Saturday, June 5, 2021

अष्टावक्र गीता अध्याय : 8 - 11भाग - 1

 बल ऋषि अष्टावक्र जी वही कह रहे हैं जो प्रभु श्री कृष्ण श्रीमद्भगवद्गीत में अर्जुन को बताते हैं । बंधन वैराग्य और मुक्ति ये मनुष्य जीवन - यात्रा के रहस्य हैं , कैसे ? जब मन कैसे के बारे में सोचना प्रारम्भ करे तब समझना चाहिए कि यात्रा की दिशा सही है पर ऐसा होना अति कठिन है । बंधन क्या है ? कर्म - बंधन ही भोग बंधन हैं और श्रीमद्भगवद्गीत और भागवत पुराण में आसक्ति , काम , कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय , आलस्य और अहँकार को कर्म बंधन बताया गया है । 

श्रीमद्भगवद्गीत अध्याय - 2 श्लोक : 62 - 63 को देखिये --

इन्द्रिय - बिषय संयोग से मन में बिषय के प्रति मनन उठता है जो आसक्ति की जननी है । आसक्ति से कामना उठती है । कामना टूटने पर क्रोध उत्पन्न होता है । क्रोध में बुद्धि संतुलन खो देती है और ऐसा ब्यक्ति पाप कर बैठता है । आगे अध्याय : 3 श्लोक - 34 में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं - बिषय राग - द्वेष की ऊर्जा के श्रोत हैं अर्थात इन्द्रिय - बिषय संयोग से राग - द्वेष की ऊर्जा मिलती है और इस बात की अनभिज्ञता मनुष्य को भोग में आसक्त कर देती है । लेकिन जब इस रहस्य का बोध हो गया होता है तब वही भोग कर्म , योग कर्म बन जाता है और बंधन मुक्त आयाम में वह ब्यक्ति कर्म करता हुआ कर्म - मुक्त रहता है । इस स्थिति को नैष्कर्म्य की स्थिति कहते हैं जो ज्ञान योग की परा निष्ठा है । ज्ञान से वैराग्य और वैराग्य से मुक्ति मिलती है।

अब देखिये अष्टावक्र गीता की निम्न स्लाइड को 👇






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