पतंजलि कैवल्य पाद सूत्र : 2 - 5
सिद्ध अनेक शरीर धारण करने में सक्षम होते हैं
कैवल्य पाद सूत्र - 2
जाति अंतर परिणामः प्रकृति आपुरात्
“ जन्मके अंतर का परिणाम , प्रकृतिकी आपूर्ति से होता है “
अर्थात सिद्धि प्राप्त योगी अपने संकल्प मात्र से अनेक शरीर धारण करनें में सक्षम होता है और उसे ऐसा करने में प्रकृति उसके साथ सहयोग करती है ।
पतंजलि कैवल्य पाद सूत्र : 03
निमित्तम् अप्रयोजकम् प्रकृतीनाम्
वरण भेदः तु ततः क्षेत्रिवत ।
निमित्ति (धर्म - सत्कर्म ) प्रकृतिका प्रयोजन नहीं , निमित्त ( धर्म एवं सत्कर्म ) प्रकृति को नहीं चलाते लेकिन बाधाओं को दूर करते है । जैसे किसान एक खेत से दूसरे खेत में पानी भेजने के लिए बीच की मेड़को काट देता है और पानी स्वतः दूसरे खेत में पहुँच जाता है ठीक उसी तरह उसके धर्म एवं सत्कर्म उसके मार्ग में आने वाले अवरोधों को दूर कर देते हैं ।
कैवल्य पाद सूत्र - 4
निर्माण चित्तान्यस्मिता मात्रात्
“ अस्मिता से निर्मित चित्त , निर्माण चित्त कहलाता है “
अस्मिता के लिए निम्न साधन पाद - 6 देखें ⤵️
दृग, दर्शन , शक्तयोः , एकात्मत , इव, अस्मिता
“ दृग - दर्शन शक्तियों का एक हो जाना , अस्मिता ( अहं ) है “
यहां दृग प्रकृति के लिए और दर्शन पुरुष के लिए प्रयोग किया गया है । यहां इस संदर्भ में साधन पाद के निम्न 02 सूत्रों को भी देखना चाहिए …
अविद्या , अस्मिता , राग , द्वेष और अभिनिवेश , 5 प्रकार के क्लेश हैं ( साधन पाद - 03 ) । दृष्टा - दृश्य का संयोग दुःख का हेतु है
( साधना पाद सूत्र - 17 ) ।
जब पुरुष ( चेतन ) प्रकृति ( जड़ ) से जुड़ता है तब वह स्वयं चित्त ( प्रकृति विकृत से उत्पन्न प्रथम 03 तत्त्व - बुद्धि , अहंकार और मन ) केंद्रित रहते हुए प्रकृति विकृति से उत्पन्न 23 तत्त्वों ( चित्त , 10 इंद्रियां , 05 तन्मात्र और 05 महाभुत) के माध्यम से स्व अनुभव हेतु कर्म करता है और जिसके फलस्वरूप मिलने वाले सुख - दुख का भोक्ता भी होता है । इस प्रकार शुद्ध चेतन एवं निर्गुणी पुरुष स्वयं को त्रिगुणी एवं जड़ प्रकृति समझने लगता है और प्रकृति के 23 तत्त्वों को अपने अंगों के रूप में देखने लगता है । पुरुष का स्वयं को प्रकृति समझना , उसके अहं भाव के कारण आता है जिसे अस्मिता कहते हैं । पुरुष का अपनें मूल स्वरूप में आ जाना की पतंजलि योग दर्शन का मूल उद्देश्य है । वस्तुत: चित्त पुरुष - प्रकृति की संयोग भूमि है जो जड़ होने के कारण स्वयं।को भी नहीं जानता लेकिन पुरुष की शुद्ध चेतन ऊर्जा के कारण सक्रिय रहता है ।
कैवल्यपाद सूत्र - 5
प्रकृतिभेदे प्रयोजकम् चित्तम् एकं अनेकेषाम्
“ मूल चित्त निर्माण चित्तो को नियंत्रित करता है “
अब सूत्र 2 से सूत्र 5 तक का भावार्थ ⤵️
एक सिद्ध योगी कई और शरीर धारण करने में सक्षम होता है । श्रीमद्भागवत पुराण स्कंध - 10 .29 से 10.33 में रास - महारास लीला का वर्णन है जिसमें हर गोपिका का अपना कृष्ण होता है और हर गोपिका अपने कृष्ण के साथ नृत्य करती है । योगी को एक से अनेक शरीर धारण करने में प्रकृति सहयोग करती है । जब अनेक शरीर होंगे तो ऐसी स्थिति में हर शरीर का अपना - अपना चित्त भी होगा , जी , जाने ऐसा ही होता है , एक मूल चित्त योगी के मूल शरीर में होता है और शेष शरीरों में अस्मिता से निर्मित निर्माण चित्त होते हैं , जिनका संचालन मूल चित्त करता है। यही कारण है कि रास - महा रास में एक कृष्ण अनेक कृष्ण होते हुए भी एक जैसी क्रिया करते दिखते हैं ।
~~ ॐ ~~
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