Friday, May 28, 2021

अष्टावक्र गीता श्लोक : 1.6 - 1.10

 अष्टावक्र के प्रारंभिक 19 श्लोकों में श्लोक : 1.6 - 1.10 का सार नीचे स्लाइड में दिया गया है ।

ध्यान रखें ! यहाँ जो भी दिया जा रहा है उसका एक मात्र लक्ष्य है , आपको अष्टावक्र की सोच से जोड़ना । यहाँ संस्कृत से हिंदी में जो भाषान्तर किया जा रहा है , वह अनुबाद नहीं भावार्थ मात्र है । सरल से सरल शब्दों के  माध्यम से जटिल से जटिल अष्टावक्र के वचनों को व्यक्त करने के  प्रयास का मुख्य ध्येय यही है कि हम यह समझ सकें की हम कौन हैं ?

◆ करता भाव अहँकार की छाया है , करता तो गुण हैं ।

◆ हमारा बंधन केवल यह है कि हम द्रष्टा तो हैं लेकिन स्वयं को दृश्य और किसी और को द्रष्टा मान बैठे हैं ....

इस प्रकार के गणितीय सूत्र आपको यहाँ मिलेंगे जिनको  समझ कर कर्म - बंधनों की जाल से मुक्त हो कर उस अव्यक्त , सनातन , अप्रमेय , गुणातीत , मायातीत और अपरिवर्तनीय की सोच में अपनें अंतःकरण को डुबो दें । अपनें को बचाना नहीं , डूब जाने दें और अनंत की गहराई में पहुँचने पर ज्ञान अनंत हो उठेगा और ज्ञेय शून्य । परम प्रकाश जो अंदर है पर माया सम्मोहन में  उसे कहीं और ढूढ रहे हैं , कस्तूरी मृग जैसे , उस की अनुभूति होने लगती है । ध्यान रखें कि अष्टावक्र के प्रारंभिक 19 श्लोकों को सुनते ही राजा जनक रूपांतरित हो जाते हैं और उनके अंदर प्रश्न करने की ऊर्जा समर्पण और श्रद्धा में बदल जाती है

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