Tuesday, October 15, 2024

पतंजलि योग दर्शन में कर्म और कर्म वासना

पतंजलि योग सूत्र कैवल्य पाद में कर्म और कर्म वासना 

कैवल्य पाद सूत्र : 7 , 8 , 10 , 11


पतंजलि कैवल्य पाद सूत्र 7 , 8 , 10 और सूत्र 11 का संबंध कर्म और कर्म - वासना से है अतः सूत्रों में उतरने से पहले कर्म और वासना को समझ लेते हैं ।

 कोई भी जीवधारी पल भर के लिए भी कर्म मुक्त नहीं रहता। पतंजलि योग सूत्र के अनुसार त्रिगुणी प्रकृति और निर्गुणी पुरुष के संयोग से हम सब दृश्य वर्ग हैं । प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणी 23 तत्त्व ( बुद्धि , अहंकार , 11 इंद्रियां , 5 तन्मात्र , 5 महाभूत ) में बुद्धि , अहंकार और मन के समूह को चित्त कहते हैं । निर्गुणी शुद्ध चेतन पुरुष सगुणी, जड़ चित्त केंद्रित होता है और इन 23 तथ्यों के माध्यम से त्रिगुणी पदार्थों को भोगता है । भोग फल रूप में मिलने वाले सुख और दुःख का भोक्ता भी पुरुष ही है । गुणों का हर पल बदलते रहना स्वभाव है । देह में हर पल गुणों में हो रहा बदलाव एक विशेष प्रकार की ऊर्जा उत्पन्न करता है जिसे कर्मणकरणी की ऊर्जा कह सकते हैं । गुणों केन्परिवर्तन से सात्त्विक , राजसी और तामसी , तीन प्रकार के कर्म होते हैं । मूलतः सात्त्विक कर्म  ज्ञान केंद्रित, राजस कर्म भोग केंद्रित और तामस कर्म आलस्य , मोह और भ्रम केंद्रित होते हैं। सात्त्विक कर्म होने में अहंकार की अनुपस्थिति होती है , राजस कर्म में धनात्मक फैला हुआ अहंकार होता है जो दूर से दिखता है और तामस कर्म में सिकुड़ा हुआ अहंकार होता हैं , जिसे केवल सांख्य योगी पहचान पाते हैं। समयांतर में जब भी सिकुड़ा हुआ नकारात्मक अहंकार फैले हुए धनात्मक अहंकार में बदलता है तब राजसी कर्म होते हैं ।

कर्म वासना कर्म नशा है ; कर्म वासना में चित्त कर्म मुखी हो जाता है  और मनुष्य उस कर्म का गुलाम बन जाता है । अब पतंजलि कैवल्यपाद सूत्र - 7 , 8 , 10 और सूत्र - 11 को समझते हैं ।

कैवल्य पाद सूत्र - 07 ( कर्म के प्रकार )

“ कर्म अशुक्ल अकृष्ण योगिनस्त्रि विध मितरेषाम् “

योगी के कर्म अशुक्ल एवं अकृष्ण , दो प्रकार के होते हैं और 

अन्य लोगो के कर्म शुक्ल , कृष्ण और शुक्ल - कृष्ण मिश्रित , तीन प्रकार के होते हैं ।

 अशुक्ल एवं अकृष्ण कर्म निष्काम कर्म या निवृत्ति परक कर्म होते हैं और शुक्ल , कृष्ण एवं मिश्रित कर्म प्रवृत्ति परक कर्म होते हैं ।

कैवल्य पाद सूत्र : 08 ( कर्म वासनाएँ )

ततस्तद्विपाकानुगुणानामेव 

अभिव्यक्ति: वासनानाम् 

ऊपर कैवल्य पाद सूत्र - 7 में बताए गए 03 प्रकार के कर्मों के फलानुसार उनकी अपनी - अपनी कर्म वासनाएं उत्पन्न होती हैं अर्थात कर्म से कर्म वासना की उत्पत्ति होती है , जैसा कर्मभोग , उसकी वैसी वासना ।

कैवल्य पाद सूत्र : 10 ( वासनाएँ अनादि हैं )

तासामनादित्वम् चाशिषो नित्यत्वात् 

प्राणियों में सदैव जीवित रहने की गहरी सोच के कारण , उनकी वासनाएं अनादि होती हैं ।

कैवल्य पाद सूत्र - 11 ( वासनाओं की संग्रह भूमियाँ )

हेतु फल आश्रय आलंबनै: संगृही तत्वादेषामभावे तदभावः ।।

ऊपर सूत्र में वासनाओं की निम्न 04 संग्रह भूमियाँ बताई गई हैं 🔽

हेतु ,फल ,आश्रय और आलंबन 

अब इन 04 वासना की संग्रह भूमियों को समझते हैं …

1- हेतु > वासनाओं के उठने के कारणों को हेतु कहते हैं और अविद्या कर्म वासनाओं की हेतु है । 

अविद्या क्या है ?

# अविद्या ,अस्मिता , राग , द्वेष और अभिनिवेष , 05 क्लेश हैं । इन पांच क्लेशों में अविद्या शेष 04 क्लेशों की जननी हैं ~साधन पाद सूत्र : 3~

# जबतक क्लेष निर्मूल नही होते , सुख - दुख मिलते रहेंगे और आवागमन से मुक्ति नहीं मिल सकती  ~साधन पाद सूत्र : 13+14~

# अनित्य को नित्य , अशुचि को शुचि , दुःख को सुख और अनात्म को आत्म समझना अविद्या है जिसे विपर्यय या अज्ञान भी कहते हैं ~ साधन पाद सूत्र : 5 ~

# अविद्या का अभाव , दुःख का अभाव है और यही कैवल्य है 

~ साधनपाद सूत्र - 25 ~

2 - फल > कर्म फल की सोच , वासनाओं की संग्रह भूमि है ।

3 - आश्रय > चित्त कर्म वासनाओं की संग्रह भूमि है और चित्त को कर्माशय भी कहते हैं ।

4 - आलंबन > तन्मात्र , वासनाओं के आलंबन हैं।

~~ ॐ ~~ 

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