सुनिए और देखिये भी ----
यहाँ कौन ऐसा होगा जिसको सुख की तलाश न हो ?
कौन दुखी रहना चाहता है ?
लेकीन देखना यह है की -----
हम जिसको सुख का श्रोत समझते हैं , क्या वह सचमुच सुख का श्रोत है ?
हम सुख पानें की लिए भोग साधनों की नर्सरी तैयार करते हैं , जिसमें .......
अच्छा मकान का होना .....
एक खूबशूरत बीबी का होना ......
भरा - पूरा धन संपत्ति का होना .....
स्वस्थ्य काया का होना .....
समाज में एक अच्छी इज्जत पाना .....
अच्छी अवलाद का होना .....
कुछ इस प्रकार के पौध होते हैं जो होते तो काल्पनिक हैं पर हम उनको काल्पनिक नहीं समझते ।
अब सोचना यह है की जब -----
सब की खोज सुख की है फिर सभी दुखी क्यों दीखते हैं ?
कहीं हमारी सुख की खोज ही दुःख का कारण तो नहीं ?
जी हाँ , पर कैसे ?
गीता कहता है -----
इन्द्रियों के माध्यम से जो सुख मिलाता है ,
वह भोग के समय तो अमृत सा लगता है लेकीन उस अमृत सा
में दुःख का बीज होता है
जो .......
धीरे - धीरे दुःख का पेंड बन कर खडा हो जाता है
और तब ........
हम जिधर भी उसकी छाया में चलते हैं , उसके कांटे चुभते रहते हैं
और ......
यदि इन काँटों की चुभन में होश जागृत हो गया तो हमें वह राज - पथ मिलजाता है
जो सीधे
परम सुख में पहुंचाता है और यदि होश न उठा तो -------
इन्ही काँटों की सेज पर आखिरी श्वाश भरनी पड़ती है
और .......
चोला बदल कर हम पुनः उसी भोग में आते हैं जिसमें आखिरी श्वाश ली थी ॥
क्या इरादा है ?
यदि होश जगाना है तो -------
भोग के सम्मोहन से भागिए नहीं , उसमें जागिये -----
भोग को त्यागिये नहीं भोग को योग में बदलिए ------
और इस प्रकार एक दिन
आप भी .......
राजा जनक की भाँती बिदेह स्थिति में भोग संसार में होते हुए भी योगी / सन्यासी होंगे
और .....
द्वैत्य से परे अद्वैत्य में उस परम आनंद में होंगे .....
जिसको शब्दों में बाधना संभव नहीं ॥
===== ॐ ======
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