पतंजलि योग सूत्र आधारित
आसन , प्राणायाम , धारणा , ध्यान और संप्रज्ञात समाधि की साधना - यात्रा
पिछले अंक में पतंजलि योग सूत्र दर्शन आधारित चित्त की गणित और अष्टांगयोग से 05 प्रमुख अंगों (आसन , प्राणायाम , धारणा , ध्यान और समाधि ) की परिभाषाओं से परिचय हुआ और अब इन 05 अंगों की साधना यात्रा की जा रही है। आसन , प्राणायाम , धारणा , ध्यान और समाधि के योगाभ्यास यात्रा के लिए एक कोई सात्त्विक आलंबन की भी आवश्यकता पड़ती है जो पांच ज्ञान इंद्रियों के विषयों में से किसी एक विषय से संबंधित होना चाहिए । आलंबन के तीन अंग होते हैं - शब्द , अर्थ और ज्ञान और ग्राह्य, ग्रहण और ग्रहिता , इन तीन के सहयोग से पतंजलि योग साधना होती है । आलंबन के 03 अंगों में शब्द , स्थूल आलंबन के स्वरूप को कहते हैं जो इंद्रिय का ग्राह्य होता है , अर्थ , मन का ग्राह्य होता है और ज्ञान बुद्धि का ग्राह्य होता है । इस प्रकार ग्याह्य आलंबन के तीन अंगों में से कोई एक हो सकता है । ग्रहण उसे कहते हैं जो ग्राह्य से जुड़ता है अर्थात कोई एक ज्ञान इंद्रिय जो ग्रह्य से जुड़ती है , वह ग्रहण कहलाएगी और ग्रहीता चित्त केंद्रित पुरुष होता है । पतंजलि योग सूत्र दर्शन में जड़ , सनातन एवं त्रिगुणी प्रकृति और चेतन , सनातन एवं निर्गुणी पुरुष के संयोग से हम सब हैं । प्रकृति - पुरुष संयोग के फलस्वरूप निर्गुणी पुरुष त्रिगुणी प्रकृति के त्रिगुणी चित्त में स्थित हो कर चित्ताकार हो होता है । पुरुष को प्रकृति मुक्त बनाना , पतंजलि योग साधना का लक्ष्य है । प्रकृति - पुरुष संयोग के फलस्वरूप विकृत हुई प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणी 23 तत्त्वों में बुद्धि , अहंकार एवं मन को चित्त कहते हैं जो एक दूसरे के अभिप्राय को समझते हुए कार्य करते हैं । प्रकृति के 23 तत्त्व ( चित्त , 11 इंद्रियां , 05 तन्मात्र और 05 महाभूत ) पुरुष को उसके मूल स्वरूप में लौटने में सहयोग करते हैं ।
चित्त केंद्रित पुरुष का अपनें स्वरूप में आ जाना , पतंजलि योग साधना की सिद्धि है जिसे कैवल्य कहते हैं । तीन गुणों का प्रतिप्रसव हो जाना तथा पुरुषार्थका शून्य हो जाना कैवल्य है । अब आगे …
ऊपर स्लाइड में दिए गए 05 अंग , पतंजलि अष्टांग योग के 08 अंगों अंग 3 , 4 , 6 , 7 और 8 हैं । अष्टांगयोग के 08 अंगों को निम्न स्लाइड - 02 में देख सकते हैं 🔽
आसन , प्राणायाम , धारणा , ध्यान और संप्रज्ञात समाधि , पतंजलि योग यात्रा के चरण हैं जो एक की सिद्धी के बाद दूसरे स्वतः आते रहते हैं तबतक जबतक कि यह योग यात्रा किसी कारण वश खंडित न हो जाए। महर्षि पतंजलि समाधिपाद में सूत्र : 12 - 19 , 23 - 29 , और सूत्र : 34 - 39 में चित्त एकाग्रता के लिए कुछ आलंबनों की चर्चा करते हैं , जिनमें सूत्र - 36 में अखण्ड ज्योति को भी एक आलंबन बताते हैं । इस आलंबन की स्लाइड - 01 में दिखाया गया है।
आसन
आसन शरीर की वह अवस्था है जिसमें स्थिर सुख की अनुभूति में साधक देश - काल से अप्रभावित रहता है । आसन में बैठकर अपनें शरीर पर ध्यान केंद्रित रखने का अभ्यास करना चाहिए । शरीर के अंदर जो भी घटित हो रहे हों , उन सबका दृष्टा बने रहने का अभ्यास करना चाहिए। कुछ दिनों के अभ्यास के बाद आसन की सिद्धी मिलती है । आसन में जब लंबे समय तक बने रहने का अभ्यास फलित होने लगता है तब उसी आसन में बैठे अपनें श्वासों का नियंत्रण प्रारंभ कर देना चाहिए जिसे प्राणायाम कहते है …
प्राणायाम
निम्न पर विचार करने से , प्राणायाम की धारणा बनाती है…
<> बुद्ध कहते हैं > एक घंटा प्रतिदिन नियमित रूप से यदि श्वासो पर ध्यान किया जाय तो कैवल्य प्राप्ति संभव है ।
<> गरुण पुराण में बताया गया है > एक सामान्य मनुष्य 24 घंटे में 21,600 बार श्वास लेता है अर्थात लगभग 15 श्वास / मिनट ।
<> विज्ञान कहता है > एक सामान्य मनुष्य 24 घंटे में 23,000 बार श्वास लेता है अर्थात 16 श्वास / मिनट ।
गरुण पुराण और वैज्ञानिक विचारों की समानता पर ध्यान देना चाहिए ।
<> श्रीमद्भागवत पुराण 8.4 में बताया गया है >
5 वर्षीय ध्रुव को मधुबन ( मथुरा ) यमुना के तट पर प्राणायाम माध्यम से 5 माह के योगाभ्यास से श्री हरि के दर्शन प्राप्त हुए थे और प्रसाद रूप में ध्रुव पद प्रात हुआ था।
<> श्रीमद्भागवत पुराण में यह भी बताया गया है , शरीर में 10 प्रकार की वायु हैं जिनका संचालन जीवात्मा करता है ।
10 प्राण और देह में उनकी स्थिति
🌄 भागवत : 3.28.10 > कपिल मुनि अपनीं माँ को सांख्ययोग का बोध कराते समय कह रहे हैं …
● प्राणवायु नियंत्रण मन को निर्मल रखता है ।
🌷प्राणायाम के संबंध में हठयोग प्रदीपिका के निम्न श्लोको को देखिये ⤵️
1️⃣
चले बाते चलं चित्तं निश्चले निश्चलं भवेत् ।
योगी स्थाणुत्वमाप्नोति ततो वायुम् निरोधयेत् ।।
" प्राणों के चलायमान होने पर चित्त भी चलायमान रहता है और निश्चल प्राणोंके साथ मन भी स्वतः निश्चल हो जाता है “।
2️⃣
यावत् वायु : स्थितो देहे तावत् जीवनम् उच्यते ।।
मरणं तस्य निष्क्रांति : ततो निरोधयेत ।
" जबतक शरीर में वायु है तबतक जीवन है और वायुका देहमें न होना ही मृत्यु है "।
अब प्राणायाम में उतरते हैं ….
प्राणायाम के तीन चरण होते हैं ; पूरक , रेचक और कुंभक ।
श्वास को अंदर लेने को पूरक और श्वास को बाहर निकालने को रेचक कहते हैं । पूरक और रेचक की अनुपस्थिति को कुंभक कहते हैं जो दो प्रकार का होता है ; आंतरिक कुंभक और बाह्य कुंभक । जहां पूरक का अंत होता है और रेचक का प्रारंभ होता हैं, वह दोनों के अनुपस्थिति का आयाम अंतरिक कुंभक का होता है। इसके ठीक विपरीत आयाम बाह्य कुंभक का होता है ।
आसन और प्राणायाम के बाद धारणा , ध्यान और समाधि की साधनाएं सात्त्विक आलंबन आधारित होती हैं …
धारणा किसी सात्त्विक आलंबन से चित्त को बाध कर रखने का अभ्यास , धारणा कहलाता है । धारणा साधना में एक दीपक की अखंडित स्थिर ज्योति को आलंबन बनाया जा सकता है जैसा यहां दिखाया भी गया है । एक स्थिर ज्योति के सामने पहले से सिद्ध किए गए आसन में बैठ कर उस ज्योति पर ध्यान केंद्रित करने का अभ्यास करना चाहिए । दिव्यांग साधक ज्योति की जगह कोई अन्य सात्त्विक आलंबन ले सकते हैं , यह इस बात पर निर्भर करता है कि उनकी कौन सी ज्ञान इंद्रिय ज्यादा शक्तिशाली है । ऐसे लोग किसी स्पर्श सात्त्विक माध्यम या कान माध्यम से सुनने वाले किसी सात्त्विक मंत्र , छंद या संगीत को माध्यम बना कर धारणा की सिद्धी कर सकते हैं । आलंबन के लिए पतंजलि योग सूत्र समाधिपाद सूत्र : 12 - 19 , 23 - 29 , और सूत्र : 34 - 39 में चित्त एकाग्रता के लिए कुछ आलंबनों की चर्चा करते हैं जैसे ईश्वर प्रणिधान, बाह्य कुंभक , स्थिर ज्योति , बीत राग विषय , सात्त्विक स्वप्न , निद्रा , स्वरुचि आधारित कोई भी सात्त्विक विषय को आलंबन बनाया जा सकता है ।
ध्यान धारणा की दृढ़ भूमि पर ध्यान घटित होता है । जब किसी आलंबन पर धारणा की अवधि लंबी होने लगे तब ध्यान घटित होता है । ध्यान में साधक देश - काल से अप्रभावित रहता है और यह आयाम जब सूक्ष्म और लंबा हो जाता है तब संप्रज्ञात समाधि घटित होती है ।
संप्रज्ञात समाधि
ध्यान जैसे - जैसे दृढ़ होता जाता है वैसे - वैसे आलंबन का स्वरूप सूक्ष्म होता जाता है और अंततः यह अर्थ मात्र निर्भासित होता रहता है और इस आयाम में चित्त शून्य हो जाता है । ध्यान की यह अवस्था संप्रज्ञात समाधि कहलाती है। चित्त का शून्य होना अर्थात चित्त का दृष्टा बन जाना है । संप्रज्ञात समाधि में स्थित योगी के शरीर की संवेदना शून्य हो जाती है , श्वास - प्रश्वास की गति न के बराबर हो जाती है और कुछ समय के लिए योगी मृतक शरीर वाला हो गया होता है लेकिन उसकी चेतना उच्चतम शिखर पर होती है। समाधिस्थ योगी के शरीर को वैसे ही रहने देना चाहिए , शरीर की स्थिति को बदलना नहीं चाहिए नहीं तो कुछ असोचनीय घटना घट सकती है। कुछ समय बाद समाधि स्वत: टूट जाती है और पुनः योगी अपनें सामान्य स्थिति में आ जाता है।
जब धारणा , ध्यान और संप्रज्ञात समाधि एक साथ घटित होने लगती हैं तब इसे संयम कहते हैं। संयम सिद्धि से सिद्धियां मिलती हैं । विभूति पाद सूत्र : 16 - 49 ( 34 सूत्र ) में महर्षि पतंजलि संयम सिद्धि से 45 प्रकार की सिद्धियों की प्राप्ति का वर्णन किया हैं ।
सिद्धियां योग साधना में रुकावट होती हैं । ऐसा योगी जो सिद्धियों से प्राप्त ऐश्वर्यों के प्रदर्शन से ख्याति प्राप्त करने में लग जाता है , उसकी योग साधना खंडित हो जाती है । जो योगी सिद्धियों से आकर्षित हुए बिना योगाभ्यास में लगा रहता है , वह कैवल्य प्राप्त करता है। तीन गुणों का प्रति प्रसव होना तथा पुरुषार्थ ( धर्म , अर्थ , कामौर मोक्ष )
का शून्य हो जाना , कैवल्य है ।
~~ ॐ ~~
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