Sunday, September 19, 2010

कोई सिसक रहा था


सुबह - सुबह मैं एक पेंड के नीचे बैठ कर सुस्ता रहा था , कुछ - कुछ अन्धेरा भी था , मुझे लगा पास में
कोई सिसक रहा है । मैं इधर - उधर देखनें की कोशिश भी की लेकीन कुछ दिख न पाया
पैरों की ओर से एक आवाज आई , मैं हूँ , मैं हूँ की आवाज सुन कर मैं तो घबडाया लेकीन इतनें में
वह बोली - यह मैं - पृथ्वी हूँ ।
पृथ्वी और रोना , कुछ समझ में न आया , मैं पूछ बैठा , बात क्या है ? पृथ्वी बोली , आप पूछते हैं
बात क्या है ?
क्या आप देखते नहीं की मेरे साथ क्या हो रहा है ?
मैं क्या करती , उधर शहर में तो सिसल भी नही सकती थी सोचा चलते हैं बाहर कहीं एकांत में रो लेते हैं ।
विज्ञान के बिकास के साथ मैं बहुत खुश थी , क्या पता था की मेरी ऎसी दशा होगी ?
मनुष्य क्यों इतना स्वार्थी होता जा रहा है ? मैं तो करोड़ों सालों से आप सब की सेवा कर रही हूँ लेकीन
मुझे क्या यही मिलना था ? अब तो हालत ऎसी आ गयी है की श्वास लेना भी कठिन हो गया है ॥

==== जय हो ======

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