पतंजलि योग सूत्र में
चित्त की गणित और आसान ,प्राणायाम , धारणा ,ध्यान एवं समाधि की परिभाषाएं
पतंजलि योग दर्शन और सांख्य योग दर्शन में पुरुष - प्रकृति संयोग से उत्पन्न 23 त्रिगुणी तत्त्वों में बुद्धि , अहंकार एवं मन के समूह को चित्त कहते हैं । त्रिगुणी चित्त जड़ तत्त्व है और चित्त केंद्रित पुरुष निर्गुणी तथा चेतन तत्त्व है ।
∆ चित्त जड़ है अतः उसे न तो स्वयं का ज्ञान होता है और न दूसरों का लेकिन पुरुष ज्ञानवान् है । चित्त , स्मृतियों में पुरुष के साक्षित्वमें विषय धारण करता है (पतंजलि कैवल्य पाद सूत्र : 19 +20 ) ।
∆ चित्त केंद्रीय पुरुष सुख - दुःख का भोक्ता है ।
∆ चित्तानुसार वस्तु दिखती है ( पतंजलि कैवल्य पाद सूत्र -17 )
∆कर्म से संस्कार बनते हैं जो कर्माशय में एकत्रित होते रहते हैं ।
∆ जबतक क्लेष निर्मूल नही होते , सुख - दुख मिलते रहते हैं और ऐसी स्थिति में आवागमन से मुक्ति नहीं मिल पाती (साधन पाद सूत्र : 13 +14 )
∆ क्लेश कर्माशय (चित्त ) की मूल हैं (साधन पाद : 12 )
∆ ध्यान से निर्मित चित्त ,क्लेश - कर्म वासनाओं से मुक्त होता है
( कैवल्य पाद - 6 ) ।
∆ समाधि भाव जागृत होने से क्लेश तनु अवस्था में आ जाते हैं
(साधनपाद सूत्र - 25 )।
व्युत्थान और निरोध , चित्त के दो धर्म हैं । चित्त अपनें पूर्व अनुभवों में विचरण करता रहता है और इसे उसका व्युत्थान धर्म कहते हैं । जब चित्त सात्त्विक विषयों पर केंद्रित रहने लगता है तक उसके इस स्वभाव को निरोध धर्म कहते हैं। चित्त का व्युत्थान धर्म से निरोध धर्म में बसे रहना , पतंजलि योग साधना का उद्देश्य है ।अब पतंजलि योग साधना के प्रमुख 05 अंगों की परिभाषाओं को समझते हैं ⤵️
1- आसन > स्थिर सुखं आसनम् (साधनपाद सूत्र - 46 )।
शरीर की जिस मुद्रा में बैठने से स्थिर सुख मिले उसे आसन कहते
हैं । यहां ध्यान में रखना होगा कि स्थिर सुख में चित्त , देश - काल से अप्रभावित रहता है अर्थात स्थिर सुख आयाम में योगी का चित्त विषय , स्थान एवं समय से अप्रभावित रहता है ।
2 - प्राणायाम
"तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविक्षेदः प्राणायामः
( साधन पाद सूत्र नं- 2.49 )
आसन सिद्धि में जब श्वास्त - प्रश्वास स्वतः रुक जाएं तब उस अवस्था को प्राणायाम कहते हैं । पूरक , रेचक और कुंभक , प्राणायाम के अंग हैं । श्वास लेना पूरक है , श्वास बाहर निकालना रेचक है और इन दोनों के संगम को कुंभक कहते हैं जो बाह्य एवं आंतरिक दो होते हैं । प्रश्वास के अंत में बाह्य कुंभक घटित होता है और श्वास के अंत में आंतरिक कुंभक घटित होता है ।
3 - धारणा
देश बंध: चित्तस्य , धारणा (विभूति पाद सूत्र : 1 ) ।
चित्तको किसी देश (सात्त्विक आलंबन ) से बांध देना धारणा है अर्थात धारणा में किसी एक सात्त्विक आलंबन के साथ चित्त को जोड़े रहने का अभ्यास किया जाता है ।
4 - ध्यान
तत्र , प्रत्यय , एकतानता , ध्यानम्
धारणा में चित्त का देर तक स्थिर रहना , ध्यान है ।
धारणा की दृढ़ भूमि से ध्यान में प्रवेश मिलता है ।
5 - संप्रज्ञात समाधि
तत् एव अर्थ मात्र निर्भासं स्वरुपशून्यम् इव समाधि
( विभूति पाद सूत्र - 3 )
ध्यान जब सिद्ध होता है तब ध्यान का आलंबन नाम मात्र रह जाता है अर्थात सूक्ष्म रूप में रहता है और उस सूक्ष्म आलंबन स्वरूप पर चित्त शून्य हो जाता है।
अर्थ मात्रआलंबन के साथ चित्त की शून्यावस्था , सबीज समाधि या सम्प्रज्ञात समाधि कहलाती है ।
धारणा , ध्यान और संप्रज्ञात समाधि का एक साथ घटित होना जब शुरू हो जाता है तब इसे संयम कहते हैं । संयम सिद्धि से सिद्धियां मिलती हैं जिसके प्रभाव में योगी ऐश्वर्य का प्रदर्शन करने लगता है और उस का योग खंडित हो जाता है । ऐसे योगी जो सिद्धियों से प्रभावित नहीं होते , उनकी योग यात्रा आगे चलती रहती है और वे कैवल्य प्राप्त करने में सफल होते हैं ।
~~ ॐ ~~
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