Sunday, October 31, 2010

एक दिन .......

बिना सोचे आ ही गया ------

एक दिन अकेले में मैं बैठा था , न जाने कैसे एक सुमधुर आवाज मेरे दिल में उठी ,
मैं तो सुन कर चारों तरफ देखनें लगा , मानो कोई अपना ही बोल रहा है ।
आवाज थी ------
पंडितजी ! जो लोगों को बाट रहे हो , उसका एक अंश भी यदि अपनें पास रख लेते तो तुझे कोई
गिला- सिकवा न होता ।
लोगों को जो तुम कहते हो , वह कितना सच है और कितना झूठ , क्या कभी सोचे हो ?
क्यों लोगों को वह बताते हो जिसका तेरे को कोई अनुभव नहीं है ?
कभी बैठ कर क्या सोचते भी हो की तुम क्या कर रहे हो ?
क्यों पीतल की अंगूठी को चमका कर सोनें की बना रहे हो ?
क्या ऐसा कर पाओगे भी ? और यदि कामयाब
भी हो गए तो क्या होगा ?
लोगों के सामनें यदि स्वयं को साफ़ करना संभव नहीं , तो अकेले में ही सही कभी- कबार जो कबाड़ अन्दर
संग्रह करते रहते हो उनको साफ़ कर दिया करो ॥
मुझे ऐसा लगा जैसे मैं अभी - अभी नीद से जगा हूँ और मेरी आँखें उलझी हुयी हैं ।
मेरे में करेंट सी बह उठी और मैं चल पडा किसी निर्जन स्थान की खोज में ।
अभी कुछ ही दूर चला हुआ हूंगा की
पुनः उसी स्वर में आवाज आयी -
अच्छा ! अब सूनी जगह की तलाश की आड़ में भाग रहे हो , भागो जितना भागना है ,
मैं तेरा साथ नहीं छोडनें वाला ।
अरे भाई ! बाहर एकांत खोज कर क्या करोगे ?
अन्दर ही एकांत क्यों नहीं बनानें का प्रयत्न करते ।
फिर कहाँ जाना था , चल पड़े उलटे पैर घर को
और कोशीश शुरू करदी अन्तः कर्ण को एकांत के रंग में
रंगनें की ॥
आप कब शुरू करनें वाले हैं ?

=== आओं मिल कर करते हैं ======

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