज्ञात समाधि लग जाया करती है । 

4 - एकाग्रता : एकाग्रता भूमि में चित्त में निर्मल सतगुण की ऊर्जा बह रही होती है । किसी एक सात्त्विक आलंबन पर चित्त का समय से अप्रभावित रहते हुए स्थिर रहना , एकाग्रता हैएकाग्रता में चित्त तो एक सात्त्विक आलंबन पर टिक तो जाता  है पर चित्त में उस आलंबन से सम्बंधित नाना प्रकार की वृत्तियाँ बनती रहती हैं और बन - बन कर समाप्त भी होती रहती हैं अर्थात विभिन्न प्रकार की सात्त्विक वृत्तियों का आना - जाना बना रहता है 

5 - निरु : एकाग्रता का गहरा रूप निरु है जो समाधि का द्वार है । जब सम्प्रज्ञात समाधि के बाद असम्प्रज्ञात समाधि मिलती है तब चित्त निरु भूमि में होता  है । सम्प्रज्ञात समाधि आलंबन आधारित होती है और असम्प्रज्ञात समाधि आलंबन मुक्त समाधि होती है । असम्प्रज्ञात समाधि को ही निर्विकल्प या निर्बीज समाधि भी कहते हैं यहां आलंबन नहीं होता पर संस्कार शेष रह जाते हैं जो धर्ममेघ समाधि मिलते ही नष्ट हो जाते हैं और ऐसा  योगी कैवल्य में प्रवेश कर जाता है । यह अवस्था  सिद्ध योगियों की होती हैं और इस अवस्था को चित्त की पूर्ण  शून्यावस्था भी कहते हैं । कर्म फलों का बीज रूप में कर्माशय ( चित्त ) में रहना , संस्कार  हैं ।

# विचारों के निर्विचार स्थिति में मन को लाना जी ध्यान है ।

# मन का पीछा करते रहो , वह जहां - जहां जाय , उसे वहां - वहां से पुनः - पुनः प्रभु कर केंद्रित करते रहने का अभ्यास करते रहना चाहिए ।

# शांत और स्थिर मन परमानंद की अनुभूति कराता है ।

# को सभी भूतों में प्रभु को और और संपूर्ण भूतों को प्रभु में देखता है , वही यथार्थ देखता है ।

# समभाव योगी परम श्रेष्ठ योगी होता है ।


~~ ॐ ~~ 

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